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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1081
ऋषिः - अमहीयुराङ्गिरसः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
22
ए꣣त꣢मु꣣ त्यं꣢꣫ दश꣣ क्षि꣡पो꣢ मृ꣣ज꣢न्ति꣣ सि꣡न्धु꣢मातरम् । स꣡मा꣢दि꣣त्ये꣡भि꣢रख्यत ॥१०८१॥
स्वर सहित पद पाठए꣣त꣢म् । उ꣣ । त्य꣢म् । द꣡श꣢꣯ । क्षि꣡पः꣢꣯ । मृ꣣ज꣡न्ति꣢ । सि꣡न्धु꣢꣯मातरम् । सि꣡न्धु꣢꣯ । मा꣣तरम् । स꣢म् । आ꣣दित्ये꣡भिः꣢ । आ꣣ । दित्ये꣡भिः꣢ । अ꣡ख्यत ॥१०८१॥
स्वर रहित मन्त्र
एतमु त्यं दश क्षिपो मृजन्ति सिन्धुमातरम् । समादित्येभिरख्यत ॥१०८१॥
स्वर रहित पद पाठ
एतम् । उ । त्यम् । दश । क्षिपः । मृजन्ति । सिन्धुमातरम् । सिन्धु । मातरम् । सम् । आदित्येभिः । आ । दित्येभिः । अख्यत ॥१०८१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1081
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
प्रथम मन्त्र में जीवात्मा का विषय वर्णित है।
पदार्थ
(सिन्धुमातरम्) आनन्द-रस बहानेवाली जगदम्बा जिसकी माता है, ऐसे (एतम् उ त्यम्) इस उस सोम नामक जीवात्मा को (दश क्षिपः) इन्द्रियदोषों को दूर फेंकनेवाले दस प्राण (मृजन्ति) अलङ्कृत करते हैं। यह सोम जीवात्मा (आदित्येभिः) सूर्य के समान ज्ञानप्रकाश से प्रकाशित गुरुजनों से (सम् अख्यत) विद्याप्रकाश को प्राप्त करता है ॥१॥
भावार्थ
प्राणों से युक्त ही मनुष्य का आत्मा शरीर को जीवित किये रखता है और शरीर का अधिष्ठातृत्व करता है। गुरुओं के उपदेश के विना वह स्वयं ज्ञानी नहीं होता ॥१॥
पदार्थ
(उ-एतं त्यम्) निश्चय इस उस (सिन्धुमातरम्) स्यन्दनशील पृथिवी अन्तरिक्ष द्युलोक की पदार्थशक्तियों के*58 मातृरूप या निर्माता को*59 (दश क्षिपः-मृजन्ति) दश फिंकी हुईं फैली हुईं दिशाएँ प्राप्त हैं*60 वह ऐसा परमात्मा (आदित्येभिः-अख्यत) अदिति—अखण्डिता मुक्ति के साधनधर्मों शम, दम, योगाभ्यासादि के द्वारा अन्तरात्मा में दृष्ट होता है साक्षात् होता है॥१॥
टिप्पणी
[*58. जिन से सारा संसार बँधा है “तद् यदेतैरिदं सर्वं सितं तस्मात् सिन्धवः” [जै॰ १.९.२.९]।] [*59. माता निर्माता भवति “माता निर्मीयन्तेऽस्मिन् भूतानि” [निरु॰ २.८]।] [*60. “मार्ष्टि गतिकर्मा” [निघं॰ १०.१४]।]
विशेष
ऋषिः—अमहीयुः (पृथिवी को नहीं मोक्ष को चाहने वाला उपासक)॥ देवता—इन्द्राग्नी (ऐश्वर्यवान् तथा ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मा)॥ छन्दः—गायत्री॥<br>
विषय
आदित्यों के साथ
पदार्थ
(एतम्) = इस (उ) = निश्चय से (त्यम्) = उस (सिन्धुमातरम्) = सोमकणों के निर्माण करनेवाले को (दश) = दस (क्षिपः) = आयुधरूप इन्द्रयाँ [ क्षिप्= = weapon] जिनसे कि सब प्रकार का मल परे फेंक दिया गया है [क्षिप् to throw] (मृजन्ति) = शुद्ध कर डालती हैं और तब यह (आदित्येभिः) = आदित्यों के साथ (सम् अख्यत) = गिना जाता है। सूर्य जैसे देदीप्यमान है, यह भी उसी प्रकार देदीप्यमान होता है।
मन्त्रार्थ में निम्न बातें स्पष्ट हैं – १. सोमकण प्रवाह के स्वभाववाले हैं [स्यन्दन्ते] तभी तो वे सिन्धु कहलाये हैं। वे नीचे की ओर प्रवाहित न होकर अथवा अपव्ययित न होकर शरीर में ही व्याप्त होकर हमारा निर्माण करते हैं तो हम 'सिन्धुमाता' बनते हैं । २. इन्द्रियाँ ‘क्षिप्' हैं—ये जीवनसंग्राम में सफलता के लिए आयुधरूप में दी गयी हैं। ये मल को परे फेंककर चमक उठी हैं । ३. इस प्रकार सिन्धुमाता बनकर इन्द्रियरूप आयुधों को सचमुच ‘क्षिप्’ बनाएँगे तो हम आदित्यों की भाँति चमक उठेंगे। कर्मेन्द्रियाँ क्रिया के द्वारा हमारे जीवन को दीप्त बनाती हैं और ज्ञानेन्द्रियाँ ज्ञान की दीप्ति देती हैं ।
अपने जीवन को ऐसा बनानेवाला व्यक्ति ‘अमहीयु'=पार्थिव भोगों की कामना करनेवाला नहीं है। यह पार्थिव भोगों से ऊपर उठने के कारण ही 'आङ्गिरस' है।
भावार्थ
हम सोमकणों को जीवन निर्माण में लगाएँ, इन्द्रियों को मल के दूरीकरण से क्षिप् बनाएँ और आदित्यों के समान दीप्तिवाले हों ।
विषय
missing
भावार्थ
(एतम्) इस (उ त्यं) ही उस (सिन्धुमातरं) द्रवण शील प्राणों के माता अर्थात् उत्पादक या ज्ञाता आत्मा को (दश क्षिपः) बाहर फैंके गये दस गौण प्राण, इन्द्रियां (मृजन्ति) परिष्कृत करती हैं। वह (आदित्येभिः) किरणों के समान लगी ज्ञानेन्द्रियों द्वारा (सम् अख्यत) भली प्रकार देखता है। परमेश्वर के पक्ष में—उस (सिन्धुमातरं) समस्त आकाश और सागर आदि के निर्माता प्रभु को दशों दिशाएं सुशोभित करती हैं। वह सूर्य से सबको प्रकाशित करता है।
टिप्पणी
‘मृजानो वारे’, ‘वृषावचक्रदो बने’ इति ऋ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१ (१) आकृष्टामाषाः (२, ३) सिकतानिवावरी च। २, ११ कश्यपः। ३ मेधातिथिः। ४ हिरण्यस्तूपः। ५ अवत्सारः। ६ जमदग्निः। ७ कुत्सआंगिरसः। ८ वसिष्ठः। ९ त्रिशोकः काण्वः। १० श्यावाश्वः। १२ सप्तर्षयः। १३ अमहीयुः। १४ शुनःशेप आजीगर्तिः। १६ मान्धाता यौवनाश्वः। १५ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः। १७ असितः काश्यपो देवलो वा। १८ ऋणचयः शाक्तयः। १९ पर्वतनारदौ। २० मनुः सांवरणः। २१ कुत्सः। २२ बन्धुः सुबन्धुः श्रुतवन्धुविंप्रबन्धुश्च गौपायना लौपायना वा। २३ भुवन आप्त्यः साधनो वा भौवनः। २४ ऋषि रज्ञातः, प्रतीकत्रयं वा॥ देवता—१—६, ११–१३, १७–२१ पवमानः सोमः। ७, २२ अग्निः। १० इन्द्राग्नी। ९, १४, १६, इन्द्रः। १५ सोमः। ८ आदित्यः। २३ विश्वेदेवाः॥ छन्दः—१, ८ जगती। २-६, ८-११, १३, १४,१७ गायत्री। १२, १५, बृहती। १६ महापङ्क्तिः। १८ गायत्री सतोबृहती च। १९ उष्णिक्। २० अनुष्टुप्, २१, २३ त्रिष्टुप्। २२ भुरिग्बृहती। स्वरः—१, ७ निषादः। २-६, ८-११, १३, १४, १७ षड्जः। १-१५, २२ मध्यमः १६ पञ्चमः। १८ षड्जः मध्यमश्च। १९ ऋषभः। २० गान्धारः। २१, २३ धैवतः॥
संस्कृत (1)
विषयः
तत्रादौ जीवात्मविषयो वर्ण्यते।
पदार्थः
(सिन्धुमातरम्) सिन्धुः आनन्दरसस्यन्दिनी जगदम्बा माता यस्य तथाविधम् (एतम् उ त्यम्) एतं खलु तम् सोमं जीवात्मानम् (दश क्षिपः) इन्द्रियदोषाणां प्रक्षेप्तारः दश प्राणाः (मृजन्ति) अलङ्कुर्वन्ति। एष सोमः जीवात्मा (आदित्येभिः) आदित्यवद् ज्ञानप्रकाशेन प्रकाशितैः गुरुजनैः (सम् अख्यत) विद्याप्रकाशं लभते ॥१॥
भावार्थः
प्राणैः सहचरित एव मनुष्यस्यात्मा देहं जीवयति देहाधिष्ठातृत्वं च करोति। गुरूणामुपदेशं विना स स्वयमेव ज्ञानवान् न भवति ॥१॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ९।६१।७।
इंग्लिश (2)
Meaning
The ten vital life-breaths verily decorate this soul, which perceives all objects through the organs of cognition.
Translator Comment
$ Ten vital life breaths are Prana. Apana Samana, Udan, Vyana, Naga, Kurma, Krikla, Dev Dutta Dhananjaya. Organs of cognition are Gyana Indriyas . The verse may refer to God as well. In that case दशक्षिपः will mean ten directions, and आदित्य will mean the sun.
Meaning
Such as you are, O ruling soul, ten senses, ten pranas, ten subtle and gross modes of Prakrti and ten directions of space, all glorify you, mother source of all fluent streams of world energies shining with the zodiacs of the sun and all other brilliancies of nature and humanity. (Rg. 9-61-7)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (उ एतं त्यम्) નિશ્ચય એ તે (सिन्धुमातरम्) સ્યંદનશીલ પૃથિવી, અન્તરિક્ષ, દ્યુલોકની પદાર્થ શક્તિઓની માતારૂપ અર્થાત્ નિર્માતાને (दश क्षिपः मृजन्ति) દશ ફેંકેલી-ફેલાયેલી દિશાઓ પ્રાપ્ત છે તે એવો પરમાત્મા (आदित्येभिः अख्यत) અદિતિ-અખંડિત મુક્તિના સાધનો શમ, દમ, યોગાભ્યાસ આદિ દ્વારા અન્તરાત્મામાં દ્રષ્ટ થાય છે-સાક્ષાત્ થાય છે. (૧)
मराठी (1)
भावार्थ
प्राणयुक्त माणसाचा आत्मा शरीराला जीवित ठेवतो व शरीराचे अधिष्ठातृत्व करतो. गुरूंच्या उपदेशाशिवाय तो स्वत: ज्ञानी बनत नाही. ॥१॥
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