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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 107
ऋषिः - प्रयोगो भार्गवः
देवता - अग्निः
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
45
प्र꣡ मꣳहि꣢꣯ष्ठाय गायत ऋ꣣ता꣡व्ने꣢ बृह꣣ते꣢ शु꣣क्र꣡शो꣢चिषे । उ꣣पस्तुता꣡सो꣢ अ꣣ग्न꣡ये꣢ ॥१०७॥
स्वर सहित पद पाठप्र꣢ । मँ꣡हि꣢꣯ष्ठाय । गा꣣यत । ऋता꣡व्ने꣢ । बृ꣣हते꣢ । शु꣣क्र꣡शो꣢चिषे । शु꣣क्र꣢ । शो꣣चिषे । उपस्तुता꣡सः꣢ । उ꣣प । स्तुता꣡सः꣢अ꣣ग्न꣡ये꣢ ॥१०७॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र मꣳहिष्ठाय गायत ऋताव्ने बृहते शुक्रशोचिषे । उपस्तुतासो अग्नये ॥१०७॥
स्वर रहित पद पाठ
प्र । मँहिष्ठाय । गायत । ऋताव्ने । बृहते । शुक्रशोचिषे । शुक्र । शोचिषे । उपस्तुतासः । उप । स्तुतासःअग्नये ॥१०७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 107
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 12;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 12;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में मनुष्यों को परमेश्वर का गुणगान करने की प्रेरणा दी गयी है।
पदार्थ
हे (उपस्तुतासः) प्रशंसा-प्राप्त मनुष्यो ! तुम (मंहिष्ठाय) सबसे बढ़कर दानी, (ऋताव्ने) सत्य नियमोंवाले, (बृहते) महान्, (शुक्रशोचिषे) उज्ज्वल और पवित्र तेजवाले (अग्नये) परमेश्वर के लिए (प्र गायत) भली-भाँति स्तुति-गीत गाओ ॥१॥
भावार्थ
प्रशंसित जनों को चाहिए कि वे परमेश्वर की उपासना कर, उसके समान दान, सत्य, तेजस्विता, पवित्रता आदि गुणों को धारण कर यशस्वी हों ॥१॥
पदार्थ
(मंहिष्ठाय) “मंहते दानकर्मा” [निघं॰ ३.२०] अतिशय से दाता—(ऋताव्ने) अमृत वाले—अमृतरूप मोक्षानन्दधारी—“ऋतममृत-मित्याह” [जै॰ २.१६०] (बृहते) महान्—(शुक्रशोचिषे) शुक्र प्रकाश-स्वरूप—(अग्नये) परमात्मा के लिये (उप-स्तोतारः) ‘उपगत्य’ समीप होकर निमग्न होकर हे स्तुति करने वालो! (प्रगायत) गुणगान स्तुतिबखान करो।
भावार्थ
हे आत्मसमर्पण भाव से स्तुति करने वाले उपासको! अमृतरूप मोक्षानन्द धारण करनेवाले बड़े भारी दानी शुभ्रज्योतिःस्वरूप महान् इष्टदेव परमात्मा की प्रगाढ़ स्तुति गुणगान उपासना करनी चाहिये॥१॥
विशेष
छन्दः—ककुबुष्ण्कि् , स्वरः—ऋषभः। ऋषिः—भार्गवः प्रयोगः (अध्यात्म अग्नि का प्रज्वलनवेत्ता विद्वानों की परम्परा में कुशल प्रयोगकर्ता)॥ <br>
विषय
यथाविधि उपासना
पदार्थ
इस मन्त्र का दर्शन 'प्रयोग भार्गव' ऋषि ने किया था। प्रयोग शब्द का अर्थ है 'जो क्रिया में लाता है'। यहाँ स्तुति का प्रकरण है, अतः प्रयोग क्रियात्मक स्तुति के पक्ष में है। प्रयोग का अर्थ प्रकृष्ट सम्पर्कवाला भी है। हम अपने सन्तानों का सम्बन्ध जोड़ते समय ध्यान रखते हैं कि कुल ऊँचा हो, परन्तु अपना सम्बन्ध जोड़ते समय हमें यह ध्यान नहीं रहता और हम प्राय: प्रभु को छोड़ प्रकृति से अपना सम्बन्ध जोड़ लेते हैं। यह प्रयोग ऐसी ग़लती कभी नहीं करता। वह भार्गव है- भृगुपुत्र है। उसने तपस्या के द्वारा अपने जीवन का बड़ा सुन्दर परिपाक किया है [भ्रस्ज पाके] ।
यह प्रयोग अपने साथियों से कहता है कि हे (उपस्तुतासः) = उपासको! (प्रगायत)=खूब गान करो। किसका? उस प्रभु का जोकि १. (मंहिष्ठाय) २. (ऋताने) ३. (बृहते) ४. (शुक्रशोचिषे) ५. (अग्नये) = इन शब्दों से सूचित हो रहा है। यह सिद्धान्त है कि जिस रूप में हम प्रभु की उपासना करेंगे, वैसे ही बन जाएँगे, अतः हम प्रभु को निम्न पाँच रूपों में स्मरण करें|
१.( मंहिष्ठाय प्रगायत) = उस प्रभु के लिए स्तुति करो जोकि 'दातृतम' है [मंह् - दानकर्मा]। जिसने सब-कुछ जीवों के हित के लिए दिया हुआ है। प्रभु सबसे महान् दाता हैं। इतना महान् कि उनकी अपनी आवश्यकता है ही नहीं। हम भी अपनी आवश्यकताएँ न्यून और न्यून करते हुए अधिक-से-अधिक दानी बनने का प्रयत्न करें।
२. (ऋताव्ने) = ऋत = ठीक के अवन रक्षण करनेवाले प्रभु का गान करो । प्रभु की पूर्ण अधीनता में चलनेवाली प्रकृति में सब ठीक समय पर होता है। सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र ठीक समय पर प्रकट होते हैं। हम भी यथासम्भव सब कार्यों को ठीक समय पर करनेवाले बनें। विशेषत: 'सोना, जागना तथा खाना' नियत समय पर हो जिससे हम पूर्ण आयुष्य तक चल सकें।
३. (बृहते) = वे प्रभु बृहत् हैं, महान् हैं। ('अमन्तवो मां त उपक्षयन्ति') =अपने न माननेवालों को भी वे भोजनाच्छादनादि प्राप्त कराते ही हैं। हम भी महान् बनें। हमारे विशाल हृदय में ('वसुधैव कुटुम्बकम्') की भावना हो।
४.(शुक्रशोचिषे )=दीप्त ज्योतिवाले प्रभु का गान करो । प्रभु का ज्ञान निर्मल, निर्भ्रान्त और देदीप्यमान है। हम भी अपने ज्ञान को दीप्त करने के लिए सतत प्रयत्न करें। यह ज्ञान हमारे सब कर्मों को पवित्र करेगा।
५. (अग्नये)=अग्रस्थान पर स्थित प्रभु के लिए गान करो। ('तमाहुरग्रयं पुरुषं महान्तम्') = वे तो अग्रस्थान पर स्थित हैं ही, मेरे जीवन का भी प्रतिदिन यही ध्येय हो कि 'आगे' और 'आगे'। यह ध्येय ही मुझे आलस्य व मार्गभ्रंश से बचाएगा।
भावार्थ
हम दाता, ऋत का पालन करनेवाले, दीप्त ज्ञानी व आगे बढ़ने के ध्येयवाले बनें।
विषय
परमेश्वर की स्तुति
भावार्थ
भा० = ( मंहिष्टाय१ ) = सबसे अधिक दानशील ( ऋताब्ने ) = यज्ञ करने हारे, सत्यमय, ( बृहते ) = महान्, ( शुक्रशोचिषे ) = देदीप्यमान, कान्ति से युक्र ( अग्नये ) = प्रकाश स्वरूप, ज्ञानी परमेश्वर का हे ( उप स्तुतासः२ ) = हे स्तोतागण ! ( प्रगायत ) उत्तम रूप से कीर्तन करो।
टिप्पणी
१०७ - १.श्रुष्टी इति स्नात्व्याश्चेति निपातितः । वलोपरछान्दसः ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - प्रयोगो भार्गवः सौभरि: काण्व: वा ।
छन्दः - ककुप् ।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ मनुष्याः परमेश्वरस्य गुणान् गातुं प्रेर्यन्ते।
पदार्थः
हे (उपस्तुतासः) प्रशंसां प्राप्ताः जनाः ! अत्र उपस्तुत प्रातिपदिकात् सम्बुद्धौ जसि आज्जसेरसुक्।’ अ० ७।१।५० इति जसोऽसुगागमः। यूयम् (मंहिष्ठाय) दातृतमाय। अतिशयेन मंहिता मंहिष्ठः। मंहते दानकर्मा। निघं० ३।२०। ततस्तृचि तुश्छन्दसि।’ अ० ५।३।५९ इति इष्ठनि, तुरिष्ठे-मेयस्सु।’ अ० ६।४।५४ इति तृचो लोपः। (ऋताव्ने) सत्यनियमवते। ऋतशब्दाद् मत्वर्थे ‘छन्दसीवनिपौ च वक्तव्यौ।’ अ० ५।२।१०९ वा० इति वनिप्। अन्येषामपि दृश्यते।’ अ० ६।३।१३७ इति पूर्वपदस्य दीर्घान्तादेशः। (बृहते) महते, (शुक्रशोचिषे) शुक्रं दीप्तं पवित्रं वा शोचिस्तेजो यस्य तस्मै। शोचतिः ज्वलतिकर्मा। निघं० १।१६। शुचिर् पूतीभावे। तत औणादिको रन् प्रत्ययः। उ० २।२९। (अग्नये) परमेश्वराय (प्र गायत) प्रकृष्टतया स्तुतिगानम् अर्पयत ॥१॥
भावार्थः
प्रशंसितैर्जनैः परमेश्वरमुपास्य तद्वद् दानसत्यतेजस्वितापवित्रतादिगुणान् संधार्य यशस्विभिर्भाव्यम् ॥१॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ८।१०३।८, ऋषिः सोभरिः काण्वः। साम० ८७८।
इंग्लिश (2)
Meaning
Ye worshippers, ring forth to God, the Holy, most Munificent, and Sublime with His refulgent glow.
Meaning
O celebrants of divinity, sing songs of adoration in honour of adorable Agni, most generous, leader of the paths of truth, great and glorious, lord of pure light of divinity and fire of action. (Rg. 8-103-8)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (मंहिष्ठाय) અત્યાધિક દાતા , (ऋताव्ने) અમૃતવાળા - અમૃતરૂપ મોક્ષાનંદધારી , (बृहते) મહાન , (शुक्रशोचिषे) શુક્રપ્રકાશસ્વરૂપ , (अग्नये) પરમાત્માને માટે (उप स्तोतारः) સમીપ થઈને નિમગ્ન બનીને , હે સ્તુતિ કરનારાઓ ! (प्रगायत) ગુણગાન કરો , સ્તુતિ પ્રશંસા કરો.
भावार्थ
ભાવાર્થ : હે આત્મસમર્પણ ભાવથી સ્તુતિ કરનારા ઉપાસકો ! અમૃતરૂપ મોક્ષાનંદ ધારણ કરનારા , અત્યંત દાની , શુભ્ર જ્યોતિઃસ્વરૂપ , મહાન , ઇષ્ટદેવ પરમાત્માની પ્રગાઢ સ્તુતિ , ગુણગાન અને ઉપાસના કરવી જોઈએ. (૧)
उर्दू (1)
Mazmoon
اُتم ریتی سے بھگوان کا کیرتن کرو
Lafzi Maana
(اُپتُوتاسہ) ہے ٹھیک ٹھیک اُپاسنا وِدھی (طریقِ عبادت) سے ایشور کی سُتتی کرنے والو! (منگِ بشٹھائے) مہادانی (رِتاونے) اعلےٰ ترین قاعدے، قواعد، وِدھی وِدھان سے سرشٹی یگیہ کو چلانے والے (برہتے، شُکرشو چِشے اگنئے) مہان قائداعظم شُدھ، نِرمل، پاک روشنی سے منّور اگنی پرمیشور کے لئے (پرگایت) اُتم ریتی سے گان کرو، کیرتن کرو۔
Tashree
ستیہ پتی دُنیا کے والی پاک شُدھ پرمیشور کی، سام گان سے گاؤ مہما مہادانی اُس اِیشور کی۔
मराठी (2)
भावार्थ
प्रशंसित लोकांनी परमेश्वराची उपासना करावी. त्याच्याप्रमाणे दान, सत्य, तेजस्विता, पवित्रता इत्यादी गुणांना धारण करून यशस्वी व्हावे ॥१॥
विषय
पुढील मंत्रात परमेश्वराचे गुणगान करण्यासाठी मनुष्यांना प्रेरणा केली आहे -
शब्दार्थ
हे (उपस्तुवासः) प्रशंसनीय मनुष्यहो, तुम्ही (मंहिष्ठाय) सर्वश्रेष्ठ दानी तसेच (ऋताव्ने) सत्य नियमांप्रमाणे चालणाऱ्या त्या (बृहते) महान (शुक्रशोचिषे) उज्ज्वक व पवित्र तेजोमय (अग्नये) परमेश्वरासाठी (५ गायत) योग्य पद्धतीने स्तुती गीत म्हणा ।। १।।
भावार्थ
श्रेष्ठ प्रशंसनीय लोकांचे कर्तव्य आहे की त्यानी परमेश्वराची उपासना करावी आणि त्याच्याप्रमाणे दान, सत्याचरण,तेजरिवता, पावित्र्य आदी गुण धारण करून यशस्वी व्हावे. ।। १।।
तमिल (1)
Word Meaning
துதிப்பதற்கு அருகிலானவர்களே! அதிகமளிப்பவனாய், சத்தியனாய், பெரியவனாய் வெண்மையாய் (புனிதனாய்) தேஜசுள்ள அக்னிக்கு தோத்திரத்தை கானஞ் செய்யவும்.
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