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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 80 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 80/ मन्त्र 5
    ऋषिः - वसुर्भारद्वाजः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    तं त्वा॑ ह॒स्तिनो॒ मधु॑मन्त॒मद्रि॑भिर्दु॒हन्त्य॒प्सु वृ॑ष॒भं दश॒ क्षिप॑: । इन्द्रं॑ सोम मा॒दय॒न्दैव्यं॒ जनं॒ सिन्धो॑रिवो॒र्मिः पव॑मानो अर्षसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । त्वा॒ । ह॒स्तिनः॑ । मधु॑ऽमन्तम् । अद्रि॑ऽभिः । दु॒हन्ति॑ । अ॒प्ऽसु । वृ॒ष॒भम् । दश॑ । क्षिपः॑ । इन्द्र॑म् । सो॒म॒ । मा॒दय॑न् । दैव्य॑म् । जन॑म् । सिन्धोः॑ऽइव । ऊ॒र्मिः । पव॑मानः । अ॒र्ष॒सि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तं त्वा हस्तिनो मधुमन्तमद्रिभिर्दुहन्त्यप्सु वृषभं दश क्षिप: । इन्द्रं सोम मादयन्दैव्यं जनं सिन्धोरिवोर्मिः पवमानो अर्षसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम् । त्वा । हस्तिनः । मधुऽमन्तम् । अद्रिऽभिः । दुहन्ति । अप्ऽसु । वृषभम् । दश । क्षिपः । इन्द्रम् । सोम । मादयन् । दैव्यम् । जनम् । सिन्धोःऽइव । ऊर्मिः । पवमानः । अर्षसि ॥ ९.८०.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 80; मन्त्र » 5
    अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 5; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (तं त्वा) प्रागुक्तगुणसम्पन्नं त्वां (वृषभम्) कामनावर्षकं परमात्मानं (दश क्षिपः) दशसङ्ख्याकाः प्राणाः (अद्रिभिः) स्वशक्तिभिः (हस्तिनः) स्वच्छतापूर्वकं (अप्सु) कर्मविषये (दुहन्ति) दुहते। (सोम) हे परमात्मन् ! (इन्द्रं दैव्यं जनम्) दिव्यगुणसम्पन्नं कर्मयोगिनं (मादयन्) आनन्दयन् (सिन्धोरिव ऊर्मिः) समुद्रवीचिरिव (पवमानः) पवित्रयन् त्वं (अर्षसि) प्राप्तो भवसि ॥५॥ इत्यशीतितमं सूक्तं पञ्चमो वर्गश्च समाप्तः।

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (तं त्वा) पूर्वोक्त गुणसम्पन्न आपको जो (वृषभम्) जो सब कामनाओं की वृष्टि करता है (दश क्षिपः) दश प्राण (अद्रिभिः) अपनी शक्तियों से (हस्तिनः) स्वच्छतायुक्त (अप्सु) कर्म्मविषयक (दुहन्ति) दुहते हैं। (सोम) हे परमात्मन् ! (इन्द्रं दैव्यं जनम्) दिव्यगुणसम्पन्न कर्म्मयोगी को (मादयन्) आनन्द देते हुए (सिन्धोरिव ऊर्मिः) समुद्र की लहरों के समान (पवमानः) पवित्र करते हुए (अर्षसि) प्राप्त होते हैं ॥५॥

    भावार्थ

    जो पुरुष कर्म्मयोग वा ज्ञानयोग द्वारा अपने आपको परमात्मा की कृपा का पात्र बनाते हैं, परमात्मा उन्हें सिन्धु की लहरों के समान अपने आनन्दरूपी वारि से सिञ्चित करता है ॥५॥ यह अस्सीवाँ सूक्त और पाचवाँ वर्ग समाप्त हुआ।

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    विषय

    अभिषेक योग्य के तुल्य प्रभु का वर्णन।

    भावार्थ

    हे (सोम) हे ऐश्वर्यवन् ! (त्वा तम्) उस तुझ (वृषभम्) पूज्य को (हस्तिनः) नाना उपकरण वाले जन, (अद्रिभिः) मेघवत् जल वर्षी, कलशों द्वारा (दश क्षिपः) दशों दिशाओं की प्रजाएं और शत्रुओं को उखाड़ फेंकने वाली वीर सेनाएं (अप्सु) अभिषेच्य जलों के बीच वा आप्त प्रजाओं के बीच में (दुहन्ति) ऐश्वर्यों से पूर्ण करते हैं। इसी प्रकार (हस्तिनः) कुशल कर्मसाधक जन (मधुमन्तं त्वां तम् बृषभम्) आनन्द-सुख वाले तुझ बलवान् उस तुझ आनन्दवर्षी को (दश क्षिपः) दशों प्राण (अद्रिभिः) अपने भोग्य सामर्थ्यों से (अप्सु दुहन्ति) देहगत रसों में शक्ति से पूर्ण करते हैं। तू (दैव्यं जनम्) विद्वान जन, प्राणगण और (इन्द्रं) ऐश्वर्यवान् पुरुष और आत्मा को (मादयन्) प्रसन्न, तृप्त करता हुआ (सिन्धोः इव ऊर्मिः) समुद्र के तरंग के समान (पवमानः) व्यापता हुआ (अर्षसि) प्राप्त होता है। इति पञ्चमो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसुर्भारद्वाज ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ४ जगती। २, ५ विराड़ जगती। ३ निचृज्जगती॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    'मधुमान् वृषभ' सोम

    पदार्थ

    [१] हे सोम ! (तंत्वा) = उस तुझको (हस्तिनः) = उत्तम हाथोंवाले, (अद्रिभिः) = उपासनाओं के साथ प्राप्त कर्मों में प्रवृत्त होकर (दशक्षिपः) = दसों इन्द्रियों के विषयों को अपने से परे फेंकनेवाले लोग (दुहन्ति) = अपने में प्रपूरित करते हैं। भूमि में सुरक्षित हुआ हुआ तू (मधुमन्तम्) = अत्यन्त माधुर्यवाला है, (वृषभम्) = जीवन को शक्तिशाली बनानेवाला है। [२] हे सोम ! तू (इन्द्रम्) = जितेन्द्रिय पुरुष को तथा (दैव्यं जनम्) = प्रभु की ओर चलनेवाले दैव्यजन को (मादयन्) = आनन्दित करता हुआ, (सिन्धोः ऊर्मि इव) = समुद्र की लहर की तरह (पवमानः) = पवित्र करता हुआ (अर्षसि) = प्राप्त होता है। समुद्र की लहर आती है और समुद्रतट के सारे कूड़े-करकट को बहा ले जाती है। इसी प्रकार सोम सब मलिनताओं को दूर करनेवाला है।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रशस्त हाथोंवाले बनकर, प्रभु स्मरण पूर्वक कार्यों में लगे रहना ही सोमरक्षण का साधन है। यह जीवन को मधुर व शक्तिशाली बनाता है। जीव को पवित्र कर डालता है। अगला सूक्त भी 'वसु भारद्वाज' का ही है-

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Such as you are, Soma, sweetest presence of bliss, infinitely generous, men of mighty arm for action and ten senses of intense perception, will and imagination experience your presence and realise the message in their actions, manners and behaviour. O spirit of light and bliss, pure and purifying, like waves of the sea you roll on giving delight and beatitude to the ruling soul and general humanity blest with love of divinity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे पुरुष कर्मयोग किंवा ज्ञानयोगाद्वारे स्वत:ला कृपेचे पात्र बनवितात. परमात्मा त्यांना सिंधुलहरीप्रमाणे आपल्या आनंदरूपी वृष्टीने सिंचित करतो. ॥५॥

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