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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1085
    ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    58

    आ꣢ घ꣣ त्वा꣢वान्꣣ त्म꣡ना꣢ यु꣣क्तः꣢ स्तो꣣तृ꣡भ्यो꣢ धृष्णवीया꣣नः꣢ । ऋ꣣णो꣢꣫रक्षं꣣ न꣢ च꣣꣬क्र्योः꣢꣯ ॥१०८५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । घ꣣ । त्वा꣡वा꣢꣯न् । त्म꣡ना꣢꣯ । यु꣣क्तः꣢ । स्तो꣣तृ꣡भ्यः꣢ । धृ꣣ष्णो । ईयानः꣢ । ऋ꣣णोः꣢ । अ꣡क्ष꣢꣯म् । न । च꣣क्र्योः꣢ ॥१०८५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ घ त्वावान् त्मना युक्तः स्तोतृभ्यो धृष्णवीयानः । ऋणोरक्षं न चक्र्योः ॥१०८५॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आ । घ । त्वावान् । त्मना । युक्तः । स्तोतृभ्यः । धृष्णो । ईयानः । ऋणोः । अक्षम् । न । चक्र्योः ॥१०८५॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1085
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    अगले मन्त्र में फिर योग का ही विषय है।

    पदार्थ

    हे (धृष्णो) शत्रु को धर्षण करने के स्वभाववाले परमात्मन् ! (ईयानः) उपासकों से याचना किये हुए, (त्मना युक्तः) आत्मबल से युक्त (त्वावान्) स्वसदृश स्वयमेव आप (घ) निश्चय ही (स्तोतृभ्यः) उपासक योगियों को योगसिद्धि (ऋणोः) प्राप्त कराते हो, (चक्र्योः) दो रथचक्रों के मध्य में (अक्षं न) जैसे धुरी को रथकार प्राप्त कराता है ॥२॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥२॥

    भावार्थ

    जैसे दोनों रथ के पहियों को धुरी की कीली से जोड़ने पर ही पहियों का घूमना और रथ का आगे जाना सम्भव होता है वैसे ही योगी को योगसिद्धि होने पर ही उसका लक्ष्य के प्रति आरोहण और मोक्षलाभ सिद्ध होता है ॥२॥

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    पदार्थ

    (धृष्णो) हे काम आदि दोषों के धर्षक—धकेलनेवाले इन्द्र—ऐश्वर्यवन् परमात्मन्! (त्वावान् घ) तुझ जैसा*69 तू ही है (स्तोतृभ्यः-ईयानः) स्तुतिकर्ताओं द्वारा प्रार्थ्यमान—प्रार्थना किया जाता हुआ उनके लिए उनके साथ (त्मना युक्तः) अपने स्वरूप से युक्त हुआ (चक्र्योः-अक्षं न) रथ के पहियों में अक्ष—धुरा दण्ड के समान (आ-ऋणोः) समन्तरूप से उन्हें गति दे*70 मोक्ष की ओर ले जा॥२॥

    टिप्पणी

    [*69. “युष्मदस्मद्भ्यां छन्दसि सादृश्य उपसंख्यानम्” [अष्टा॰ ५.२.९४ वा॰] इति मतुप्।] [*70. “ऋणोति गतिकर्मा” [निघं॰ २.१४]।]

    विशेष

    <br>

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    विषय

    आध्यात्मिक जीवन

    पदार्थ

    हे (धृष्णो) = शत्रुओं का धर्षण करनेवाले प्रभो ! यह सुख-निर्माण की इच्छावाला 'शुनः शेप' (घ) = निश्चय से १. (त्वावान्) = आप-जैसा ही बना है। इसने आपके गुणों को धारण करने का प्रयत्न किया है। २. (त्मना युक्त:) = यह आत्मा से युक्त है— मनोबलवाला है। ३. (ईयान:) = यह निरन्तर क्रियाशील है, उत्तम गुणों की प्राप्ति की कामना से कर्मों में लगा हुआ है । ४. (अक्षं न चक्रयोः) = जैसे दो चक्रों में अक्ष की स्थिति होती है उसी प्रकार यह 'ज्ञान और श्रद्धा' रूप चक्रों के बीच में कर्मरूप अक्ष के समान है। इसके सब कर्म ज्ञान व श्रद्धापूर्वक किये जाते हैं। ऐसे ही व्यक्ति तो तेरे सच्चे स्तोता हैं । इन (स्तोतृभ्यः) = स्तोताओं के लिए हे प्रभो ! आप (आऋणोः) = काम-क्रोधादि वासनाओं पर आक्रमण करते हैं। आपकी कृपा से सब वासनारूप विघ्नों का नाश होकर इनकी जीवन-यात्रा ठीकरूप से पूर्ण होती है और यह स्तोता अपने घर को [गर्त – गृह – नि० ३.४] जानेवाला [अज] 'आजीगर्ति' होता है। ‘गर्त: पुरुष: ' श० ५.४.१.१५ के अनुसार गर्त का अर्थ पुरुष=परमात्मा भी है। यह परमात्मा को प्राप्त करनेवाला ‘आजीगर्ति' सच्चे सुख को प्राप्त करके 'शुन:शेप' नाम को सार्थक कर पाया है।

    भावार्थ

    १. हम प्रभु-जैसे बनें, २. आत्मबल से युक्त हों, ३. क्रियाशील बनें, ४. श्रद्धा और ज्ञानपूर्वक कर्म करें, ५. इस प्रकार प्रभु के सच्चे स्तोता हों।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनरपि योगस्यैव विषयमाह।

    पदार्थः

    हे (धृष्णो) शत्रुधर्षणशील इन्द्र परमात्मन् ! (ईयानः) उपासकैः याच्यमानः। [ईमहे इति याच्ञाकर्मसु पठितम्। निघं० ३।१९।] (त्मना युक्तः) त्मना आत्मना आत्मबलेन युक्तः। [मन्त्रेष्वाङ्यादेरात्मनः। अ० ६।४।१४१ इत्याकारलोपः।] (त्वावान्) त्वादृशः त्वमेव। [वतुप्प्रकरणे युष्मदस्मभ्यां छन्दसि सादृश्य उपसंख्यानम्। अ० ५।२।३९ इत्यत्र स्थितेन वार्तिकेन युष्मच्छब्दात् सादृश्यार्थे वतुप्।] (घ) खलु (स्तोतृभ्यः) उपासकेभ्यो योगिभ्यः, योगसिद्धिम् (ऋणोः) प्रापयसि। [ऋणोतिः गतिकर्मा। निघं० २।१४। अत्र णिगर्भः। लडर्थे लङ्, अडभावश्छान्दसः।] कथमिव ? (चक्र्योः) द्वयोः रथचक्रयोः मध्ये (अक्षं न) धुरं यथा रथकारः प्रापयति तद्वत्। [चक्रिः इत्यत्र कृञ् धातोः ‘आदृगमहनजनः।’ अ० ३।२।१७१। इत्यनेन किः प्रत्ययः] ॥२॥२ अत्रोपमालङ्कारः ॥२॥

    भावार्थः

    यथोभयो रथचक्रयोरक्षकीलकद्वारा योजनेनैव चक्रयोर्भ्रमणं रथस्याग्रे गमनं च संभवति तथैव योगिनो योगसिद्धिप्राप्त्यैव लक्ष्यारोहणं मोक्षलाभश्च सिध्यति ॥२॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० १।३०।१४, अथ० २०।१२२।२, उभयत्र ‘त्मना॒प्तः’ ‘धृष्णविया॒नः’ इति पाठः। २. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिणा मन्त्रोऽयं राजप्रजाविषये व्याख्यातः।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O soul, the subduer of lust and anger, just as the axle of the wheels of a car, takes it to distant places, so dost thou, concentrated in thyself, taking us, the praisers, to our goal, attain to salvation!

    Translator Comment

    Griffith remarks: The lines in this and the following stanza referring to the axle and the chariot are somewhat obscure and have been variously interpreted. I accept Ludwig's explanation. I see no obscurity in these verses. The sense is clear. The simile of the axle and chariot is quite apposite.

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    Meaning

    Lord of inviolable might, yourself your own definition, omniscient, instantly comprehending all that moves, you manifest your presence to the vision of your celebrants just as the one axle of two chariot wheels (moving, caring yet unmoved). (Rg. 1-30-14)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (धृष्णो) હે કામ આદિ દોષોના ધર્ષક-ધકેલનાર ઇન્દ્ર-ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મન્ ! (त्वावानघ) તારા જેવો અનુપમ-તું જ છે. (स्तोतृभ्यः ईयानः) સ્તુતિકર્તાઓ દ્વારા પ્રાર્થમાન-પ્રાર્થના કરવામાં આવતાં તેના માટે તેની સાથે (त्मना युक्तः) પોતાના સ્વરૂપથી યુક્ત થઈને (चक्र्योः अक्षं न રથના પૈડાંમાં ધરાની સમાન (आ ऋणोः) સમગ્ર રૂપથી ગતિ આપ, મોક્ષની તરફ લઈ જા. (૨)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जशी रथाची दोन चाके अक्षाच्या दांड्याला जोडल्यानंतरच चक्र फिरतात व रथ पुढे जाणे शक्य होते, तसेच योग्याला योगसिद्धी प्राप्त झाल्यावर त्याचे लक्ष्याकडे आरोहण होते व मोक्ष लाभ होतो. ॥२॥

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