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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 110
    ऋषिः - प्रयोगो भार्गवः सौभरि: काण्वो वा देवता - अग्निः छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
    124

    मा꣡ नो꣢ हृणीथा꣣ अ꣡ति꣢थिं꣣ व꣡सु꣢र꣣ग्निः꣡ पु꣢रुप्रश꣣स्त꣢ ए꣣षः꣢ । यः꣢ सु꣣हो꣡ता꣢ स्वध्व꣣रः꣢ ॥११०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा꣢ । नः꣣ । हृणीथाः । अ꣡ति꣢꣯थिम् । व꣡सुः꣢ । अ꣣ग्निः꣢ । पु꣣रुप्रशस्तः꣢ । पु꣣रु । प्रशस्तः꣢ । ए꣣षः꣢ । यः । सु꣣हो꣡ता꣢ । सु꣣ । हो꣡ता꣢꣯ । स्व꣣ध्वरः꣢ । सु꣣ । अध्वरः꣢ ॥११०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मा नो हृणीथा अतिथिं वसुरग्निः पुरुप्रशस्त एषः । यः सुहोता स्वध्वरः ॥११०॥


    स्वर रहित पद पाठ

    मा । नः । हृणीथाः । अतिथिम् । वसुः । अग्निः । पुरुप्रशस्तः । पुरु । प्रशस्तः । एषः । यः । सुहोता । सु । होता । स्वध्वरः । सु । अध्वरः ॥११०॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 110
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 4
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 12;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में परमात्मा की पूजा और अतिथि के सत्कार का विषय है।

    पदार्थ

    प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हे भाई ! तू (नः) हम सबके (अतिथिम्) अतिथिरूप, अतिथि के समान पूज्य अग्नि नामक परमात्मा को (मा हृणीथाः) उपेक्षा या वेदविरुद्ध आचरण से क्रुद्ध मत कर। (एषः) यह (वसुः) निवासक (अग्निः) तेजस्वी, अग्रनायक परमात्मा (पुरुप्रशस्तः) बहुतों से स्तुति किया गया है, (यः) जो (सुहोता) उत्तम दाता, और (स्वध्वरः) शुभ रूप से हमारे जीवन-यज्ञ का संचालक है ॥ द्वितीय—अतिथि के पक्ष में। हे गृहिणी ! तू (नः) हमारे (अतिथिम्) अतिथिरूप, आचार्य, उपदेशक, संन्यासी आदि को (मा हृणीथाः) यथायोग्य सत्कार न करके रुष्ट मत कर। (एषः) यह (अग्निः) धर्म, विद्या आदि के प्रकाश से प्रकाशित अतिथि (वसुः) गृहस्थों का निवास-दाता, और (पुरुप्रशस्तः) अतिथि-सत्कार को यज्ञ घोषित करनेवाले बहुत से वेदादि शास्त्रों से प्रशंसित है, (यः) जो विद्वान् अतिथि (सुहोता) सदुपदेष्टा, और (स्वध्वरः) श्रेष्ठ विद्याप्रचार रूप यज्ञवाला है ॥४॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥४॥

    भावार्थ

    जैसे उत्तम प्रकार पूजा किया गया परमेश्वर पूजा करनेवाले को सद्गुण आदि की सम्पत्ति देकर उसका कल्याण करता है, वैसे ही भली-भाँति सत्कार किया गया अतिथि आशीर्वाद, सदुपदेश आदि देकर गृहस्थ का उपकार करता है। इसलिए परमेश्वर की उपासना में और अतिथि के सत्कार में कभी प्रमाद नहीं करना चाहिए ॥४॥

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    पदार्थ

    (यः) जो (एषः) यह (पुरुप्रशस्तः) बहुत प्रकार से प्रशंसनीय (सुहोता) हमें अच्छा अपनाने वाला (स्वध्वरः) हमारे अध्यात्म यज्ञ का परम इष्टदेव (वसुः) हृदय घर में बसाने वाला स्वयं भी बसने वाला (अग्निः) ज्योतिःस्वरूप परमात्मा है (अतिथिम्) उस ऐसे अतिथि—सत्कारयोग्य एवं सदा अतनशील रक्षकरूप प्राप्तस्वभाव वाले परमात्मा के प्रति (नः) हमारे में से कोई भी हे मनुष्य! (मा हृणीथाः) रोष-अनादर या लज्जा न प्रदर्शित करे। “हृणीङ् रोषणे लज्जायां च” [कण्ड्वादि॰]।

    भावार्थ

    जो परमात्मा अनेक प्रकार से प्रशंसनीय, हमें अच्छा अपनाने वाला अध्यात्म यज्ञ का इष्टदेव हृदय में वसने वसाने वाला है उस ऐसे सत्करणीय रक्षणार्थ सदा साथ रहने वाले के प्रति हम लोगों में कोई भी जन पारिवारिक या सामाजिक या राष्ट्रिय सदस्य अनादरभाव नास्तिकपन या अपनी लज्जा को न प्रदर्शित करें, दुःख या मनोवैपरीत्य—मनोविकार के दूरी करणार्थ प्रार्थना करें, उस पर क्रोध करें उसका अनादर करें या उससे कुछ दुःख वेदना को कहने में लज्जा करें तो कौन हमारा भला करेगा॥४॥

    विशेष

    ऋषिः—भार्गवः प्रयोगः, सौभरिः कण्वो वा (अग्नि-विद्या में कुशल प्रयोक्ता या परमात्माग्नि को अपने अन्दर भरण धारण करने में कुशल मेधावीजन)॥<br>

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    विषय

    हम अतिथि को क्रुद्ध न करें

    पदार्थ

    प्रभु अतिथि हैं। १. अतिथि की भाँति हमें प्रभु के दर्शन कभी-कभी होते हैं। २. वे हमें स्वर्ग प्राप्त करानेवाले हैं। ३. अतिथि की भाँति वे कहीं भी रम नहीं जाते। प्रभु अरति हैं। ४. वे सभी के हित के लिए सदा क्रियाशील हैं [अत् सातत्यगमने]। (अतिथिम्) = अतिथि प्रभु को (नः) = हमारे लिए (मा) = मत (हृणीथाः) = क्रुद्ध करो। हमारा सारा प्रयत्न ऐसा हो कि हम इस अतिथि की ठीक आराधना कर पाएँ - हमारा व्यवहार उसे अप्रसन्न करनेवाला न हो। हमें चाहिए कि जैसे वे प्रभु 'वसु, अग्नि, पुरु, प्रशस्त, सुहोता और स्वध्वर' हैं, हम भी उसी प्रकार वसु आदि बनने का प्रयत्न करें

    १. (वसुः)=[वासयति] बसानेवाला है। प्रभु सबके बसानेवाले हैं, हमारे प्रयत्न भी इसी दिशा में हों। हम औरों के उजाड़नेवाले न बनें।

    २. (अग्नि:)=[अग्रे नी:] प्रभु स्वयं सर्वोच्च स्थान में स्थित [परमेष्ठी] होते हुए सब जीवों को आगे और आगे चलने की प्रेरणा दे रहे हैं। हम भी अपने जीवन को ऊँचा बनाकर औरों की उन्नति में सहायक हों।

    ३. (पुरु-प्रशस्त:)=प्रभु 'पुरु' हैं [पृ-पालनपूरणयो:] सबके पालक व पूरक हैं- कमियों को दूर करनेवाले हैं, अतएव 'प्रशस्त' प्रशंसा योग्य हैं। हमारा जीवन भी पालक व पूरक बनकर प्रशस्त [admirable] हो ।

    ४. हम किस प्रभु को क्रुद्ध न करें? (यः)=जो (सुहोता) = उत्तम दाता हैं [हु दाने] । प्रभु की अपनी आवश्यकताएँ शून्य हैं, अतः वे खूब देनेवाले हैं—देने-ही- देनेवाले हैं। हम भी अपनी आवश्यकताओं को कम और कम करते हुए अपनी देने की क्षमता को बढ़ाएँ, सदा दानपूर्वक अदन [भक्षण] करनेवाले बनें। दें, और बचे हुए यज्ञशेष को खाएँ। यज्ञशेष ही अमृत है। यही ‘त्यक्तेन भुञ्जीथाः' का पाठ है।

    ५. (स्वध्वरः) = [सु अध्वर, ध्वृ हिंसायाम् ] वे प्रभु सर्वोत्तम अहिंसक हैं। हमारा जीवन का व्यवहार ऐसा हो कि वह औरों की किसी प्रकार की हिंसा व हानि करनेवाला न हो। अहिंसा परमधर्म है। शक्ति की परख निर्माण में है, हिंसा शक्ति की सूचक नहीं।

    इन वसु आदि गुणों का अपने साथ उत्तम मेल करनेवाले - प्रकृष्ट योग= सम्बन्ध करनेवाले ही इस मन्त्र के ऋषि 'प्रयोग' हुआ करते हैं। यह सब तपस्या से साध्य है, अतः यह प्रयोग 'भार्गव'– भृगु = तपस्वी [भ्रस्ज पाके] का पुत्र है - खूब तपस्वी है, इस मार्ग पर चलनेवाला 'सोभरि' = उत्तम पालन करनेवाला है। यही 'काण्व'- मेधावी है। 

    भावार्थ

    मनुष्य वसु आदि गुणों से सम्पन्न बनकर उस प्रभु की आराधना करे ।

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    विषय

    परमेश्वर की स्तुति

    भावार्थ

    भा० = हे मनुष्य ! ( नः ) = हमारे ( अतिथिं ) = अतिथि के समान पूजनीय देव के प्रति ( मा हृणीथा: ) = क्रोध या अनादर मत कर । ( एष: ) = यह ( पुरुप्रशस्तः ) = बहुत उत्तम प्रशंसा और आदर करने योग्य है। वह ( वसुः ) = वास देने योग्य सबके भीतर बसने वाला और सबको बसाने वाला ( अग्निः ) = अग्नि के समान ज्ञान रूप प्रकाश से सम्पन्न है । ( यः ) = जो ( सुहोता ) = उत्तम पदार्थों का दाता और प्रतिगृहीता और ( स्वध्वरः ) = उत्तम हिंसा राहत कार्यों का अनुष्ठाता पालक है । 
     

    टिप्पणी

    ११० - " मा नो हृणीतामतिथिर्वसु" इति ऋ०।१.  मा हृणीथाः मा क्रोत्सीः इति । मा० वि० । ह्वणि: क्रुध्यतिकर्मा । नि० २। १२ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः- प्रयोगो भार्गवः सौभरि: काण्व:  वा ।

    छन्दः - ककुप् । 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमात्मपूजाऽतिथिसत्कारविषयमाह।

    पदार्थः

    प्रथमः—परमात्मपरः। हे मातः ! त्वम् (नः) अस्माकम् (अतिथिम्) अतिथिभूतम् अतिथिवत् पूज्यम् अग्निं परमात्मानम् (मा हृणीथाः) अवज्ञानेन वेदविरुद्धाचरणेन वा न कोपयस्व। हृणीयते क्रुध्यतिकर्मा। निघं० २।१२। हृणीङ् रोषणे लज्जायां च। (एषः२) अयम् (वसुः) निवासकः (अग्निः) तेजस्वी अग्रनायकः परमात्मा (पुरुप्रशस्तः) बहुभिः कीर्तितः विद्यते इति शेषः। पुरु इति बहुनाम। निघं० ३।१। शंसु स्तुतौ। (यः) परमात्मा (सुहोता) शोभनः दाता, (स्वध्वरः) सुष्ठुतयाऽस्माकं जीवनयज्ञस्य सञ्चालकश्च वर्तते। शोभनः अध्वरः जीवनयज्ञः यस्मात् स स्वध्वरः। अथ द्वितीयः—अतिथिपरः। हे गृहिणि ! त्वम् (नः) अस्माकम् (अतिथिम्) अभ्यागतम् आचार्योपदेशकसंन्यासिप्रभृतिम् (मा हृणीथाः) यथायोग्यसत्काराकरणेन रुष्टं मा कार्षीः। (एषः) अयम् (अग्निः) धर्मविद्यादिप्रकाशेन प्रकाशितः अतिथिः (वसुः) गृहस्थानां निवासकः, (पुरुप्रशस्तः) पुरुभिः बहुभिः अतिथिपूजां यज्ञं घोषयद्भिः (वेदादिशास्त्रैः३) प्रशस्तः कृतप्रशंसश्च वर्तते, (यः) विद्वान् अतिथिः (सुहोता) सदुपदेष्टा, (स्वध्वरः) श्रेष्ठः अध्वरः विद्याप्रचाररूपो यज्ञो यस्य तादृशश्च वर्तते ॥४॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥४॥

    भावार्थः

    यथा सुपूजितः परमेश्वरः पूजकाय सद्गुणादिसम्पत्तिं प्रदाय तत्कल्याणं करोति, तथैव सुसत्कृतोऽतिथिराशीर्वाद-सदुपदेशादि-प्रदानेन गृहस्थमुपकरोति। अतः परमेश्वरोपासनेऽतिथिसत्कारे च कदापि प्रमादो न विधेयः ॥४॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ८।१०३।१२, ऋषिः सोभरिः काण्वः। प्रथमे पादे मा नो हृणीतामतिथिर् इति पाठः। २. एषः, एषृ गतौ इत्यस्यैतद् रूपम्, गन्ता—इति वि०। भरतसायणयोर्मते तु एषः इति एतदः एव रूपम्। ३. अतिथियज्ञविषये द्रष्टव्यम्। अथ० ९।६, १५।१०-१३।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Be not angry with God, Who is worthy of respect by us a guest. He deserves fall praise. He dwells in all and is full of brilliance like fire. He is the Bestower of nice objects and the Guardian of non-violent deeds.

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    Meaning

    May this Agni, welcome as a venerable visitor, shelter home of the world, universally adored who is the noble giver and generous high priest of cosmic yajna, never feel displeased with us, may the lord give us fulfilment. (Rg. 8-103-12)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (यः) જે (एषः)(पुरुप्रशस्तः) અનેક રીતે પ્રશંસનીય (सुहोता) અમને સારી રીતે અપનાવનાર (स्वध्वरः) અમારા અધ્યાત્મયજ્ઞનો પરમ ઈષ્ટદેવ (वसुः) હૃદયઘરમાં વસાવનાર સ્વયં પણ વસનાર (अग्निः) જ્યોતિસ્વરૂપ પરમાત્મા છે ; (अतिथिम्) તે એવા અતિથિ - સત્કાર યોગ્ય સદા અતનશીલ = શરીર રહિત રક્ષકરૂપ પ્રાપ્ત સ્વભાવવાળા પરમાત્મા પ્રત્યે (नः) અમારામાંથી કોઈપણ હે મનુષ્ય ! (मा हृणीथाः) રોષ - અનાદર અથવા શરમ પ્રદર્શિત કરે નહિ. (૪)

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : જે પરમાત્મા અનેક પ્રકારથી પ્રશંસનીય , અમને સારી રીતે અપનાવનાર , અધ્યાત્મયજ્ઞનો ઈષ્ટદેવ હૃદયમાં વસવા અને વસાવનાર છે ; તે એવા સત્કાર કરવા યોગ્ય , રક્ષણ માટે સદા સાથે રહેનારના પ્રત્યે અમારામાંથી કોઈપણ મનુષ્ય પારિવારિક અથવા સામાજિક અથવા રાષ્ટ્રીય સદસ્ય અનાદર ભાવ , નાસ્તિકતા અથવા પોતાની શરમને પ્રદર્શિત ન કરે , દુઃખ અથવા મનથી વિપરીત - મનોવિકારને દૂર કરવા પ્રાર્થના કરે , તેના પર ક્રોધ કરવો , તેનો અનાદર કરવો અથવા તેને દુઃખ - વેદના કહેવામાં શરમ અનુભવવી તો કોણ અમારું ભલું કરશે ?

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    بھگوان کہیں رُوٹھ نہ جائے

    Lafzi Maana

    ہے منشیو! (نہ) ہمارے لئے جو اگنی پُوجا کے یوگیہ اتتھی قابلِ صد احترام مہمان ہے، اُس کو تم (ماہرنی تھا) اپنے سے دُور مت کرو، اپنے انادر بھاو سے اُسے رُوٹھنے نہ دو۔ اُس کی تعظیم و تکریم اپنے دِلوں میں بنائے رکھو (ایشہ) یہ پُوجیہ پرمیشور (وسُو) ہم سب کو بنانے والا اور (پُروُپرشستہ) بہتوں سے پُوجا گیا (سُوہوتا) بڑا آتم داتا ہے، جو ہر گھڑی دیتا دیتا ہی رہتا ہے۔ پھر (سوُدھورا) اُتم مارگوں کا دِکھلانے والا ہم سب کا رہنما ہے۔

    Tashree

    جو واس دیو ہے سب کا کہیں وہ نہ روُٹھ جائے تُم سے، جو دیتا دیتے نہیں تھکتا بھگتی بنائے رکھنا اُس سے۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जसा उत्तम प्रकारे पूजलेला परमेश्वर पूजकाला सद्गुण इत्यादी संपत्ती देऊन त्याचे कल्याण करतो, तसेच चांगल्या प्रकारे सत्कार केला गेलेला अतिथी आशीर्वाद, सदुपदेश इत्यादी देऊन गृहस्थावर उपकार करतो. यासाठी परमेश्वराच्या उपासनेत व अतिथीच्या सत्कारात कधीही प्रमाद करता कामा नये. ॥४॥

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    विषय

    परमेश्वर पूजन व अतिथि सत्काराविषयी सांगितले आहे -

    शब्दार्थ

    प्रथम अर्थ (परमेश्वर परक) - हे बुध, (ना अरे माझ्या मित्रा) (मः) आम्हा सर्वांसाठी जो (अतिथिम्) अतिथिसम पूजनीय असा अग्नीनाम परमात्मा आहे. त्याची तू (मा हृणीयाः) उपेक्षा करू नकोस अथवा आपल्या वेदविरुद्ध आचरणामुळे त्याला क्रोधित करू नकोस. (सृषः) हा (वसुः) निवासक (अग्निः) तेजस्वी, अग्रनायक परमेश्वर (पुरुप्रशस्तः) अनेक जनांद्वारे स्तुत्य वा वंदित आहे (अनेकांनी त्याची स्तुती केली आहे) (यः) तोच (सुहोता) सर्वोत्कृष्ट दानी सून (स्वध्वरः) आमच्या या जीवन यज्ञाचा शुभ संचालक आहे. ।। द्वितीय अर्थ - (अतिथीपरक) - हे गृहिणी, तू (नः) घरी आलेल्या अतिथिरूप आचार्याची, उपदेशकाची वा संन्यासी आदींची उपेक्षा करून वा त्यांचा यथोचित सत्कार न करून (र्माहृणीभाः) त्यांना रूष्ट करू नकोस. (एषः) हा ( गनिः) धर्म, विद्या आदींच्या प्रकाशाने प्रकाशित अतिथी (वसुः) गृहस्थांना निवास देणारा आणि (पुरुप्रशस्तः) अनेक वेदायी शास्त्रांमध्ये अतिथी - सत्काराला यज्ञ म्हटले आहे. अशा प्रकारे हा अतिथी तुझ्यासाठी प्रशंसनीय आहे. (या) हाच विद्वान अतिथी (सुहोता) तुला सदुपदेश देणारा आणि (स्वधवरः) श्रेष्ठ विद्या प्रसार रूप यज्ञाचा प्रचारक आहे. ।। ४।।

    भावार्थ

    जसे उत्तम प्रकारे पूजित परमेस्वर पूजकाला सद्वुण आदी रूपाची संपत्ती देऊन त्याचे कल्याण करतो, तसेच यथोचित प्रकारे सत्कार प्राप्त केलेला अतिथी आशीर्वाद, सदुपदेश आदी देऊन गृहस्थी जनांचे कल्याण करतो. याकरिता परमेश्वराच्या उपासनेत आणि अतिथी सत्कारात गृहस्थाने कधीही प्रमाद करू नये. ।। ४।।

    विशेष

    या मंज्ञात श्लेषालंकार आहे. ।। ४।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    நம்முடைய அதிதியான அக்னியை கோபிக்க வேண்டாம். அவன் சிறந்த ஹோதாவாகும். சுபமான யக்ஞன். பலர் துதிகளோடு அவன் வசிக்கும் நிலயமாகிறான்.

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