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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1126
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
22
ना꣢भा꣣ ना꣡भिं꣢ न꣣ आ꣡ द꣢दे꣣ च꣡क्षु꣢षा꣣ सू꣡र्यं꣢ दृ꣣शे꣢ । क꣣वे꣡रप꣢꣯त्य꣣मा꣡ दु꣢हे ॥११२६॥
स्वर सहित पद पाठना꣡भा꣢꣯ । ना꣡भि꣢꣯म् । नः꣣ । आ꣢ । द꣣दे । च꣡क्षु꣢꣯षा । सू꣡र्य꣢꣯म् । दृ꣡शे꣢ । क꣣वेः꣢ । अ꣡प꣢꣯त्यम् । आ । दु꣣हे ॥११२६॥
स्वर रहित मन्त्र
नाभा नाभिं न आ ददे चक्षुषा सूर्यं दृशे । कवेरपत्यमा दुहे ॥११२६॥
स्वर रहित पद पाठ
नाभा । नाभिम् । नः । आ । ददे । चक्षुषा । सूर्यम् । दृशे । कवेः । अपत्यम् । आ । दुहे ॥११२६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1126
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 11
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 8; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 11
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 11
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 8; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 11
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में गुरु के बताये मार्ग द्वारा परमात्मा के साक्षात्कार का वर्णन है।
पदार्थ
मैं गुरु द्वारा निर्दिष्ट उपाय से (नाभा) केन्द्रभूत अन्तरात्मा में (नः) अपने (नाभिम्) केन्द्रभूत परमात्मा को (आ ददे) ग्रहण करता हूँ, (चक्षुषा) अन्दर की आँख से ((सूर्यम्) सूर्यसम प्रभावान् उस परमात्मा को (दृशे) देखने के लिए समर्थ होता हूँ। (कवेः) कवि सोम परमात्मा की (अपत्यम्) सन्तान वेदकाव्य को (आ दुहे) दुहता हूँ ॥११॥
भावार्थ
आचार्य द्वारा वेद दुहने की कला को सीखकर जो वेदार्थों को दुहते हैं और वेदप्रतिपाद्य परमेश्वर की आराधना करते हैं, उनका जीवन सफल हो जाता है ॥११॥
पदार्थ
(नाभिं नः-नाभा-आददे) विश्व को अपने साथ बाँधने वाले*30 विश्वकेन्द्रभूत तथा विश्व के मध्यरूप*31 सोम शान्तस्वरूप परमात्मा को हमारे—अपने मध्य में—अन्दर ग्रहण करें अपनावें या आधान करें*32 (चक्षुषा सूर्यम्-आदृशे) पुनः ज्ञाननेत्र से सरणशील सर्वत्र व्यापनशील सोम—शान्त परमात्मा को समन्तात् देख सकूँ साक्षात् कर सकूँ (कवेः-अपत्यम्-आदुहे) स्तुतिकर्ता उपासक के न गिरानेवाले*33—रक्षक सोम—परमात्मा को समन्तरूप से दुह लूँ—अपने अन्दर समा लूँ या क्रान्तदर्शी परमात्मा के अपत्यरूप—उससे प्रादुर्भूत आनन्दरस को दुह लूँ॥११॥
टिप्पणी
[*30. “नाभिः सन्नहनात्” [निरु॰ ४.२१]।] [*31. “मध्यं वै नाभिः” [श॰ १.१.२.२]।] [*32. “दण्डो ददतेर्धारयतिकर्मणः” [निरु॰ २.२]।] [*33. “अपत्यं नानेन पततीति” [निरु॰ ३.१]।]
विशेष
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विषय
कवि के अपत्य का दोहन
पदार्थ
१. ब्रह्माण्ड के सारे पदार्थ उस प्रभु में इसी प्रकार पिरोये हुए हैं जैसे सूत्र में मणिगण । इसी से उस प्रभु को ‘नाभि’ कहा गया है— उस प्रभु ने सारे लोकों को अपने में बाँधा हुआ है [नह बन्धने] । (नः नाभिम्) = हम सबको अपने में बाँधनेवाले उस बन्धुभूत प्रभु को (नाभा) = अपने शरीर के केन्द्रभूत हृदय में (आददे) = ग्रहण करता हूँ । हृदय में सब नाड़ियाँ केन्द्रित हैं, अतः वह नाभिस्थान है । २. (चक्षुषा) = ज्ञानचक्षु से (सूर्यम्) = सारे ब्रह्माण्ड को गति देनेवाले उस प्रभु को (दृशे) = देखने के लिए मैं (कवेः) = उस अजरामर कवि परमात्मा के (अपत्यम्) = सन्तानरूप इस वेदकाव्य को (आदुहे) = अपने में पूर्णरूप से दूहता हूँ, अर्थात् वेदज्ञान को प्राप्त करने का प्रयत्न करता हूँ । प्रभु की रचना होने से वेद प्रभु का पुत्र-सा है। उसके अध्ययन से मेरी बुद्धि शुद्ध होती है [बुद्धिर्ज्ञानेन शुध्यति] और मैं अपने ज्ञानचक्षुओं से प्रभु का दर्शन कर पाता हूँ, इसीलिए उसका हृदय में चिन्तन भी करता हूँ [नाभौ आददे]।
एवं, प्रभु-दर्शन के दो ही उपाय हैं—१. वेद के दोहन से मस्तिष्क का विकास, २. हृदय में प्रभु का चिन्तन । इस प्रकार मस्तिष्क और हृदयरूप अग्नियों को मिलाकर ही हम प्रभुरूप अग्नि का दर्शन कर पाएँगे।
भावार्थ
हम हृदय में प्रभु का चिन्तन करें - मस्तिष्क को वेदज्ञान से पूर्ण करें, तभी प्रभु का दर्शन कर पाएँगे ।
विषय
missing
भावार्थ
(नाभिं) सबको केन्द्ररूप होकर बांधने हारे आत्मा को (नः) हम (नाभा) अपने शरीर के केन्द्र, या मुख्य बन्धनस्थान अपने मन में (आददे) धारण करें जिससे (चक्षुषा) ज्ञान चक्षु से हम (सूर्यं) सर्वप्रेरक प्रकाशक आदित्यरूप परमात्मा का (दृशे) दर्शन करें। (कवेः) क्रान्तदर्शी, मेधावी के (अपत्यं) अविनाशी, अपने आश्रित को नीचे न गिरने देने वाले ध्रुव स्वरूप परमात्मा के (आदुहे) आनन्द रस का ग्रहण करें।
टिप्पणी
अपत्यं कस्मादपततं भवति, न अनेन पतति इति (निरु० ३। १। १) ‘चक्षुश्चित्सूर्ये सचा’।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१ वृषगणो वासिष्ठः। २ असितः काश्यपो देवलो वा। ११ भृगुर्वारुणिर्जमदग्निः। ८ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। ४ यजत आत्रेयः। ५ मधुच्छन्दो वैश्वामित्रः। ७ सिकता निवावरी। ८ पुरुहन्मा। ९ पर्वतानारदौ शिखण्डिन्यौ काश्यप्यावप्सरसौ। १० अग्नयो धिष्ण्याः। २२ वत्सः काण्वः। नृमेधः। १४ अत्रिः॥ देवता—१, २, ७, ९, १० पवमानः सोमः। ४ मित्रावरुणौ। ५, ८, १३, १४ इन्द्रः। ६ इन्द्राग्नी। १२ अग्निः॥ छन्द:—१, ३ त्रिष्टुप्। २, ४, ५, ६, ११, १२ गायत्री। ७ जगती। ८ प्रागाथः। ९ उष्णिक्। १० द्विपदा विराट्। १३ ककुप्, पुर उष्णिक्। १४ अनुष्टुप्। स्वरः—१-३ धैवतः। २, ४, ५, ६, १२ षड्ज:। ७ निषादः। १० मध्यमः। ११ ऋषभः। १४ गान्धारः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ गुरुप्रोक्तेन मार्गेण परमात्मसाक्षात्कारमाह।
पदार्थः
अहम् गुरुणा निर्दिष्टेन उपायेन (नाभा) नाभौ केन्द्रभूते अन्तरात्मनि। [सुपां सुलुक्०। अ० ७।१।३९। इति सप्तम्येकवचनस्य डादेशः।] (नः) अस्माकम् (नाभिम्) केन्द्रभूतं परमात्मानम् (आ ददे) गृह्णामि। (चक्षुषा) अन्तर्नेत्रेण (सूर्यम्) सूर्यप्रभं तं परमात्मानम् (दृशे) द्रष्टुम् प्रभवामि इति शेषः। (कवेः) काव्यकर्तुः सोमस्य परमेश्वरस्य (अपत्यम्) सन्तानं वेदकाव्यम् (आ दुहे) आ दोह्मि ॥११॥
भावार्थः
आचार्यद्वारा वेदार्थदोहनकलां शिक्षित्वा ये वेदार्थान् दुहन्ति, वेदप्रतिपाद्यं परमेश्वरं चाराध्नुवन्ति तेषां जीवनं सफलं जायते ॥११॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ९।१०।८, ‘चक्षु॑श्चि॒त् सूर्ये॒ सचा॑’ इति द्वितीयः पादः।
इंग्लिश (2)
Meaning
May we preserve the soul in our mind, so that we may visualise God Brilliant like the sun. May we enjoy the bliss of God, Who always saves a sage from denudation.
Translator Comment
$ Pischel interprets it as 'Soma unites our navel with the Gods in heaven. ' Wilson interprets the verse as, ‘I take into my navel the navel of the sacrifice. ’ Ludwig interprets it as ‘He (Soma) as Kinsman has brought us a Kinsman (Surya). These explanations are wide of the mark. नाभि means soul in the verse and not a navel.
Meaning
In the core of the heart we hold the yajna and the lord of yajna, our eye fixed on the sun with love and reverence, and thereby we distil the light and peace of existence, reflection of omniscient and creative divinity. (Rg. 9-10-8)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (नाभिं नः नाभा आददे) વિશ્વને પોતાની સાથે બાંધનાર વિવેક કેન્દ્રભૂત તથા વિશ્વના મધ્યરૂપ સોમ-શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્માને અમારી પોતાની મધ્યમાં-અંદર ગ્રહણ કરીને અપનાવીએ અથવા આધાન કરીએ. (चक्षुषा सूर्यम् आदृषे) પુનઃ જ્ઞાન નેત્ર દ્વારા સરણશીલ સર્વત્ર વ્યાપનશીલ સોમ-શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્માને સમગ્ર રૂપથી નિહાળી શકું-સાક્ષાત્ કરી શકું, (कवेः अपत्थम् आदुहे) સ્તુતિકર્તા ઉપાસકનું પતન ન થવા દેનાર-રક્ષક સોમ-શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્માનું સમગ્ર રૂપથી દોહન કરું-પોતાની અંદર સમાવી લઉં. અર્થાત્ ક્રાન્તદર્શી પરમાત્માને અપત્યરૂપ-તેનાથી ઉત્પન્ન આનંદરસનું દોહન કરું. (૧૧)
मराठी (1)
भावार्थ
आचार्याद्वारे वेदाचे दोहन करण्याची कला शिकून जे वेदार्थांचे दोहन करतात व वेदाने प्रतिपादित केलेल्या ईश्वराची आराधना करतात, त्यांच जीवन सफल होते. ॥११॥
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