Loading...

सामवेद के मन्त्र

  • सामवेद का मुख्य पृष्ठ
  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1095
    ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    25

    त्वे꣡ विश्वे꣢꣯ स꣣जो꣡ष꣢सो दे꣣वा꣡सः꣢ पी꣣ति꣡मा꣢शत । म꣡दे꣢षु सर्व꣣धा꣡ अ꣢सि ॥१०९५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वे꣡इति꣢ । वि꣡श्वे꣢꣯ । स꣣जो꣡ष꣢सः । स꣣ । जो꣡ष꣢꣯सः । दे꣣वा꣡सः꣢ । पी꣡ति꣢म् । आ꣣शत । म꣡दे꣢꣯षु । स꣣र्व꣢धाः । स꣣र्व । धाः꣢ । अ꣣सि ॥१०९५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वे विश्वे सजोषसो देवासः पीतिमाशत । मदेषु सर्वधा असि ॥१०९५॥


    स्वर रहित पद पाठ

    त्वेइति । विश्वे । सजोषसः । स । जोषसः । देवासः । पीतिम् । आशत । मदेषु । सर्वधाः । सर्व । धाः । असि ॥१०९५॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1095
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 6; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में फिर उसी विषय को कहा गया है।

    पदार्थ

    हे सोम अर्थात् ज्ञानरसागार आचार्य ! (विश्वे) सब (सजोषसः) परस्पर समान प्रीतिवाले (देवासः) दिव्यगुणयुक्त ब्रह्मचारी शिष्य (त्वे) आपसे (प्रतिम्) ज्ञानरस के पान को (आशत) प्राप्त करते हैं। आप (मदेषु) ज्ञानजनित आनन्दों में (सर्वधाः) सब शिष्यों को धारण करनेवाले (असि) होते हो ॥३॥

    भावार्थ

    जो शिष्य तपस्वी, ज्ञानानुरागी, गुरुओं का सत्कार करनेवाले और अहिंसा, सत्य, अस्तेय आदि दिव्य गुणों से युक्त होते हैं, वे ही आचार्य के पास से ज्ञान ग्रहण करने के अधिकारी और उसके प्रीतिपात्र बनते हैं ॥३॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    पदार्थ

    (विश्वे देवासः सजोषसः) सारे मुमुक्षु विद्वान् तुझ से समान प्रीति रखने वाले (त्वे पीतिम्-आशत) तेरे आधार पर अमृतपान का स्वाद लेते हैं। (मदेसु...) आगे पूर्ववत्॥३॥

    विशेष

    <br>

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    प्रीतिपूर्वक कार्यों में लगे रहना

    पदार्थ

    हे सोम! (सजोषसः) = समानरूप से मिलकर, प्रीतिपूर्वक कर्म करनेवाले [जुषी प्रीतिसेवनयोः] (विश्वे) = सब (देवास:) = देव लोग (त्वे) = [तव] तेरे (पीतिम् आशत) = पान को प्राप्त करते हैं, अर्थात् सोम की रक्षा के लिए शान्ति आवश्यक है। क्रोधी स्वभाव हमें सोमपान के योग्य नहीं बनाता। ब्रह्मचारी के लिए इसी दृष्टिकोण से क्रोधादि के परित्याग का विधान है । शान्तिपूर्वक प्रेम से कर्मों में लगे रहना ही सोमरक्षा का सर्वोत्तम साधन है। किसी भी प्रकार की उत्तेजना व आलस्य सोम विनाश का कारण बनता है—अतः ‘सजोषस्’ बनना- प्रीतिपूर्वक कार्यों में लगे रहना ही सोम को अपने में व्याप्त करने का साधन है ।

    हे सोम! तू (मदेषु) = हर्षों में (सर्वधाः असि) = सबका धारण करनेवाला है। सोमरक्षा से हम उल्लासमय जीवनवाले होते हैं और उस उल्लास में सबका धारण करनेवाले बनते हैं। 

    भावार्थ

    हम सदा प्रीतिपूर्वक कार्यों में लगे रहकर सोम का पान करनेवाले हों ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    missing

    भावार्थ

    (त्वं)(विश्वे) समस्त (सजोषसः) समान रूप से आपको प्रेम करने हारे (देवासः) विद्वान् लोग (पीतिम्) आपके रसास्वादन का आनन्द (आशत) प्राप्त करते हैं और (मदेषु) सब आनन्दों में आप ही सबको धारण करने हारे हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ (१) आकृष्टामाषाः (२, ३) सिकतानिवावरी च। २, ११ कश्यपः। ३ मेधातिथिः। ४ हिरण्यस्तूपः। ५ अवत्सारः। ६ जमदग्निः। ७ कुत्सआंगिरसः। ८ वसिष्ठः। ९ त्रिशोकः काण्वः। १० श्यावाश्वः। १२ सप्तर्षयः। १३ अमहीयुः। १४ शुनःशेप आजीगर्तिः। १६ मान्धाता यौवनाश्वः। १५ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः। १७ असितः काश्यपो देवलो वा। १८ ऋणचयः शाक्तयः। १९ पर्वतनारदौ। २० मनुः सांवरणः। २१ कुत्सः। २२ बन्धुः सुबन्धुः श्रुतवन्धुविंप्रबन्धुश्च गौपायना लौपायना वा। २३ भुवन आप्त्यः साधनो वा भौवनः। २४ ऋषि रज्ञातः, प्रतीकत्रयं वा॥ देवता—१—६, ११–१३, १७–२१ पवमानः सोमः। ७, २२ अग्निः। १० इन्द्राग्नी। ९, १४, १६, इन्द्रः। १५ सोमः। ८ आदित्यः। २३ विश्वेदेवाः॥ छन्दः—१, ८ जगती। २-६, ८-११, १३, १४,१७ गायत्री। १२, १५, बृहती। १६ महापङ्क्तिः। १८ गायत्री सतोबृहती च। १९ उष्णिक्। २० अनुष्टुप्, २१, २३ त्रिष्टुप्। २२ भुरिग्बृहती। स्वरः—१, ७ निषादः। २-६, ८-११, १३, १४, १७ षड्जः। १-१५, २२ मध्यमः १६ पञ्चमः। १८ षड्जः मध्यमश्च। १९ ऋषभः। २० गान्धारः। २१, २३ धैवतः॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनरपि स एव विषय उच्यते।

    पदार्थः

    हे सोम ज्ञानरसागार आचार्य ! (विश्वे) सर्वे (सजोषसः) सप्रीतयः (देवासः) दिव्यगुणयुक्ता ब्रह्मचारिणः शिष्याः (त्वे) त्वत्तः (पीतिम्) ज्ञानरसपानम् (आशत) प्राप्नुवन्ति। त्वम् (मदेषु) ज्ञानजनितेषु आनन्देषु (सर्वधाः) सर्वेषां शिष्याणां धारकः (असि) भवसि ॥३॥

    भावार्थः

    ये शिष्यास्तपस्विनो ज्ञानानुरागिणो गुरूणां सत्कर्तारोऽहिंसासत्यास्तेयादि- दिव्यगुणयुक्ताश्च भवन्ति त एवाचार्यसकाशाज्ज्ञानग्रहणाधिकारिण- स्तत्प्रीतिपात्राणि च जायन्ते ॥३॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।१८।३, ‘त्वे’ इत्यत्र ‘तव॒’ इति पाठः।

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O God, all learned lovers of Thine, enjoy me juice of Thy felicity. Thou keepest all absorbed in joys !

    इस भाष्य को एडिट करें

    Meaning

    All divinities of nature and humanity in love and faith with you yearn to drink of the divine nectar and they are blest with it. You are the sole sustainer of all in bliss divine. (Rg. 9-18-3)

    इस भाष्य को एडिट करें

    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (विश्वे देवासः सजोषसः) સમસ્ત મુમુક્ષુ વિદ્વાન તારી સમાન પ્રીતિ રાખનારા (त्वे पीतिम् आशत) તારા આધારથી અમૃત પાનનો સ્વાદ લે છે. (मदेषु सर्वधा असि) હર્ષ-આનંદ આપનારમાં-આપનારનો સર્વધારક આધાર છે. (३)
     

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे शिष्य तपस्वी, ज्ञानानुरागी, गुरूंचा सत्कार करणारे व अहिंसा, सत्य, अस्तेय इत्यादी दिव्य गुणांनी युक्त असतात, तेच आचार्याकडून ज्ञान ग्रहण करण्याचे अधिकारी व त्याचे प्रेमपात्र बनतात. ॥३॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top