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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1018
    ऋषिः - रेभसूनू काश्यपौ देवता - पवमानः सोमः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम -
    27

    त्वं꣡ द्यां च꣢꣯ महिव्रत पृथि꣣वीं꣡ चाति꣢꣯ जभ्रिषे । प्र꣡ति꣢ द्रा꣣पि꣡म꣢मुञ्चथाः प꣡व꣢मान महित्व꣣ना꣢ ॥१०१८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । द्याम् । च꣣ । महिव्रत । महि । व्रत । पृथिवी꣢म् । च꣣ । अ꣡ति꣢꣯ । ज꣣भ्रिषे । प्र꣡ति꣢꣯ । द्रा꣣पि꣢म् । अ꣣मुञ्चथाः । प꣡व꣢꣯मान । म꣣हित्वना꣢ ॥१०१८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं द्यां च महिव्रत पृथिवीं चाति जभ्रिषे । प्रति द्रापिममुञ्चथाः पवमान महित्वना ॥१०१८॥


    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम् । द्याम् । च । महिव्रत । महि । व्रत । पृथिवीम् । च । अति । जभ्रिषे । प्रति । द्रापिम् । अमुञ्चथाः । पवमान । महित्वना ॥१०१८॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1018
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 19; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 6; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में पुनः वही विषय है।

    पदार्थ

    हे (महिव्रत) महान् कर्मों के कर्ता सोम अर्थात् जगत्स्रष्टा परमात्मन् ! (त्वम्) आप (द्यां च) द्यौ लोक को (पृथिवीं च) और भूलोक को भी (अति) लाँघकर (जभ्रिषे) सबको धारण किये हुए हो। हे (पवमान) सर्वान्तर्यामिन् आपने (महित्वना) अपनी महिमा से (द्रापिम्) रक्षा-कवच को (प्रति अमुञ्चथाः) धारण किया हुआ है, अर्थात् आपकी महिमा ही आपका रक्षा-कवच है, क्योंकि अलौकिक आपको कवच आदि भौतिक साधनों की अपेक्षा नहीं होती। अथवा, (द्रापिम्) निद्रा को (प्रति अमुञ्चथाः) छोड़ा हुआ है, अर्थात् सदैव जागरूक होने से आप निद्रा-रहित हो ॥३॥

    भावार्थ

    न केवल द्युलोक तथा भूलोक को, किन्तु उनसे परे भी जो कुछ है, उस सबको भी जगदीश्वर ही धारण करता है। वह भौतिक कवच के बिना भी रक्षित रहता है और नींद के बिना भी विश्राम को प्राप्त रहता है ॥३॥

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    पदार्थ

    (महिव्रत पवमान) हे महान् कर्मशील परमात्मन्! (त्वम्) तू (द्यां च पृथिवीं च) द्युलोक और पृथिवीलोक को (अति जभ्रिषे) अत्यन्त धारण करता है (महित्वना) अपनी महिमा से (द्रापिम्-अपि-अमुञ्चथाः) समस्त संसार की रक्षा के लिए परिमण्डलरूप कवच—दृढ़ घेरे को भी धारण किए हुए है॥३॥

    विशेष

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    विषय

    पवमान-महिव्रत

    पदार्थ

    १. हे (महिव्रत) = महनीय [प्रशंसनीय] व महान् व्रतोंवाले (पवमान) = सबको पवित्र करनेवाले प्रभो ! (त्वम्) = आप (द्यां च पृथिवीं च) = द्युलोक व पृथिवीलोक को (अतिजभिषे) = अतिशयेन धारण करते हो - बहुत ही सुन्दर ढंग से सारे संसार का पालन-पोषण करते हो । २. हे (पवमान) प्रभो ! (महित्वना) = आप अपनी महिमा से (द्रापिम्) = कुत्सित गति को [द्रा कुत्सायां गतौ] प्रति (अमुञ्चथाः) = छुड़ाते हो- दूर करते हो ।

    २. १. प्रभु के कर्म महान् हैं । वे 'महिव्रत' हैं— सारे ब्रह्माण्ड का पालन उसका सर्वमहान् कर्म है । वे प्रभु पवमान हैं—पवित्र करनेवाले हैं। वे अपनी महिमा से भक्तों को अशुभों से दूर करते हैं । प्रभु का भक्त [रेभ] प्रभु की प्रेरणा को सुनता है [सूनु] और ज्ञानी [काश्यप] बनकर पवित्र कर्मोंवाला हो जाता है ।

    भावार्थ

    प्रभु ही सबका धारण करते हैं। हमारा धारण भी वही करेंगे और हमें पाप से पृथक् करेंगे।

    टिप्पणी

    सूचना – ‘प्रभु धारण करते हैं और कुत्सित गति को दूर करते हैं', इस मन्त्र क्रम के द्वारा यह सूचना हो रही है कि पापों से पृथक् होने के लिए आवश्यक है कि हम निर्माण व धारण के कार्यों में लगे रहें । संक्षेप में 'पवमान' वही बनता है जो 'महिव्रत' होता है ।

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    विषय

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    भावार्थ

    हे (महिव्रत) महान् कर्मों के करने वाले परमात्मन् ! आप (द्यां) आकाश या सूर्य, और (पृथिवीं च) पृथिवी दोनों लोकों को (अति जभ्रिषे) पार करके भी दोनों को ग्रहण किये हुए हो। हे (पवमान) सर्वव्यापक ! (महित्वना) अपनी महिमा से आप (द्रापिं) रूपवान् जगत् को कवच को वीरपुरुष के समान (प्रतिमुञ्चथाः) धारण कर रहे हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—त्रय ऋषिगणाः। २ काश्यपः ३, ४, १३ असितः काश्यपो देवलो वा। ५ अवत्सारः। ६, १६ जमदग्निः। ७ अरुणो वैतहव्यः। ८ उरुचक्रिरात्रेयः ९ कुरुसुतिः काण्वः। १० भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। ११ भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्वा १२ मनुराप्सवः सप्तर्षयो वा। १४, १६, २। गोतमो राहूगणः। १७ ऊर्ध्वसद्मा कृतयशाश्च क्रमेण। १८ त्रित आप्तयः । १९ रेभसूनू काश्यपौ। २० मन्युर्वासिष्ठ २१ वसुश्रुत आत्रेयः। २२ नृमेधः॥ देवता—१-६, ११-१३, १६–२०, पवमानः सोमः। ७, २१ अग्निः। मित्रावरुणौ। ९, १४, १५, २२, २३ इन्द्रः। १० इन्द्राग्नी॥ छन्द:—१, ७ नगती। २–६, ८–११, १३, १६ गायत्री। २। १२ बृहती। १४, १५, २१ पङ्क्तिः। १७ ककुप सतोबृहती च क्रमेण। १८, २२ उष्णिक्। १८, २३ अनुष्टुप्। २० त्रिष्टुप्। स्वर १, ७ निषादः। २-६, ८–११, १३, १६ षड्जः। १२ मध्यमः। १४, १५, २१ पञ्चमः। १७ ऋषभः मध्यमश्च क्रमेण। १८, २२ ऋषभः। १९, २३ गान्धारः। २० धैवतः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनस्तमेव विषयमाह।

    पदार्थः

    हे (महिव्रत) महाकर्मन् सोम जगत्स्रष्टः परमात्मन् ! (त्वम् द्यां च) द्युलोकं च (पृथिवीं च) भूलोकं चापि (अति) अतिक्रम्य (जभ्रिषे) सर्वं बिभर्षि। [डुभृञ् धारणपोषणयोः बभृषे इति प्राप्ते वर्णव्यत्ययेन बकारस्य जकारः, छान्दसः इडागमश्च।] हे (पवमान) सर्वान्तर्यामिन् ! त्वम् (महित्वना) स्वमहिम्ना (द्रापिम्) कवचम् (प्रति अमुञ्चथाः२) धृतवानसि, त्वन्महिमैव तव कवचमित्यर्थः, अलौकिकस्य तव कवचादीनां भौतिकसाधनानामनपेक्षितत्वात्। यद्वा (द्रापिम्३) निद्राम् (प्रति अमुञ्चथाः) परित्यक्तवानसि, सर्वदैव जागरूकत्वात् ॥३॥

    भावार्थः

    न केवलं द्यावापृथिव्यौ किन्तु तयोः परस्तादपि यत्किञ्चिदस्ति तत्सर्वं जगदीश एव धारयति। स च भौतिकं कवचं विनापि रक्षितो निद्रां विनापि च विश्रान्तः ॥३॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।१००।९। २. प्रति अमुञ्चथाः प्रतिमुञ्चसि संवृणोषि—इति सा०। प्रतिपूर्वो मुञ्चतिर्धारणार्थेऽपि दृश्यते, यथा यज्ञोपवीतमन्त्रे ‘आयुष्यमग्र्यं प्रतिमुञ्च शुभ्रम् (पार० गृह्य० २।२।११, क्वाचित्कः पाठः)’ इति। ३. द्रापिं कवचं निद्रां वा। अत्र ‘द्रै स्वप्ने’ इत्यस्माद् ‘इञ् वपादिभ्यः’ इति इञ्—इति ऋ० १।२५।१३ भाष्ये द०।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Lord of mighty actions. Thou transgresses! the Heaven and the Earth. O God, with Thy majesty. Thou sustainest the universe!

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    Meaning

    O Soma, universal soul of high commitment of Dharma, pure and purifying energy of omnipresent divine flow, you wear the armour of omnipotence, bear, sustain and edify the heaven and earth by your majesty and transcend. (Rg. 9-100-9)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    (महिव्रत पवमान) હે મહાન કર્મશીલ પરમાત્મન્ ! (त्वम्) તું (द्यां च पृथिवीं च) દ્યુલોક અને પૃથિવીલોકને (अति जभ्रिषे) અત્યંત ધારણ કરે છે. (महित्वना) પોતાના મહિમાથી (द्रापिम् अपि अमुञ्चथाः) સમસ્ત સંસારની રક્ષા માટે પરિમંડળરૂપ - કવચ - દૃઢ ઘેરાવને પણ ધારણ કરેલ છે. (૩)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    केवळ द्युलोक व भूलोक एवढेच नव्हे तर त्याच्या पलीकडे जे काही आहे, त्या सर्वांना जगदीश्वरच धारण करतो. तो भौतिक कवचाशिवायही रक्षित असतो व झोपेशिवायही विश्राम घेतो. ॥३॥

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