ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 89/ मन्त्र 4
मधु॑पृष्ठं घो॒रम॒यास॒मश्वं॒ रथे॑ युञ्जन्त्युरुच॒क्र ऋ॒ष्वम् । स्वसा॑र ईं जा॒मयो॑ मर्जयन्ति॒ सना॑भयो वा॒जिन॑मूर्जयन्ति ॥
स्वर सहित पद पाठमधु॑ऽपृष्ठम् । घो॒रम् । अ॒यास॑म् । अश्व॑म् । रथे॑ । यु॒ञ्ज॒न्ति॒ । उ॒रु॒ऽच॒क्रे । ऋ॒ष्वम् । स्वसा॑रः । ई॒म् । जा॒मयः॑ । म॒र्ज॒य॒न्ति॒ । सऽना॑भयः । वा॒जिन॑म् । ऊ॒र्ज॒य॒न्ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
मधुपृष्ठं घोरमयासमश्वं रथे युञ्जन्त्युरुचक्र ऋष्वम् । स्वसार ईं जामयो मर्जयन्ति सनाभयो वाजिनमूर्जयन्ति ॥
स्वर रहित पद पाठमधुऽपृष्ठम् । घोरम् । अयासम् । अश्वम् । रथे । युञ्जन्ति । उरुऽचक्रे । ऋष्वम् । स्वसारः । ईम् । जामयः । मर्जयन्ति । सऽनाभयः । वाजिनम् । ऊर्जयन्ति ॥ ९.८९.४
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 89; मन्त्र » 4
अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 25; मन्त्र » 4
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अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 25; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(मधुपृष्ठं) यः सैन्धवघनवत् सर्वत आनन्दमयः (घोरं, अयासं) यस्य प्रयत्नः घोरः अर्थाद्भयानकः (अश्वं) यो गतिस्वरूपश्चास्ति। (उरुचक्रे, रथे) यो द्रुतगतौ (युञ्जन्ति) विनियुङ्क्ते। (स्वसारः) स्वयं सरन्तीति स्वसारः इन्द्रियवृत्तयः (जामयः) या मनस उत्पन्नत्वात् परस्परं बन्धुतायाः सम्बन्धं विदधति। (सनाभयः) चित्तादुत्पन्नत्वात् सनाभिसम्बन्धवत्यः। चित्तवृत्तयः (मर्जयन्ति) उक्तपरमात्मानं विषयीकुर्वन्ति। अपि च (वाजिनं) तं बलस्वरूपं विषयीकृत्योपासकस्यात्या-ध्यात्मिकबलं प्रददति ॥४॥
पदार्थः
(मधुपृष्ठं) यः सैन्धवघनवत् सर्वत आनन्दमयः (घोरं, अयासं) यस्य प्रयत्नः घोरः अर्थाद्भयानकः (अश्वं) यो गतिस्वरूपश्चास्ति। (उरुचक्रे, रथे) यो द्रुतगतौ (युञ्जन्ति) विनियुङ्क्ते। (स्वसारः) स्वयं सरन्तीति स्वसारः इन्द्रियवृत्तयः (जामयः) या मनस उत्पन्नत्वात् परस्परं बन्धुतायाः सम्बन्धं विदधति। (सनाभयः) चित्तादुत्पन्नत्वात् सनाभिसम्बन्धवत्यः। चित्तवृत्तयः (मर्जयन्ति) उक्तपरमात्मानं विषयीकुर्वन्ति। अपि च (वाजिनं) तं बलस्वरूपं (ऊर्जयन्ति) विषयीकृत्योपासकस्यात्या-ध्यात्मिकबलं प्रददति ॥४॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(मधुपृष्ठं) जो सैन्धवघनवत् सर्व ओर से आनन्दमय है, (घोरमयासं) जिसका प्रयत्न घोर है अर्थात् भयानक है और (अश्वं) जो गतिरूप है, (ऊरुचक्रे रथे) अत्यन्त वेगवाली द्रुतगति में (युञ्जन्ति) जिसने नियुक्त किया है, (स्वसारः) “स्वयं सरन्तीति स्वसारः इन्द्रियवृत्तयः” स्वाभाविकगतिशील इन्द्रियों की वृत्तियें (जामयः) जो मन से उत्पन्न होने के कारण परस्पर बन्धुपन का सम्बन्ध रखनेवाली चित्तवृत्तियें (सनाभयः) चित्त से उत्पन्न होने के कारण सनाभि सम्बन्ध रखनेवाली चित्तवृत्तियें (मर्जयन्ति) उक्त परमात्मा को विषय करती हैं और (वाजिनं) उस बलस्वरूप को (ऊर्जयन्ति) विषय करके उपासक को अत्यन्त आध्यात्मिक बल प्रदान करती हैं ॥४॥
भावार्थ
इस मन्त्र में “जामि” नाम चित्तवृत्ति का है, क्योंकि वृत्ति मन से उत्पन्न होने के कारण अन्य वृत्तियें भी उसके साथ सम्बन्ध रखने के कारण जामि कहलाती हैं ॥ उक्त वृत्तियें जब परमात्मा का साक्षात्कार करती हैं, तो उपासक में आत्मिकबल उत्पन्न होता है अर्थात् शारीरिक, आत्मिक, सामाजिक तीनों प्रकार के बल की उत्पत्ति का कारण एकमात्र परमात्मा है, कोई अन्य नहीं ॥४॥
विषय
सिंहवत् उद्योग, अश्ववत् बलवान् की, नायक पद पर नियुक्ति और उसका अभिषेक।
भावार्थ
(मधु-पृष्ठम्) शत्रुओं को पीड़ित करने वाले बल को अपने ऊपर धारने वाले, (घोरम्) शत्रुओं के लिये भयकारी, (अयासम्) न थकने वाले, श्रमशील (ऋष्वं) महान् पुरुष को (उरु चक्रे रथे अश्वं) बड़े चक्र वाले रथ में अश्व के तुल्य उस व्यापक प्रभु को नायकवत् ही इस संवत्सर-चक्र-युक्त विश्व में, (युञ्जन्ति) जोड़ते हैं, योग द्वारा उसका साक्षात् करते हैं। (स्वसारः, सु-असारः) भगिनियों के समान स्वतः प्राप्त वा उत्तम वेग से गति करने वाली सेनाओं के तुल्य शक्तियां (ईम् मर्जयन्ति) उसका अभिषेक करतीं, और (स-नाभयः) समस्त बन्धुजन उस (वाजिनम्) बल विद्या वाले को (ऊर्जयन्ति) अधिक बलवान् करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
उशना ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १ पादानिचृत्त्रिष्टुप्। २, ५, ६ त्रष्टुप्। ३, ७ विराट् त्रिष्टुप्। निचृत्त्रिष्टुप्। सप्तर्चं सूक्तम्।
विषय
स्वसार:- जामयः - सनाभयः
पदार्थ
(स्वसारः) [स्व+सृ] = आत्मतत्त्व की ओर चलनेवाले व्यक्ति (उरुचक्रे) = विशाल चक्रवाले (रथे) = इस शरीररथ में, अर्थात् खूब क्रियाशील इस शरीररथ में, इस सोम को (युञ्जन्ति) = युक्त करते हैं, सोम को शरीर में ही सुरक्षित करते हैं । उस सोम को, जो (मधुपृष्ठम्) = माधुर्य का आधार है, (घोरम्) = शत्रुओं के लिये, रोगों व वासनाओं के लिये भयंकर है, (अयासम्) = हमें निरन्तर क्रियाओं में प्रेरित करनेवाला है, अश्वं कार्यमार्गों को शीघ्रता से व्यापनेवाला है और (ऋष्वं) = महान् व दर्शनीय है। इस सोम को (ईम्) = निश्चय से (जामयः) = अपने में सद्गुणों का विकास करनेवाले व्यक्ति (मर्जयन्ति) = शुद्ध करते हैं। (सनाभयः) = [सह, नह बन्धने] अपने को प्रभु के साथ जोड़नेवाले व 'अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः ' यज्ञशील व्यक्ति (वाजिनम्) = इस शक्तिशाली सोम को (ऊर्जयन्ति) = अपने में बल व प्राणशक्ति का संचार करनेवाला करते हैं। सोमरक्षण से अपने जीवन को बलवान् बनाते
भावार्थ
भावार्थ-आत्मतत्त्व की ओर चलना सद्गुणों को अपने में उत्पन्न करना व यज्ञशील बनना ही सोमरक्षण का साधन है, सुरक्षित सोम हमें सबल बनाता है।
इंग्लिश (1)
Meaning
The leader, pioneer and ruler, loving burden bearer, awful for the awful, instant in action, indefatigable in endeavour and sublime in achievement of the goal, such as he is, all enlightened powers of the world enjoin him to the highest and foremost position in the vast and mighty moving chariot order of the world. All dynamic, self-controlled autonomous forces and sub-systems anoint and cosecrate the high soma power, and all people joined to the centre of the order support, strengthen and energise the dynamic, blazing, onrushing leader, controller and ruler of the order.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात चित्तवृत्तीचे वर्णन आहे. कारण वृत्ती मनापासून उत्पन्न होते व मनाने उत्पन्न झाल्यामुळे अन्यवृत्तीही तिच्याबरोबर राहण्याने जामी म्हणविल्या जातात.
टिप्पणी
त्या वृत्ती जेव्हा परमेश्वराचा साक्षात्कार करतात तेव्हा उपासकांमध्ये आत्मिक बल उत्पन्न होते. अर्थात शारीरिक, आत्मिक, सामाजिक तिन्ही प्रकारच्या बलाच्या उत्पत्तीचे कारण एकमेव परमेश्वर आहे, अन्य कोणी नाही. ॥४॥
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