ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 91/ मन्त्र 5
स प्र॑त्न॒वन्नव्य॑से विश्ववार सू॒क्ताय॑ प॒थः कृ॑णुहि॒ प्राच॑: । ये दु॒:षहा॑सो व॒नुषा॑ बृ॒हन्त॒स्ताँस्ते॑ अश्याम पुरुकृत्पुरुक्षो ॥
स्वर सहित पद पाठसः । प्र॒त्न॒ऽवत् । नव्य॑से । वि॒श्व॒ऽवा॒र॒ । सु॒ऽउ॒क्ताय॑ । प॒थः । कृ॒णु॒हि॒ । प्राचः॑ । ये । दुः॒ऽसहा॑सः । व॒नुषा॑ । बृ॒हन्तः॑ । तान् । ते॒ । अ॒श्य्चाम॒ । पु॒रु॒ऽकृ॒त् । पु॒रु॒क्षो॒ इति॑ पुरुऽक्षो ॥
स्वर रहित मन्त्र
स प्रत्नवन्नव्यसे विश्ववार सूक्ताय पथः कृणुहि प्राच: । ये दु:षहासो वनुषा बृहन्तस्ताँस्ते अश्याम पुरुकृत्पुरुक्षो ॥
स्वर रहित पद पाठसः । प्रत्नऽवत् । नव्यसे । विश्वऽवार । सुऽउक्ताय । पथः । कृणुहि । प्राचः । ये । दुःऽसहासः । वनुषा । बृहन्तः । तान् । ते । अश्य्चाम । पुरुऽकृत् । पुरुक्षो इति पुरुऽक्षो ॥ ९.९१.५
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 91; मन्त्र » 5
अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
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अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(विश्ववार) हे विश्ववरणीय परमात्मन् ! (सः, प्रत्नवत्) पुरातनस्त्वं (नव्यसे) अस्मन्नवीनजन्मने (प्राचः, पथः) प्राचीनान्मार्गान् (सूक्ताय, कृणुहि) सरलान्विधेहि, किञ्च (पुरुकृत्) हे बहुकर्मकारिन् ! (पुरुक्षाः) हे शब्दब्रह्मजनकपरमात्मन् ! ये तव स्वभावाः (ये, दुःसहासः) राक्षसैरसोढव्याः पुनश्च (वनुषा) हिंसास्वरूपाः पुनः कीदृशाः ! (बृहन्तः) महान्तः तान् (ते) पूर्वोक्तास्ते स्वभावान् वयं (अश्याम) प्राप्नुयाम ॥५॥
पदार्थः
(विश्ववार) हे विश्ववरणीय परमात्मन् ! (सः, प्रत्नवत्) पुरातनस्त्वं (नव्यसे) अस्मन्नवीनजन्मने (प्राचः, पथः) प्राचीनान्मार्गान् (सूक्ताय, कृणुहि) सरलान्विधेहि, किञ्च (पुरुकृत्) हे बहुकर्मकारिन् ! (पुरुक्षः) हे शब्दब्रह्मजनकपरमात्मन् ! ये तव स्वभावाः (ये, दुःसहासः) राक्षसैरसोढव्याः पुनश्च (वनुषा) हिंसास्वरूपाः पुनः कीदृशाः ! (बृहन्तः) महान्तः तान् (ते) पूर्वोक्तास्ते स्वभावान् वयं (अश्याम) प्राप्नुयाम ॥५॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(विश्ववार) हे विश्ववरणीय परमात्मन् ! (सः प्रत्नवत्) आप प्राचीन हैं। (नव्यसे) हमको नूतन जन्म देने के लिये हमारे लिये (प्राचः, पथः) प्राचीन रास्तों को (सूक्ताय कृणुहि) सरल कीजिये। (पुरुकृत्) हे बहुत कर्म्म करनेवाले ! (पुरुक्षाः) हे शब्दब्रह्म के उत्पादक परमात्मन् ! (ये दुःसहासः) जो राक्षसों के सहने योग्य नहीं (वनुषा) और जो हिंसारूप हैं (बृहन्तः) बड़े हैं, (तान्) उन (ते) तुम्हारे स्वभावों को यज्ञ में (अश्याम) हम प्राप्त हों ॥५॥
भावार्थ
परमात्मा के स्वभाव अर्थात् परमात्मा के सत्यादि धर्मों को राक्षस लोग धारण नहीं कर सकते। उनको केवल दैवी सम्पत्तिवाले ही धारण कर सकते हैं, अन्य नहीं। इस मन्त्र में देवभाव के दिव्यगुणों का और राक्षसों के दुर्गुणों का वर्णन है ॥५॥
विषय
प्रभु से सन्मार्ग की याचना।
भावार्थ
हे (विश्व-वार) सब से वरण करने योग्य ! सब कष्टों को दूर करने हारे स्वामिन् ! (पुरु-क्षो) पूज्य बहुत सी वाणी एवं स्तुतियों के पात्र ! (सः) वह तू (नव्यसे सूक्ताय) अति नवीन, उत्तम स्तुति करने वाले के हितार्थ (प्रत्नवत्) पुराने, अनादि, सनातन गुरु के समान ही (प्राचः पथः कृणुहि) आगे बढ़ने वाले पूर्व के प्राचीन मार्गों का उपदेश कर। हे (पुरु-कृत्) बहुत से महान् कार्य करने हारे ! प्रभो ! (ते) तेरे (ये) जो (दुः-सहासः) शत्रुओं द्वारा दुःख से पराजित होने वाले, तीक्ष्ण, (वनुषा बृहन्तः) शत्रुनाशक सामर्थ्य के कारण बड़े हैं (तान् अश्याम) हम उनको प्राप्त करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कश्यप ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः- १, २, ६ पादनिचृत्त्रिष्टुप्। ३ त्रिष्टुप्। ४, ५ निचृत्त्रिष्टुप्॥ षडृचं सूक्तम्॥
विषय
पुरुकृत् पुरुक्षो!
पदार्थ
हे (विश्ववारः) = सब वरणीय वस्तुओं को प्राप्त करानेवाले सोम ! (सः) = वह तू (प्रत्नवत्) = सदा की तरह, पहले की तरह (नव्यसे) = [नु स्तुतौ] उत्तम स्तुति करनेवाले (सूक्ताय) = मधुर शब्दों को बोलनेवाले मेरे लिये (पथः) = मार्गों को (प्राचः कृणुहि) = अग्रगतिवाला कर। मैं तेरे रक्षण से सदा उन्नति के मार्गों पर आगे बढ़नेवाला बनूँ । हे (पुरुकृत्) = पालक व पूरक कर्मों को करनेवाले, (पुरुक्षो) = पालक व पूरक शब्दों [ज्ञानों] वाले सोम ! (ये) = जो (ते) = तेरे (दुःषहासः) - शत्रुओं से न सहने योग्य (वनुषा) = शत्रु संहार द्वारा (बृहन्तः) = वृद्धि के कारणभूत अंश है (तान्) = उनको हम (अश्याम) = प्राप्त हों । सोम के अंश व कण हमारे शरीर में सर्वत्र व्याप्त हों, इनके द्वारा हम शत्रुओं का संहार करके मार्ग पर आगे बढ़ें ।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण से हम उन्नतिपथ पर आगे बढ़ेंगे। इससे शत्रुओं को विनष्ट करके उत्तम कर्मों को करेंगे तथा उत्तम ज्ञान को प्राप्त करेंगे। यह सोम 'पुरुकृत् व पुरुक्षु' तो है ही ।
इंग्लिश (1)
Meaning
O lord of universal acceptance and adoration, open the paths of advancement for the modern celebrant as ever before and let the paths be constant as the ancient ones. O lord of infinite action and munificent giver, let us have those means, methods and weapons which are of high uncounterable calibre over a vast effective area of operation.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराचा स्वभाव अर्थात् त्याच्या सत्य इत्यादी धर्मांना राक्षसलोक धारण करू शकत नाहीत. त्यांना केवळ दैव संपत्तीवानच धारण करू शकतात. इतर नाही. या मंत्रात देवभावाच्या दिव्य गुणांचा व राक्षसांच्या दुर्गुणांचे वर्णन आहे. ॥५॥
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