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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1021
    ऋषिः - मन्युर्वासिष्ठः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम -
    21

    अ꣣भि꣢ व्र꣣ता꣡नि꣢ पवते पुना꣣नो꣢ दे꣣वो꣢ दे꣣वा꣢꣫न्त्स्वेन꣣ र꣡से꣢न पृ꣣ञ्च꣢न् । इ꣢न्दु꣣र्ध꣡र्मा꣢ण्यृतु꣣था꣡ वसा꣢꣯नो꣣ द꣢श꣣ क्षि꣡पो꣢ अव्यत꣣ सा꣢नौ꣣ अ꣡व्ये꣢ ॥१०२१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ꣣भि꣢ । व्र꣣ता꣡नि꣢ । प꣣वते । पुनानः꣢ । दे꣣वः꣢ । दे꣣वा꣢न् । स्वे꣡न꣢꣯ । र꣡से꣢꣯न । पृ꣣ञ्च꣢न् । इ꣡न्दुः꣢꣯ । ध꣡र्मा꣢꣯णि । ऋ꣣तुथा꣢ । व꣡सा꣢꣯नः । द꣡श꣢꣯ । क्षि꣡पः꣢꣯ । अ꣡व्यत । सा꣡नौ꣢꣯ । अ꣡व्ये꣢꣯ ॥१०२१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभि व्रतानि पवते पुनानो देवो देवान्त्स्वेन रसेन पृञ्चन् । इन्दुर्धर्माण्यृतुथा वसानो दश क्षिपो अव्यत सानौ अव्ये ॥१०२१॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अभि । व्रतानि । पवते । पुनानः । देवः । देवान् । स्वेन । रसेन । पृञ्चन् । इन्दुः । धर्माणि । ऋतुथा । वसानः । दश । क्षिपः । अव्यत । सानौ । अव्ये ॥१०२१॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1021
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 20; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 6; सूक्त » 5; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में यह बताया गया है कि बहता हुआ ब्रह्मानन्दरस क्या करता है।

    पदार्थ

    (देवः) दिव्यगुणमय ब्रह्मानन्दरूप सोमरस (देवान्) मन, बुद्धि, प्राण, इन्द्रिय आदि को (पुनानः) पवित्र करता हुआ (स्वेन रसेन) अपने रस से (पृञ्चन्) स्नान कराता हुआ (व्रतानि अभि) कर्मों में (पवते) प्रवाहित होता है। (इन्दुः) आर्द्र करनेवाला आनन्दरस (ऋतुथा) समय-समय पर (धर्माणि) सत्य, न्याय, दया आदि धर्मों को (वसानः) धारण करता हुआ (दश क्षिपः) दस इन्द्रियों या दस प्राणों को (अव्ये सानौ) पहुँचने योग्य उन्नति-शिखर पर (अव्यत) पहुँचा देता है ॥३॥

    भावार्थ

    ब्रह्मानन्द-रस जब जीवन में व्याप्त हो जाता है, तब मनुष्य के सब अङ्गों को, सब प्राणों को, सब मन-बुद्धि आदियों को अपने प्रभाव से नचाता हुआ सा चमत्कृत करता है ॥३॥ इस खण्ड में आचार्य, ज्ञानरस परमात्मा और ब्रह्मानन्दरस का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ षष्ठ अध्याय में षष्ठ खण्ड समाप्त ॥

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    पदार्थ

    (इन्दुः) आनन्दरसपूर्ण परमात्मा (व्रतानि-अभि पवते) अपने नियम कर्मों को अभिप्राप्त होता है—पूर्ण करता है (पुनानः-देवः) प्राप्त होता हुआ परमात्मदेव (देवान्-स्वेन रसेन पृञ्चन्) इन्द्रियों को अपने आनन्दरस से सम्पृक्त करता हुआ—संयुक्त करता हुआ (ऋतुथा धर्माणि वसानः) समय समय पर धारणसामर्थ्यों को आच्छादित करने का हेतु हुआ (दश क्षिपः) विषयों में क्षिप्त—जाने वाली दश इन्द्रियों के सम्भजन स्थान मन में पहुँच जाता है॥३॥

    विशेष

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    विषय

    विषयों के बवण्डर से ऊपर

    पदार्थ

    १. मन्यु वासिष्ठ (व्रतानि अभिपवते) = व्रतों की ओर जाता है । 'यम-नियम' ही व्रत हैं । यह 'अहिंसा-सत्य-अस्तेय-ब्रह्मचर्य-अपरिग्रह तथा शौच-सन्तोष-तप-स्वाध्याय व ईश्वर प्रणिधान' का पालन करता है । २. (पुनानः) = इन व्रतों के पालन द्वारा यह अपने जीवन को पवित्र करने के स्वभाववाला होता है । ३. (देवः) = अपने को व्रतों द्वारा निरन्तर पवित्र करता हुआ यह दिव्य गुणोंवाला बन जाता है। ४. (देवान् स्वेन रसेन पृञ्चन्) = यह इन दिव्य गुणों को अपने माधुर्य से सम्पृक्त करता है । वस्तुतः दिव्य गुण तभी तक दिव्य गुण रहते हैं जब तक उनके साथ माधुर्य का मेल है, सत्य तभी तक सत्य है जब तक वह अप्रिय नहीं । ५. दिव्य गुणों के साथ माधुर्य का मेल कर यह (इन्दुः) = अत्यन्त शक्तिशाली बन जाता । शान्तियुक्त शक्ति ही निर्माण कर पाती है, अत: यह 'मन्यु वासिष्ठ' ६. (धर्माणि `ऋतुथा वसानः) = समयानुसार धारणात्मक कर्मों को धारण करनेवाला होता है । ७. (दश क्षिपः अव्यत) = दसों इन्द्रियों को सदा सुरक्षित करता है । इन्द्रियों को वासनाओं के आकर्षणों से बचाकर उत्तम कर्मों में ही लगाये रखता है । ८. (सानो: अव्ये) = और सानु के रक्षण में उत्तम स्थान में पहुँच जाता है । 'सानु' का अर्थ शिखरप्रदेश है । शरीर में यह 'सहस्रारचक्र' है, जोकि मेरुदण्ड के शिखर पर विद्यमान है । यह 'मन्यु वाशिष्ठ' अपनी वृत्तियों को केन्द्रित करके । 

    यहाँ स्थित होने का प्रयत्न करता है। यही प्राणों का मूर्धा में नियमन है। योगी इसी अभ्यास के द्वारा अन्त में ब्रह्मरन्ध्र से प्राणों को छोड़ता है। ऐसा अभ्यासी कभी भी विषयों से बद्ध नहीं होता । विषयों के बवण्डर इस शिखरप्रदेश तक पहुँचते ही नहीं ।

    भावार्थ

    हम अभ्यास के द्वारा शिखर के सुरक्षित प्रदेश में स्थित होनेवाले हों । सब इन्द्रियों को सुरक्षित रक्खें, उन्हें आसुर आक्रमणों से बचाएँ ? ।
     

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    विषय

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    भावार्थ

    (स्वेन रसेन) अपने आनन्द रस से (देवान्) विद्वानों या इन्द्रियों को (पृञ्चन्) तृप्त करता हुआ (देवः) सुख शान्तिप्रद, तेजोमय वीर्य, (पुनानः) स्वतः स्वच्छ और पवित्र एवं व्यापक होकर (व्रतानि) सब कर्मों को (अभिपवते) पवित्र कर सर्वत्र प्रकट होता है। (इन्द्रः) आत्मा (ऋतुथा) प्रत्येक ऋतु के अनुकूल, या प्राणों के बल से (धर्माणि वसानः) धारण-सामर्थ्यों या नाना धर्मों अर्थात् गुणों को सम्पादन करता हुआ (अव्ये सानो) न गतिशील, प्राणमय, स्थिर सानु अर्थात् सुखग्राहक अन्तःकरण में (दश क्षिपः) दशौ क्षिप्रगति करनेहारी इन्द्रियों को (अव्यत) प्राप्त होता है। ऊर्ध्वरेता योगियों की साधना से वीर्य ऊर्ध्वगामी होकर उन में सब ऋतुओं में सहनशीलता उत्पन्न करता और इन्द्रियों में बल पैदा करता है। ‘अभिप्रियाणि’ इति ऋ०।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—त्रय ऋषिगणाः। २ काश्यपः ३, ४, १३ असितः काश्यपो देवलो वा। ५ अवत्सारः। ६, १६ जमदग्निः। ७ अरुणो वैतहव्यः। ८ उरुचक्रिरात्रेयः ९ कुरुसुतिः काण्वः। १० भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। ११ भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्वा १२ मनुराप्सवः सप्तर्षयो वा। १४, १६, २। गोतमो राहूगणः। १७ ऊर्ध्वसद्मा कृतयशाश्च क्रमेण। १८ त्रित आप्तयः । १९ रेभसूनू काश्यपौ। २० मन्युर्वासिष्ठ २१ वसुश्रुत आत्रेयः। २२ नृमेधः॥ देवता—१-६, ११-१३, १६–२०, पवमानः सोमः। ७, २१ अग्निः। मित्रावरुणौ। ९, १४, १५, २२, २३ इन्द्रः। १० इन्द्राग्नी॥ छन्द:—१, ७ नगती। २–६, ८–११, १३, १६ गायत्री। २। १२ बृहती। १४, १५, २१ पङ्क्तिः। १७ ककुप सतोबृहती च क्रमेण। १८, २२ उष्णिक्। १८, २३ अनुष्टुप्। २० त्रिष्टुप्। स्वर १, ७ निषादः। २-६, ८–११, १३, १६ षड्जः। १२ मध्यमः। १४, १५, २१ पञ्चमः। १७ ऋषभः मध्यमश्च क्रमेण। १८, २२ ऋषभः। १९, २३ गान्धारः। २० धैवतः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ प्रवहमानो ब्रह्मानन्दरसः किं करोतीत्याह।

    पदार्थः

    (देवः) दिव्यगुणमयः ब्रह्मानन्दरूपः सोमरसः (देवान्) मनोबुद्धिप्राणेन्द्रियादीन् (पुनानः) पवित्रीकुर्वन् (स्वेन रसेन) आत्मनीनेन रसेन (पृञ्चन्) स्नपयन् (व्रतानि अभि) कर्माणि अभिलक्ष्य, कर्मसु इत्यर्थः (पवते) प्रवाहितो भवति। (इन्दुः) क्लेदकः आनन्दरसः (ऋतुथा) ऋतौ ऋतौ, काले काले। [ऋतुथा ऋतावृतौ। निरु० ८।१६, ऋतुथा काले काले। निरु० १२।२७।] (धर्माणि) सत्यन्यायदयादीन् धर्मान् (वसानः) धारयन् (दश क्षिपः) दश इन्द्रियाणि दश प्राणान् वा। [क्षिप्यन्ते स्वस्वविषयेषु देहस्याङ्गेषु वा इति क्षिपः इन्द्रियाणि प्राणा वा।] (अव्ये सानौ) गन्तुं योग्ये उन्नतिशिखरे। [अवतिर्गत्यर्थः, अवितुं गन्तुं योग्यम् अव्यम्।] (अव्यत)प्रापयति। [अवतेर्गत्यर्थाद् णिज्गर्भाद् विकरणव्यत्ययेन श्यनि लङि रूपम्। आडभावश्छान्दसः] ॥३॥

    भावार्थः

    ब्रह्मानन्दरसो यदा जीवनमभिव्याप्नोति तदा मनुष्यस्य सर्वाण्यङ्गानि सर्वान् प्राणान् सर्वाणि मनोबुद्ध्यादीनि च स्वप्रभावेण नर्तयन्निव चमत्करोति ॥३॥ अस्मिन् खण्डे आचार्यस्य ज्ञानरसस्य परमात्मनो ब्रह्मानन्दरसस्य च वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्ति ॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।९७।१२, ‘व्रतानि’ इत्यत्र ‘प्रियाणि॑’ इति पाठः।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Powerful semen, satisfying the learned with its delightful essence, pure in nature by itself, ennobling all actions, pervades the body. The soul, accomplishing its attributes according to each season, acquires the ten fast moving organs, in the happiness imbibing heart

    Translator Comment

    The Yogis who live in perpetual celibacy and abstain from sexual intercourse make their semen grant them peace of mind, toleration, and physical strength in all seasons.

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    Meaning

    To all dear loving ones flows divine and brilliant Soma, pure, purifying and fulfilling the noble sages with its nectar of ecstasy. May the brilliant joyous divinity, pervading and shining with virtues according to time and season, purify and fulfil us on top of this protective world of ten senses, ten pranas and ten gross and subtle elements. (Rg. 9-97-12)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (इन्दुः) આનંદરસ પૂર્ણ પરમાત્મા (व्रतानि अभि पवते) પોતાના નિયમ કર્મોને અભિપ્રાપ્ત થાય છે-પૂર્ણ કરે છે. (पुनानः देवः) પ્રાપ્ત થઈને પરમાત્મદેવ (देवान् स्वेन रसेन पृञ्चन्) ઇન્દ્રિયોને પોતાના આનંદરસથી સંપૃક્ત-તરબોળ કરીને-સંયુક્ત કરીને (ऋतुथा धर्माणि वसानः) સમય-સમય પર ધારણ સામર્થોને આચ્છાદિત કરવા-ઢાંકવા માટે થઈને (दश क्षिपः) વિષયોમાં ક્ષિપ્ત-જનારી દશ ઇન્દ્રિયોના સંભજન સ્થાન મનમાં પહોંચી જાય છે. (૩)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ब्रह्मानंद-रस जेव्हा जीवनात व्याप्त होतो तेव्हा माणसाच्या सर्व अंगांना सर्व प्राणांना, मन, बुद्धी इत्यादींना आपल्या प्रभावाने नृत्य करत चमत्कृत करतो. ॥३॥

    टिप्पणी

    या खंडात आचार्य, ज्ञानरस, परमात्मा व ब्रह्मानंदरसाचे वर्णन असल्यामुळे या खंडाची पूर्व खंडाबरोबर संगती आहे.

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