ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 97/ मन्त्र 36
ऋषिः - पराशरः शाक्त्त्यः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ए॒वा न॑: सोम परिषि॒च्यमा॑न॒ आ प॑वस्व पू॒यमा॑नः स्व॒स्ति । इन्द्र॒मा वि॑श बृह॒ता रवे॑ण व॒र्धया॒ वाचं॑ ज॒नया॒ पुरं॑धिम् ॥
स्वर सहित पद पाठए॒व । नः॒ । सो॒म॒ । प॒रि॒ऽसि॒च्यमा॑नः । आ । प॒व॒स्व॒ । पू॒यमा॑नः । स्व॒स्ति । इन्द्र॑म् । आ । वि॒श॒ । बृ॒ह॒ता । रवे॑ण । व॒र्धय॑ । वाच॑म् । ज॒नय॑ । पुर॑म्ऽधिम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
एवा न: सोम परिषिच्यमान आ पवस्व पूयमानः स्वस्ति । इन्द्रमा विश बृहता रवेण वर्धया वाचं जनया पुरंधिम् ॥
स्वर रहित पद पाठएव । नः । सोम । परिऽसिच्यमानः । आ । पवस्व । पूयमानः । स्वस्ति । इन्द्रम् । आ । विश । बृहता । रवेण । वर्धय । वाचम् । जनय । पुरम्ऽधिम् ॥ ९.९७.३६
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 97; मन्त्र » 36
अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
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अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सोम) हे परमात्मन् ! (परिषिच्यमानः) उपास्यमानो भवान् (नः) अस्मान् (आ, पवस्व) पवित्रयतु (पूयमानः) शुद्धस्वरूपो भवान् (स्वस्ति) मङ्गलवाचा कल्याणं करोतु (इन्द्रं) कर्मयोगिनं (आविश) आगत्य प्रविशतु (बृहता, रवेण) महदुपदेशेन (वर्धय) तं समुन्नयतु (पुरन्धिं) ज्ञानप्रदां (वाचं) वाणीं (जनय) तस्मिन्नुत्पादयतु ॥३६॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सोम) हे परमात्मन् ! (परिषिच्यमानः) उपासना किये हुए आप (नः) हमको (आपवस्व) पवित्र करें और (पूयमानः) शुद्धस्वरूप आप (स्वस्ति) मङ्गलवाणी से हमारा कल्याण करें और (इन्द्रम्) कर्मयोगी को (आविश) आकर प्रवेश करें तथा (बृहता रवेण) बड़े उपदेश से उसको (वर्धय) बढ़ाएँ और (पुरन्धिम्) ज्ञान के देनेवाली (वाचम्) वाणी को (जनय) उसमें उत्पन्न करें ॥३६॥
भावार्थ
जो लोग उपासना द्वारा परमात्मा के स्वरूप का साक्षात्कार करते हैं, परमात्मा उन्हें अवश्यमेव शुद्ध करता है ॥३६॥
विषय
ऐश्वर्य पदाधिकारी के कर्त्तव्य।
भावार्थ
(एव) इस प्रकार हे (सोम) उत्तम शासक ! विद्वन् ! तू (परि-सिच्यमानः) सब प्रकार से स्नात होकर (पूयमानः) पवित्र होता हुआ (नः स्वस्ति आपवस्व) हमें कल्याण, सुख प्राप्त करा। (बृहता रवेण) बड़े भारी गर्जन सहित (इन्द्रम् आविश) ऐश्वर्ययुक्त पद को प्राप्त कर। (वाचं वर्धय) अपनी वाणी के बल को बढ़ा। और (पुरन्धिम् जनय) पुर, नगर, राष्ट्र को धारण करने वाली नीति, सत्ता को प्रकट कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः-१—३ वसिष्ठः। ४-६ इन्द्रप्रमतिर्वासिष्ठः। ७–९ वृषगणो वासिष्ठः। १०–१२ मन्युर्वासिष्ठः। १३-१५ उपमन्युर्वासिष्ठः। १६-१८ व्याघ्रपाद्वासिष्ठः। १९-२१ शक्तिर्वासिष्ठः। २२–२४ कर्णश्रुद्वासिष्ठः। २५—२७ मृळीको वासिष्ठः। २८–३० वसुक्रो वासिष्ठः। ३१–४४ पराशरः। ४५–५८ कुत्सः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, १०, १२, १४, १५, १९, २१, २५, २६, ३२, ३६, ३८, ३९, ४१, ४६, ५२, ५४, ५६ निचृत् त्रिष्टुप्। २-४, ७, ८, ११, १६, १७, २०, २३, २४, ३३, ४८, ५३ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९, १३, २२, २७–३०, ३४, ३५, ३७, ४२–४४, ४७, ५७, ५८ त्रिष्टुप्। १८, ४१, ५०, ५१, ५५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ३१, ४९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४० भुरिक् त्रिष्टुप्। अष्टापञ्चाशदृचं सूक्तम्॥
विषय
वर्धया वाचं, जनया पुरन्धिम्
पदार्थ
हे (सोम) = वीर्य ! (एवा) = गतिशीलता के द्वारा [इ गतौ] (परिषिच्यमानः) = शरीर में चारों ओर सिक्त किया जाता हुआ, (पूयमानः) = वासनाओं के उबाल से मलिन न किया जाता हुआ तू (नः स्वस्तिः) = हमारे लिये कल्याण को (आपवस्व) = प्राप्त करा । (बृहता रवेण) = महान् स्व शब्द के हेतु से (इन्द्रं आविश) = इस जितेन्द्रिय पुरुष को तू प्राप्त हो, इसके शरीर में सर्वत्र प्रवेश वाला हो। तेरे प्रवेश से ही हृदय की पवित्रता होकर हृदयस्थ प्रभु की वाणी सुन पड़ेगी। यह 'आत्मा की आवाज' ही सर्वमहान् शब्द है । यह श्रोता की वृद्धि का कारण बनता है। हे सोम ! तू (वाचं वर्धया) = हमारे जीवन में इस ज्ञान की वाणी का वर्धन कर और (पुरन्धिम्) = पालक व पूरक बुद्धि को (जनया) = प्रादुर्भूत कर। सोमरक्षण से ही ज्ञान की वाणियों को हम समझने के योग्य बनते हैं और उत्कृष्ट बुद्धि को प्राप्त करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ - शरीर में सुरक्षित सोम कल्याण [नीरोगता आदि] का साधक है, हृदयस्थ प्रभु की प्रेरणा को सुनने के योग्य बनाता है, इसके रक्षण से ज्ञान की वाणियों को हम समझने लगते हैं, बुद्धि की वृद्धि होती है ।
इंग्लिश (1)
Meaning
Thus, 0 Soma, served, adored and celebrated with your power and purity, let your presence radiate and purify us for our good and all round well being. Come and settle in the soul with the mighty voice of divinity. Generate and exalt the awareness and speech of vision and celebration communicative of high divine realisation.
मराठी (1)
भावार्थ
जे लोक उपासनेद्वारे परमात्म्याच्या स्वरूपाचा साक्षात्कार करतात. परमात्मा त्यांना अवश्य शुद्ध करतो. ॥३६॥
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