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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 87 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 87/ मन्त्र 7
    ऋषिः - उशनाः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ए॒ष सु॑वा॒नः परि॒ सोम॑: प॒वित्रे॒ सर्गो॒ न सृ॒ष्टो अ॑दधाव॒दर्वा॑ । ति॒ग्मे शिशा॑नो महि॒षो न शृङ्गे॒ गा ग॒व्यन्न॒भि शूरो॒ न सत्वा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒षः । सि॒वा॒नः । परि॑ । सोमः॑ । प॒वित्रे॑ । सर्गः॑ । न । सृ॒ष्टः । अ॒द॒धा॒व॒त् । अर्वा॑ । ति॒ग्मे । शिशा॑नः । म॒हि॒षः । न । शृङ्गे॑ । गाः । ग॒व्यन् । अ॒भि । शूरः॑ । न । सत्वा॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एष सुवानः परि सोम: पवित्रे सर्गो न सृष्टो अदधावदर्वा । तिग्मे शिशानो महिषो न शृङ्गे गा गव्यन्नभि शूरो न सत्वा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एषः । सिवानः । परि । सोमः । पवित्रे । सर्गः । न । सृष्टः । अदधावत् । अर्वा । तिग्मे । शिशानः । महिषः । न । शृङ्गे । गाः । गव्यन् । अभि । शूरः । न । सत्वा ॥ ९.८७.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 87; मन्त्र » 7
    अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 23; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (एषः) उक्तपरमात्मा (सुवानः) सर्वत्राविर्भूतः (सोमः) यः सौम्यस्वभावयुक्तः सः (पवित्रे) पवित्रान्तःकरणे (सृष्टः) विरचितानां (सर्गः) सृष्टीनां (न) तुल्यः (अर्वा) गतिशीलो यः परमात्मा सः (परि, अदधावत्) उपासकानामभिमुखं निजज्ञानदृष्ट्या समागच्छति। अपि च (न) यथा (तिग्मे) तीक्ष्णे (शृङ्गे) अज्ञानविदारणे (शिशानः) निमग्नः (महिषः) महापुरुषो भवति। अथवा (शूरः) वीरः (न) यथा (सत्वा) स्थितिमान् भूत्वा (गव्यन्, गाः) महदैश्वर्य्यमिच्छन् स्वलक्ष्याभिमुखं गच्छति, तथैव परमात्मा उपासकान् ज्ञानदृष्ट्या लक्ष्यं निर्माति ॥७॥

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    पदार्थः

    (एषः) उक्तपरमात्मा (सुवानः) सर्वत्राविर्भूतः (सोमः) यः सौम्यस्वभावयुक्तः सः (पवित्रे) पवित्रान्तःकरणे (सृष्टः) विरचितानां (सर्गः) सृष्टीनां (न) तुल्यः (अर्वा) गतिशीलो यः परमात्मा सः (परि, अदधावत्) उपासकानामभिमुखं निजज्ञानदृष्ट्या समागच्छति। अपि च (न) यथा (तिग्मे) तीक्ष्णे (शृङ्गे) अज्ञानविदारणे (शिशानः) निमग्नः (महिषः) महापुरुषो भवति। अथवा (शूरः) वीरः (न) यथा (सत्वा) स्थितिमान् भूत्वा (गव्यन्, गाः) महदैश्वर्य्यमिच्छन् स्वलक्ष्याभिमुखं (अभि)  गच्छति, तथैव परमात्मा उपासकान् ज्ञानदृष्ट्या लक्ष्यं निर्माति ॥७॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (एषः) उक्त परमात्मा (सुवानः) सर्वत्र आविर्भूत (सोमः) जो सौम्यस्वभावयुक्त है, वह (पवित्रे) पवित्र अन्तःकरण में (सृष्टः) रचे हुए (सर्गः) सृष्टियों के (न) समान (अर्वा) गतिशील जो परमात्मा है, वह (पर्यदधावत्) उपासकों की ओर अपनी ज्ञानदृष्टि से आता है। (न) जिस प्रकार (तिग्मे) तीक्ष्ण (शृङ्गे) अज्ञान के विदारण में (शिशानः) मग्न हुआ (महिषः) महापुरुष होता है अथवा (शूरः) शूरवीर (न) जैसे (सत्वा) स्थितिवाला होकर (गव्यन् गाः) बड़े ऐश्वर्य्य की इच्छा करता हुआ अपने लक्ष्य की ओर (अभि) जाता है, इसी प्रकार परमात्मा उपासकों को ज्ञानदृष्टि से लक्ष्य बनाता है ॥७॥

    भावार्थ

    जो लोग श्रवण-मननादि साधनों के द्वारा अपने अन्तःकरण को ज्ञान का पात्र बनाते हैं, परमात्मा उनके अन्तःकरण को अवश्यमेव ज्ञान से भरपूर करता है ॥७॥

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    विषय

    अभिषेचित को उपदेश वीर के समान विद्यानिष्णात के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (एषः) यह उत्तम (सोमः) शासक वा शिष्य, दीक्षित, (पवित्रे सुवानः) पवित्र कार्य वा पद के निमित्त अभिषिक्त होकर (सृष्टः सर्गः न) छूटे जल-प्रवाह के समान, वा (सृष्टः अर्वा न) छूटे हुए अश्व के समान (अदधावत्) निरन्तर आगे, बड़े वेग से बढ़े। (तिग्मे शृंगे शिशानः महिषः नः) तीखे सीगों को तीक्ष्ण करते हुए बड़े पशु के समान स्वयं भी (महिषः) भूमि का भोक्ता, महान् सामर्थ्य का धारक होकर (तिग्मे) तीखी, (शृङ्गे) शत्रु को नाश करने वाली अगल बगल की सेनाओं को (शिशानः) तीक्ष्ण, उत्तेजित करता हुआ सेनापति के तुल्य अज्ञान नाशक तीखे मन और बुद्धि दोनों को तीक्ष्ण करता हुआ (शूरः सत्वा न) शूरवीर, बलवान् पुरुष के समान स्वयं भी (सत्वा) स्थिर होकर (गाः गव्यम्) भूमियोंवत् वाणियों को प्राप्त करना चाहता हुआ (अभि) आगे बढ़े।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    उशना ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्दः- १, २ निचृत्त्रिष्टुप्। ३ पादनिचृत्त्रिष्टुप्। ४,८ विराट् त्रिष्टुप्। ५–७,९ त्रिष्टुप्। नवर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    सृष्टः सर्गः न, महषिः न

    पदार्थ

    (एषः) = यह (सुवानः) = उत्पन्न किया जाता हुआ (सोमः) = सोम (सृष्टः सर्गः न) = बन्धनमुक्त घोड़े की तरह (अर्वा) = शत्रु संहार को करनेवाला (पवित्रे) = पवित्र हृदयवाले पुरुष (परि अदधावत्) = चारों ओर गतिवाला होता है। शरीर में व्याप्त होता हुआ यह शरीरस्थ रोगकृमिरूप शत्रुओं का विनाश करता है, अपने (तिग्मे) = तीक्ष्ण शृंगे सींगों को (शिशानः) = तीव्र करते हुए (महिषोः नः) = महिष के समान आरण्य भैंसे के समान (शूरः न) = शूरवीर के समान (सत्वा) = [शत्रूणां सादयिता] शत्रुओं का काम-क्रोध आदि का सादन [विनाश] करनेवाला (गव्यन्) = ज्ञान की वाणियों की कामनावाला होता हुआ (गाः अभि) = इन ज्ञानवाणियों की ओर गतिवाला होता है । सोमरक्षण से ही बुद्धि की तीव्रता होकर हमारी ज्ञान की रुचि बढ़ती है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोम रोगकृमि व काम-क्रोध आदि शत्रुओं का विनाश करता है और हमें ज्ञान की रुचिवाला बनाता है।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    This Soma, pure and purifying creative energy of divinity, vibrates in immaculate nature and flows in the devotee’s pure heart like the mighty force of nature itself, sharpening its rays of light for dispelling darkness and negation. It goes on like a poised hero keen on his determination for victory in the battle.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे लोक श्रवण, मनन इत्यादी साधनांद्वारे आपल्या अंत:करणाला ज्ञानाचे पात्र बनवितात परमात्मा त्यांच्या अंत:करणांना ज्ञानाने अवश्य परिपूर्ण करतो. ॥७॥

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