ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 77/ मन्त्र 2
स पू॒र्व्यः प॑वते॒ यं दि॒वस्परि॑ श्ये॒नो म॑था॒यदि॑षि॒तस्ति॒रो रज॑: । स मध्व॒ आ यु॑वते॒ वेवि॑जान॒ इत्कृ॒शानो॒रस्तु॒र्मन॒साह॑ बि॒भ्युषा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठसः । पू॒र्व्यः । प॒व॒ते॒ । यम् । दि॒वः । परि॑ । श्ये॒नः । म॒था॒यत् । इ॒षि॒तः । ति॒रः । रजः॑ । सः । मध्वः॑ । आ । यु॒व॒ते॒ । वेवि॑जानः । इत् । कृ॒शानोः । अस्तुः॑ । मन॑सा । अह॑ । बि॒भ्युषा॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स पूर्व्यः पवते यं दिवस्परि श्येनो मथायदिषितस्तिरो रज: । स मध्व आ युवते वेविजान इत्कृशानोरस्तुर्मनसाह बिभ्युषा ॥
स्वर रहित पद पाठसः । पूर्व्यः । पवते । यम् । दिवः । परि । श्येनः । मथायत् । इषितः । तिरः । रजः । सः । मध्वः । आ । युवते । वेविजानः । इत् । कृशानोः । अस्तुः । मनसा । अह । बिभ्युषा ॥ ९.७७.२
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 77; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 2; मन्त्र » 2
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अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 2; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सः) असौ परमेश्वरः (पूर्व्यः) अनादिरस्ति। तथा (पवते) पवित्रयति। यः (रजः) प्रकृते रजोगुणं (तिरः) तिरस्कृत्य (परिमथायत्) सर्वान् मथ्नाति (सः) अयं परमात्मा (मध्वः) मधुरूपोऽस्ति। तथा (आयुवते) परमाणुरूपप्रकृतिं मिथो मेलयति च। अथ च (वेविजानः) गतिशीलोऽस्ति (कृशानोः) स्वीयतेजोरूपशक्त्या (अस्तुः) आक्षेपकारि- जनेभ्यः (मनसा) आत्मीयमननरूपबलेन (बिभ्युषा) भयं ददाति ॥२॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सः) पूर्वोक्त परमात्मा (पूर्व्यः) अनादि है और (पवते) सबको पवित्र करता है। जो (रजः) प्रकृति के रजोगुण को (तिरः) तिरस्कार करके (परिमथायत्) सबको मथन करता है, (सः) वह (मध्वः) मधुरूप है और (आयुवते) परमाणुरूप प्रकृति को आपस में मिलानेवाला है। (वेविजानः) गतिशील है। (कृशानोः) अपनी तेजरूप शक्ति से (अस्तुः) आक्षेप्ता पुरुषों को (मनसा) अपनी मननरूप शक्ति से (बिभ्युषा) भय को देनेवाला है ॥२॥
भावार्थ
परमात्मा प्रकृति के रजोरूप परमाणुओं का संयोग करके इस सृष्टि को उत्पन्न करता है ॥२॥
विषय
प्रभु सर्वशासक, सर्वव्यापक, सब जात्रों का सन्मार्ग पर चालक है।
भावार्थ
(सः) वह (पूर्व्यः) सब से पूर्व विद्यमान और सब प्रकार से पूर्ण, (दिवः परि) सूर्यादि लोकों के भी (परि पवते) ऊपर व्यापक है। उन पर उस जगद्-उत्पादक का शासन है। वह (श्येनः) अति शुक्ल वर्ण, तेजोमय, अद्भुत, गतिमान्, वेगवान्, बल वाला प्रभु (इषितः) सब का प्रेरक होकर (रजः तिरः मथायद्) समस्त लोकों और प्रकृति के परमाणुओं और तेजः-प्रकाश को भी दूर २ तक संचालित कर रहा है। (सः) वह (वेविजानः) सर्वत्र व्यापता हुआ, (मध्वः आ युवते) आनन्द को प्रदान करता है, वह (विभ्युषा मनसा) डरने वाले मन से (कृशानोः अस्तुः) कृश अति अल्प प्राणयुक्त जीव को भी सन्मार्ग में चलाने हारा हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कविर्ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः– १ जगती। २, ४, ५ निचृज्जगती। ३ पादनिचृज्जगती॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥
विषय
स मध्वः आयुवते
पदार्थ
[१] (सः) = वह (पूर्व्यः) = पालन व पूरण करनेवालों में उत्तम सोम (पवते) = प्राप्त होता है। (यम्) = जिस सोम को (दिवः) = [दीच्यति इति कः ] ज्ञान के प्रकाशवाला, (श्येनः) = शंसनीय गतिवाला, (इषितः) = प्रभु की प्रेरणा को प्राप्त व्यक्ति (परि मथायत्) = शरीर में ही मन्थन द्वारा उत्पन्न करता है । वस्तुतः भोजन का आंतों में मन्थन होकर ही रस आदि धातुओं की उत्पत्ति होती है । यह सोम (तिरः रजः) = इस अपने उत्पत्ति लोक में ही तिरोहित होकर रहता है। शरीर में उत्पन्न होता है और शरीर में ही स्थित होता है। [२] (सः) = वह सोम (मध्वः आयुवते) = माधुर्य का हमारे जीवन से मेल करता है। उस समय यह सोमरक्षक पुरुष ! (कृशानो:) = दुर्बलों को भी प्राणित करनेवाले [कृशं आनयति] (अस्तुः) = वासनाओं को परे फेंकनेवाले प्रभु से (बिभ्युषा) = भयभीत होनेवाले (मनसा) = मन से (अह) = ही (वेविजान:) = गति व आचरणवाला होता है। सोमरक्षक पुरुष प्रभु से ही डरता है, किसी अन्य से नहीं ।
भावार्थ
भावार्थ- सोम हमारे जीवन का पूरण करनेवाला है, यह उसमें माधुर्य का संचार करता है । सोमरक्षक पुरुष अभय होता हुआ केवल प्रभु से भयभीत होता है ।
इंग्लिश (1)
Meaning
That eternal joy, which the brilliant light of divinity moved in the heart core distils from heaven through the middle regions of human fluctuations of existence, vibrates omnipresent and purifies all who care. That same joy full of honey sweets, vibrating with power and bliss joins with the weaker humanity stricken with fear and anxiety and may, we pray, inspire the devotee with new strength and vigour.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वर प्रकृतीच्या रजोरूप इत्यादी परमाणूंचा संयोग करून या सृष्टीला उत्पन्न करतो. ॥२॥
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