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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1006
ऋषिः - गोतमो राहूगणः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
25
ता꣡ अ꣢स्य पृशना꣣यु꣢वः꣣ सो꣡म꣢ꣳ श्रीणन्ति꣣ पृ꣡श्न꣢यः । प्रि꣣या꣡ इन्द्र꣢꣯स्य धे꣣न꣢वो꣣ व꣡ज्र꣢ꣳ हिन्वन्ति꣣ सा꣡य꣢कं꣣ व꣢स्वी꣣र꣡नु꣢ स्व꣣रा꣡ज्य꣢म् ॥१००६॥
स्वर सहित पद पाठताः । अ꣣स्य । पृशनायु꣡वः꣢ । सो꣡म꣢꣯म् । श्री꣣णन्ति । पृ꣡श्न꣢꣯यः । प्रि꣣याः꣢ । इ꣡न्द्र꣢꣯स्य । धे꣣न꣡वः꣢ । व꣡ज्र꣢꣯म् । हि꣣न्वन्ति । सा꣡य꣢꣯कम् । व꣡स्वीः꣢꣯ । अ꣡नु꣢꣯ । स्व꣣रा꣡ज्य꣢म् । स्व꣣ । रा꣡ज्य꣢꣯म् ॥१००६॥
स्वर रहित मन्त्र
ता अस्य पृशनायुवः सोमꣳ श्रीणन्ति पृश्नयः । प्रिया इन्द्रस्य धेनवो वज्रꣳ हिन्वन्ति सायकं वस्वीरनु स्वराज्यम् ॥१००६॥
स्वर रहित पद पाठ
ताः । अस्य । पृशनायुवः । सोमम् । श्रीणन्ति । पृश्नयः । प्रियाः । इन्द्रस्य । धेनवः । वज्रम् । हिन्वन्ति । सायकम् । वस्वीः । अनु । स्वराज्यम् । स्व । राज्यम् ॥१००६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1006
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 15; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 15; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
आगे फिर उसी विषय का वर्णन है।
पदार्थ
(अस्य) इस इन्द्र नामक सूर्य की (ताः पृश्नयः) वे रङ्ग-बिरङ्गी किरणें (पृशनायुवः) मानो चन्द्रमा के साथ स्पर्श को चाहती हुई (सोमम्) चन्द्रमा को (श्रीणन्ति) प्रकाश से परिपक्व करती हैं। (इन्द्रस्य) सूर्य की, वे (प्रियाः) प्रिय (धेनवः) किरणें (सायकम्) दुर्भिक्ष आदि का अन्त करनेवाले (वज्रम्) मेघ के विद्युत् रूप वज्र को (हिन्वन्ति) प्रेरित करती हैं। इस प्रकार (वस्वीः) वे निवासक किरणें (स्वराज्यम्) सूर्य के स्वराज्य के (अनु) अनुकूल चलती हैं ॥२॥ यहाँ ‘पृशनायुवः’ में व्यङ्ग्योत्प्रेक्षा अलङ्कार है ॥२॥
भावार्थ
सूर्य-किरणों का ही यह महान् कार्य है कि वे सूर्य के स्वराज्य का अनुसरण करती हुई चन्द्र आदि लोकों को प्रकाशित करती हैं, मेघों में विद्युत् रूप वज्र को गरजाती हुई वर्षा करती हैं और सबको बसाती हैं। उसी प्रकार मनुष्यों को भी अपना आन्तरिक एवं बाह्य स्वराज्य प्रकाशित करना चाहिए ॥२॥
पदार्थ
(अस्य इन्द्रस्य) इस ऐश्वर्यवान् परमात्मा की उसके सम्बन्ध की (ताः पृशनायुवः पृश्नयः) वे स्पर्श को चाहनेवाली*79 वाणियाँ*80 (सोमं शृणन्ति) उपासनारस को पक्व करती—सम्पन्न करती हैं क्योंकि (प्रियाः-धेनवः) प्यारी धेनु हैं उसे दुहनेवाली हैं जोकि (वज्रं सायकं हिन्वन्ति) उपासक के लिए वज्र दोष वर्जित भोग के अन्त करनेवाले अध्यात्म मार्ग की ओर ले जाती हैं*81 (वस्वीः-अनु स्वराज्यम्) उपासक आत्मा के स्वराज्य के अनुकूल॥२॥
टिप्पणी
[*79. स्पृशधातोः क्युः प्रत्ययः औणादिकः सकारलोपश्च छान्दसः।] [*80. “वाग् वै पृश्निः” [काठ॰ ३४.१]।] [*81. “वज्रः कस्माद् वर्जयतीति सतः” [निरु॰ ३.११]।]
विशेष
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विषय
वेदवाणी कैसी है ? क्या करती है ?
पदार्थ
(ताः) = वे (अस्य) = इन जीव के, प्रभु के साथ (पृशनायुवः) = [पृशनं=clinging to] सम्पर्क करनेवाली (पृश्नयः) = [संस्पृष्टो भासा] ज्ञान की ज्योति से युक्त (इन्द्रस्य प्रिया:) = जितेन्द्रिय पुरुष को प्रीणत करनेवाली (वस्वीः) = उत्तम निवास की कारणभूत (धेनवः) = वेदवाणीरूप गौएँ (स्वराज्यम् अनु) = स्वराज्य का लक्ष्य करके (सोमं श्रीणन्ति) = सोम का परिपाक करती हैं और (सायकम्) = [षो अन्तकर्मणि] फल-प्राप्ति तक न समाप्त होनेवाली (वज्रम्) = क्रियाशीलता की (हिन्वन्ति) = प्रेरणा देती हैं।
प्रस्तुत मन्त्र में वेदवाणी का स्वरूप निम्न शब्दों में दर्शाया गया है – ये हमारे शरीर में सोम का परिपाक करती हैं। वेद-स्वाध्याय सोम का शरीर में ही खपत कर देता है, क्योंकि उस समय यह सोम ज्ञानाग्नि का ईंधन बनता है । २. इन वेदवाणियों से हमें क्रियाशीलता की प्रेरणा मिलती हैयह क्रियाशीलता फल-प्राप्ति में ही पर्यवसन्न होती है। यह फल-प्राप्ति 'स्वराज्यमनु' शब्दों से सूचित हो रही है।‘स्वराज्य'=मोक्ष-प्राप्ति – इन्द्रियों की दासता से छुटकारा ही मानव-जीवन का लक्ष्य है।
भावार्थ
हम वेद को अपनाएँ । यह हमारे जीवन को ज्योतिर्मय बनाएगा और प्रभु से हमारा मेल कराएगा। इन्हें अपनाने से हम उत्तम वेदवाणीरूप गौवोंवाले होंगे–‘गोतम' बनेंगे और वासनाओं को त्यागनेवाले ‘राहूगण' होंगे ।
विषय
missing
भावार्थ
(ताः) वे (अस्य) इस आत्मा के (पृशनायुवः) स्पर्श, संग, या सन्निकर्ष चाहती हुईं, या भोग्य पदार्थों तक पहुंचने की चेष्टा करने वाली (पृश्नयः) रस तक पहुंचने वाली, (प्रियाः) प्रिय (धेनवः) गौओं के समान इन्दियां (सोमं) ज्ञान को (श्रीणन्ति) और भी परिपक्व करती हैं, बढ़ाती हैं। और वे (सायकं) नाश करने वाले, अन्त कर डालने वाले (वज्रं) वैराग्य को (हिन्वन्ति) उत्पन्न करती हैं और वे (वस्वीः) इस शरीर में वास करने हारे आत्मा की शक्तियां (स्वराज्यं) अपने निजी आत्मा के प्रकाशमय सत्ता के (अनु) अनुकूल, वश होकर उसमें ही विराजती है। साधक का अनुभव परिपक्व होने पर इन्द्रियां ही स्वयं भोग को त्याग कर देती हैं। और वैराग्य होकर आत्मा में आभ्यन्तर ज्ञान-प्रकाश उत्पन्न होता है और उसके अनुकूल सब इन्द्रियां अन्तर्वृत्ति होकर रहती हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—त्रय ऋषिगणाः। २ काश्यपः ३, ४, १३ असितः काश्यपो देवलो वा। ५ अवत्सारः। ६, १६ जमदग्निः। ७ अरुणो वैतहव्यः। ८ उरुचक्रिरात्रेयः ९ कुरुसुतिः काण्वः। १० भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। ११ भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्वा १२ मनुराप्सवः सप्तर्षयो वा। १४, १६, २। गोतमो राहूगणः। १७ ऊर्ध्वसद्मा कृतयशाश्च क्रमेण। १८ त्रित आप्तयः । १९ रेभसूनू काश्यपौ। २० मन्युर्वासिष्ठ २१ वसुश्रुत आत्रेयः। २२ नृमेधः॥ देवता—१-६, ११-१३, १६–२०, पवमानः सोमः। ७, २१ अग्निः। मित्रावरुणौ। ९, १४, १५, २२, २३ इन्द्रः। १० इन्द्राग्नी॥ छन्द:—१, ७ नगती। २–६, ८–११, १३, १६ गायत्री। २। १२ बृहती। १४, १५, २१ पङ्क्तिः। १७ ककुप सतोबृहती च क्रमेण। १८, २२ उष्णिक्। १८, २३ अनुष्टुप्। २० त्रिष्टुप्। स्वर १, ७ निषादः। २-६, ८–११, १३, १६ षड्जः। १२ मध्यमः। १४, १५, २१ पञ्चमः। १७ ऋषभः मध्यमश्च क्रमेण। १८, २२ ऋषभः। १९, २३ गान्धारः। २० धैवतः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पुनस्तमेव विषयमाह।
पदार्थः
(अस्य) इन्द्राख्यस्य सूर्यस्य (ताः पृश्नयः) ताः नानावर्णा दीधितयः (पृशनायुवः२) चन्द्रमसा पृशनं स्पर्शं कामयमाना इव (सोमम्) चन्द्रमसम् (श्रीणन्ति) प्रकाशेन परिपक्वं कुर्वन्ति। [श्रीञ् पाके क्र्यादिः।] (इन्द्रस्य) सूर्यस्य, ताः (प्रियाः) प्रेमार्हाः (धेनवः) दीधितयः (सायकम्) दुर्भिक्षादीनाम् अन्तकरम्। [स्यति विनाशयतीति सायकः, षो अन्तकर्मणि।] (वज्रम्) मेघस्थं विद्युद्वज्रम् (हिन्वन्ति) प्रेरयन्ति। एवम् (वस्वीः) वस्व्यः निवासहेतुकास्ताः (स्वराज्यम्) सूर्यस्य स्वकीयं साम्राज्यम् (अनु) अनुसरन्ति ॥२॥३ अत्र ‘पृशनायुवः’ इत्यत्र व्यङ्ग्योत्प्रेक्षालङ्कारः ॥२॥
भावार्थः
सूर्यरश्मीनामेवेदं प्रशंसनीयं महत् कार्यं यत्ते सूर्यस्य स्वराज्यमनुसरन्तश्चन्द्रादीन् लोकान् प्रकाशयन्ति, मेघेषु विद्युद्वज्रं गर्जयन्तो वृष्टिं कुर्वन्ति, सर्वान् निवासयन्ति च। तथैव मनुष्यैरपि स्वकीयमान्तरं बाह्यं च स्वराज्यं प्रकाशनीयम् ॥२॥
टिप्पणीः
१. ऋ० १।८४।११। २. पृशनायुवः स्पर्शनकामाः—इति सा०। आत्मनः स्पर्शमिच्छन्त्यः अत्र छान्दसो वर्णलापो वेति सलोपः—इति ऋ० १।८४।११ भाष्ये द०। ३. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं सूर्यकिरणपक्षे सेनापक्षे च व्याख्यातवान्।
इंग्लिश (2)
Meaning
These lovely organs, longing for the proximity of the soul, in their search for essence, strengthen knowledge. Thy create asceticism, the killer of desires. The soul-forces reside in it, under its brilliant control.
Meaning
Those forces of Indra, the ruler, close together in contact and unison, of varied forms and colours, brilliant as sun rays and generous and productive as cows, who are dearest favourites of the ruler, create the soma of joy and national dignity and hurl the missile of the thunderbolt upon the invader as loyal citizens of the land in accordance with the demands and discipline of freedom and self-government. (Rg. 1-84-11)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (अस्य इन्द्रस्य) એ ઐશ્વર્યવાન પરમાત્માની તેના સંબંધી (ताः पृशनायुवः पृश्नयः) તે સ્પર્શને ચાહનારી વાણીઓ (सोमं श्रीणन्ति) ઉપાસનારસને પકવ કરતી-સંપન્ન કરે છે, કારણ કે (प्रियाः धेनवः) પ્રિય ગાય છે તેનું દોહન કરનારી છે. જે (वज्रं सायकं हिन्वन्ति) ઉપાસકને માટે વજ્ર, દોષ વર્જિત, ભોગનો અન્ત કરનારી અધ્યાત્મ માર્ગની તરફ લઈ જનારી છે. (वस्वीः अनु स्वराज्यम्) ઉપાસક આત્માના સ્વરાજ્યને અનુકૂળ બને છે. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
सूर्य किरणांचे हे महान कार्य आहे की ती सूर्याच्या स्वराज्याचे अनुसरण करून चंद्र इत्यादी लोक (गोल) प्रकाशित करतात. मेघांद्वारे विद्युतरूपी वज्राद्वारे गर्जना करत वृष्टी करतात व सर्वांना वसवितात. त्याचप्रकारे माणसांनीही आपले आंतरिक व बाह्य स्वराज्य प्रकाशित करावे. ॥२॥
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