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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 97 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 97/ मन्त्र 34
    ऋषिः - पराशरः शाक्त्त्यः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ति॒स्रो वाच॑ ईरयति॒ प्र वह्नि॑ॠ॒तस्य॑ धी॒तिं ब्रह्म॑णो मनी॒षाम् । गावो॑ यन्ति॒ गोप॑तिं पृ॒च्छमा॑ना॒: सोमं॑ यन्ति म॒तयो॑ वावशा॒नाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ति॒स्रः । वाचः॑ । ई॒र॒य॒ति॒ । प्र । वह्निः॑ । ऋ॒तस्य॑ । धी॒तिम् । ब्रह्म॑णः । म॒नी॒षाम् । गावः॑ । य॒न्ति॒ । गोऽप॑तिम् । पृ॒च्छमा॑नाः । सोम॑म् । य॒न्ति॒ । म॒तयः॑ । वा॒व॒शा॒नाः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तिस्रो वाच ईरयति प्र वह्निॠतस्य धीतिं ब्रह्मणो मनीषाम् । गावो यन्ति गोपतिं पृच्छमाना: सोमं यन्ति मतयो वावशानाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तिस्रः । वाचः । ईरयति । प्र । वह्निः । ऋतस्य । धीतिम् । ब्रह्मणः । मनीषाम् । गावः । यन्ति । गोऽपतिम् । पृच्छमानाः । सोमम् । यन्ति । मतयः । वावशानाः ॥ ९.९७.३४

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 97; मन्त्र » 34
    अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 17; मन्त्र » 4
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (वह्निः) सर्वप्रेरकः परमात्मा (तिस्रः, वाचः) त्रिप्रकारा वाणीः (प्रेरयति) प्रेरिताः करोति सा च वाणी (ऋतस्य, धीतिं) सत्यताया धारिका (ब्रह्मणः) शब्दब्रह्मरूपवेदानां (मनीषां) मनोरूपा एवम्भूतां वाचं प्रेरयति (गोपतिं) यथा तेजोधिपं सूर्यं (गावः, यन्ति) किरणाः प्राप्नुवन्ति इत्थं हि (वावशानाः) कामयमानाः (पृच्छमानाः) जिज्ञासवः (मतयः) मेधाविनः (सोमं, यान्ति) परमात्मानं प्राप्नुवन्ति ॥३४॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (वह्निः) “वहतीति वह्निः” सर्वप्रेरक परमात्मा (तिस्रो वाचः) तीन प्रकार की वाणियों की (प्रेरयति) प्रेरणा करता है। उक्त वाणी (ऋतस्य, धीतिम्) सच्चाई का धारण करनेवाली है, (ब्रह्मणः) शब्दब्रह्मरूप वेद का (मनीषाम्) मनरूप है, ऐसी वाणी की उक्त परमात्मा प्रेरणा करता है, (गोपतिम्) जिस तरह प्रकाशों के पति सूर्य्य को (गावः) किरणें (यन्ति) प्राप्त होती हैं, इसी प्रकार (वावशानाः) कामनावाले जिज्ञासु (पृच्छमानाः) जिनको ज्ञान की जिज्ञासा है, वैसे (मतयः) मेधावी लोग (सोमम्) परमात्मा को (यन्ति) प्राप्त होते हैं ॥३४॥

    भावार्थ

    जो लोग अपने शील को बनाते हैं अर्थात् सदाचारी बनकर परमात्मपरायण होते हैं, परमात्मा उन्हें अवश्यमेव अपने ज्ञान से प्रदीप्त करता है ॥३४॥

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    विषय

    अग्रणी विद्वान् के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (ऋतस्य धीतिम्) सत्य ज्ञान को धारण करने वाली और (ब्रह्मणः मनीषाम्) ब्रह्म, परमेश्वर की ज्ञानमयी बुद्धि को (वह्निः) धारण करने वाला विद्वान् पुरुष (तिस्रः वाचः) साम, ऋचा, यजुः अर्थात् गान, ऋग् और कर्म, इनसे युक्त तीनों प्रकार की वाणियों को (ईरयति) उपदेश करता है। और (गावः) वे वाणियां (पृच्छमानाः) प्रश्न करती हुईं (गोपतिं यन्ति) वाणियों के पालक को अनायास प्राप्त होती हैं। और (मतयः) ज्ञान, बुद्धियां और स्तुतियां (वावशानाः) चाहती हुई मानो (सोमं यन्ति) उत्तम उपदेष्टा को स्वतः प्राप्त होजाती हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः-१—३ वसिष्ठः। ४-६ इन्द्रप्रमतिर्वासिष्ठः। ७–९ वृषगणो वासिष्ठः। १०–१२ मन्युर्वासिष्ठः। १३-१५ उपमन्युर्वासिष्ठः। १६-१८ व्याघ्रपाद्वासिष्ठः। १९-२१ शक्तिर्वासिष्ठः। २२–२४ कर्णश्रुद्वासिष्ठः। २५—२७ मृळीको वासिष्ठः। २८–३० वसुक्रो वासिष्ठः। ३१–४४ पराशरः। ४५–५८ कुत्सः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, १०, १२, १४, १५, १९, २१, २५, २६, ३२, ३६, ३८, ३९, ४१, ४६, ५२, ५४, ५६ निचृत् त्रिष्टुप्। २-४, ७, ८, ११, १६, १७, २०, २३, २४, ३३, ४८, ५३ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९, १३, २२, २७–३०, ३४, ३५, ३७, ४२–४४, ४७, ५७, ५८ त्रिष्टुप्। १८, ४१, ५०, ५१, ५५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ३१, ४९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४० भुरिक् त्रिष्टुप्। अष्टापञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    तिस्रः वाचः

    पदार्थ

    (प्र वह्निः) = प्रकर्षेण हमारा वहन करनेवाले, सब का धारण करनेवाले वे प्रभु हृदयस्थ रूपेण (तिस्रः वाचः) = 'ऋग्, यजु, साम' रूप तीन वाणियों को, विज्ञान कर्म व उपासना के उपदेश को (ईरयति) = हमारे में प्रेरित करते हैं। इस वाणी के (ऋतस्य धीतिम्) = यज्ञों के धारण को तथा (ब्रह्मणः मनीषाम्) = ज्ञानदायिनी बुद्धि को प्रेरित करते हैं। इस ज्ञान की वाणी को सुनने पर (गावः) = सब इन्द्रियाँ (गोपतिं) = इन्द्रियों के स्वामी इन्द्र को (पृच्छमानाः) = जानने की इच्छा करती हुई (यन्ति) = अन्तर्मुखी गति वाली होती हैं। भटकने को छोड़कर आत्मतत्त्व की जिज्ञासा वाली बनती हैं। उस समय (वावशाना:) = प्रभु प्राप्ति की प्रबल कामना वाले (मतयः) = मननपूर्वक स्तुति करनेवाले लोग (सोमं यन्ति) = सोम की ओर जाते हैं, सोमरक्षण द्वारा ही तो वे उस 'सोम' शान्त प्रभु को प्राप्त करेंगे।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु वेदवाणी द्वारा हम यज्ञों व ज्ञान व उपासना में प्रेरित करते हैं। इससे हमारी इन्द्रियाँ विषयों में न भटक कर आत्मतत्त्व की ओर चलती हैं और हमारी बुद्धियाँ उस सोम 'शान्त प्रभु' को पाने के लिये यत्नशील होती हैं ।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Soma inspires three orders of speech: practical speech that carries on the daily business of life, the thought that conceives of the vibrant immanent divine presence, and the deeper language of silence which is the mode of transcendent reality. The language operations of daily business move in search of the master source of world mystery as in science and philosophy, and the speech of thought and imagination and of love and worship moves to the presence of peace and bliss, Soma. (The three speeches in Vedic language are Ida, Sarasvati, and Mahi or Bharati as described in Rgveda 1, 13, 9 and Yajurveda 21, 19. Explained another way these are the language of the Rks or knowledge, Yajus or karma, and Samans or worship.)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे लोक आपले शील बनवितात अर्थात्, सदाचारी राहून परमात्मपरायण असतात, परमात्मा त्यांना अवश्य आपल्या ज्ञानाने प्रदीप्त करतो. ॥३४॥

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