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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 75 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 75/ मन्त्र 3
    ऋषिः - कविः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    अव॑ द्युता॒नः क॒लशाँ॑ अचिक्रद॒न्नृभि॑र्येमा॒नः कोश॒ आ हि॑र॒ण्यये॑ । अ॒भीमृ॒तस्य॑ दो॒हना॑ अनूष॒ताधि॑ त्रिपृ॒ष्ठ उ॒षसो॒ वि रा॑जति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अव॑ । द्यु॒ता॒नः । क॒लशा॑न् । अ॒चि॒क्र॒द॒त् । नृऽभिः॑ । वे॒मा॒नः । कोशे॑ । आ । हि॒र॒ण्यये॑ । अ॒भि । ई॒म् । ऋ॒तस्य॑ । दो॒हनाः॑ । अ॒नू॒ष॒त॒ । अधि॑ । त्रि॒ऽपृ॒ष्ठः । उ॒षसः॑ । वि । रा॒ज॒ति॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अव द्युतानः कलशाँ अचिक्रदन्नृभिर्येमानः कोश आ हिरण्यये । अभीमृतस्य दोहना अनूषताधि त्रिपृष्ठ उषसो वि राजति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अव । द्युतानः । कलशान् । अचिक्रदत् । नृऽभिः । वेमानः । कोशे । आ । हिरण्यये । अभि । ईम् । ऋतस्य । दोहनाः । अनूषत । अधि । त्रिऽपृष्ठः । उषसः । वि । राजति ॥ ९.७५.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 75; मन्त्र » 3
    अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 33; मन्त्र » 3
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (त्रिपृष्ठः) भूर्भुवः स्वः इमे त्रयो लोकाः पृष्ठस्थानीया यस्य स परमात्मा (उषसः) उषःकालस्य प्रकाशको भूत्वा (अधिविराजति) विराजमानोऽस्ति। (ऋतस्य) सत्यस्य (दोहनाः) दोहनकर्तारः (ईम्) अमुं परमात्मानम् (अभ्यनूषत) उपासनया विभूषयन्ति। स परमात्मा (हिरण्यये कोशे) प्रकाशरूपेऽन्तःकरणे (येमानः) अखिलनियमनियामकः परमेश्वरः (अचिक्रदत्) शब्दायमानः सन् (नृभिः) उपासकैः स्तुतो निवसति। अथ च (कलशान्) तेषामन्तःकरणानि (अवद्युतानः) प्रकाशयन् (आ) विराजितोऽस्ति ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (त्रिपृष्ठः) भूः भुवः स्वः ये तीन लोक हैं पृष्ठस्थानी जिसके, वह परमात्मा (उषसः) उषाकाल का प्रकाशक होकर (अधिविराजति) विराजमान है। (ऋतस्य) सच्चाई के (दोहनाः) दोहन करनेवाले (ईम्) इस परमात्मा को (अभ्यनूषत) उपासक गण उपासना द्वारा विभूषित करते हैं। (हिरण्यये कोशे) प्रकाशरूप अन्तःकरण में (येमानः) सम्पूर्ण नियमों का कर्ता वह परमात्मा (अचिक्रदत्) शब्दायमान होता हुआ (नृभिः) उपासक लोगों से स्तुति किया गया निवास करता है। (कलशान्) उनके अन्तःकरणों को (अवद्युतानः) निरन्तर प्रकाश करता हुआ (आ) विराजमान है ॥३॥

    भावार्थ

    परमात्मा उषा के प्रकाशित सूर्यादिकों का भी प्रकाशक है और वह पुण्यात्माओं के स्वच्छ अन्तःकरण को हिरण्मय पात्र के समान प्रदीप्त करता है अर्थात् जो पुरुष परमात्मपरायण होना चाहे, वह पहिले अपने अन्तःकरण को स्वच्छ बनाये ॥३॥

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    विषय

    अभिषेचनीय तेजस्वी और विद्यानिष्णात पुरुष का वर्णन।

    भावार्थ

    (नृभिः) उत्तम, सन्मार्ग पर ले जाने वाले जनों द्वारा (हिरण्यये कोशे) सुवर्णादि सम्पन्न कोष के ऊपर (येमानः) संयमन या नियन्त्रण करता हुआ (द्युतानः) अति तेजस्वी पुरुष (कलशान् अवष्टित अचिक्रदत्) कलशों को अभिषेकार्थ प्राप्त करता है। इसी प्रकार हित रमणीय ज्ञाननिधि पर गुरुजनों द्वारा अधिकृत हो जाने पर वह विद्वान् स्नातक होने के लिये कलशों को प्राप्त करता है। (ऋतस्य दोहनाः) सत्य ज्ञान को प्राप्त करने वाले वा उस के देने वाले अगले शिष्य और पिछले गुरु सभी (अभि ईम्) उसको लक्ष्य कर, उसके समीप आकर (ऋतस्य ईम् अभि अनूषत) सत्य ज्ञान का उपदेश करते वा उसके लिये उसकी स्तुति करते हैं। वह (त्रि-पृष्ठः सन्) सूर्यवत् तीन प्रकार के वस्त्रों को अपने देह पर धारण करता हुआ, वह तीनों वेदों वा तीनों ज्ञान, कर्म और वाणी को वस्त्रवत् धारण करता हुआ (उषसः अधि) कान्ति युक्त उषाओं के तुल्य ज्ञान वा धन की कामना करने वाले शिष्यादि प्रजा वर्ग के ऊपर अध्यक्षवत् (विराजति) विराजता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कविर्ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:– १, ३, ४ निचृज्जगती। २ पादनिचृज्जगती। ५ विराड् जगती॥

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    विषय

    द्युतान:- त्रिपृष्ठ:

    पदार्थ

    [१] (द्युतानः) = ज्योति का विस्तार करनेवाला सोम (कलशान्) = इन १६ कलाओं के आधारभूत शरीरों को अब (अचिक्रदत्) = विषयों से पृथक् करके [अब] प्रभु-स्तवनवाला बनाता है [अचिक्रदत्- शब्दायते] । (नृभिः) = उन्नतिपथ पर चलनेवालों से (हिरण्यये कोशे) = ज्योतिर्मयकोश में, विज्ञानमयकोश में (आयेमानः) = संयत किया जाता है। अर्थात् शरीर में संयत सोम ज्ञानाग्नि का ईंधन बनकर विज्ञानमयकोश को खूब दीप्त बना देता है, यह 'हिरण्यय' बन जाता है। [२] (ऋतस्य दोहना:) = ऋत का, सत्य का अपने में प्रपूरण करनेवाले लोग (ईम्) = निश्चय से (अभि अनूषत) = इस सोम का लक्ष्य करके स्तवन करते हैं। सोम का प्रात:सायं स्तवन उन्हें सोम के रक्षण के लिये प्रेरित करता है (त्रिपृष्ठ:) = प्रातः - सवन, माध्यन्दिन सवन व तृतीय सवन ये तीन सवन जिसके आधार हैं, अर्थात् इन तीनों बाल्य यौवन व वार्धक्य में यज्ञशील बनकर हम सोम का रक्षण कर पाते हैं। यह सोम (उषसः) = उषाओं को (विराजति) = विशिष्टरूप से दीप्त करता है । सोमरक्षण से हमारी उषायें बीतती हैं। सोमरक्षण वस्तुतः हमारे जीवन के दिनों को सुन्दर बनानेवाला है।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोम हमारे जीवनों में ज्योति को बढ़ाता है। यह हमें प्रभु-स्तवन की वृत्तिवाला बनाता है और हमारे जीवन के दिनों को दीप्त करता है। सूचना - 'त्रिपृष्ठः' का भाव यह भी लिया जा सकता है कि जो हमारे बाल्य, यौवन व वार्धक्य तीनों का आधार बनता है अथवा जो शरीर, मन व बुद्धि इन तीनों को ठीक रखता है।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Evoked and concentrated in the golden cave of the heart by veteran yogis, leading them to a vision of divinity, illuminating the sacred hearts, it vibrates and speaks loud and bold in the spirit. Those who distil the eternal truth of existence in their yajnic communion with divinity celebrate and exalt it in song as it abides over three regions of earth, heaven and the skies and shines over the glory of dawns.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    उषेला प्रकाशित करणारा सूर्य इत्यादींचा प्रकाशकही परमात्माच आहे व तो पुण्यात्म्यांच्या स्वच्छ अंत:करणाला हिरण्यमय पात्राप्रमाणे प्रदीप्त करतो. अर्थात जो पुरुष परमात्म परायण होऊ इच्छितो त्याने प्रथम आपले अंत:करण स्वच्छ करावे. ॥३॥

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