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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1128
    ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    21

    अ꣡सृ꣢ग्र꣣मि꣡न्द꣢वः प꣣था꣡ धर्म꣢꣯न्नृ꣣त꣡स्य꣢ सु꣣श्रि꣡यः꣢ । वि꣣दाना꣡ अ꣢स्य꣣ यो꣡ज꣢ना ॥११२८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ꣡सृ꣢꣯ग्रम् । इ꣡न्द꣢꣯वः । प꣣था꣢ । ध꣡र्म꣢꣯न् । ऋ꣣त꣡स्य꣢ । सु꣣श्रि꣡यः꣢ । सु꣣ । श्रि꣡यः꣢꣯ । वि꣣दानाः꣢ । अ꣣स्य । यो꣡ज꣢꣯ना ॥११२८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    असृग्रमिन्दवः पथा धर्मन्नृतस्य सुश्रियः । विदाना अस्य योजना ॥११२८॥


    स्वर रहित पद पाठ

    असृग्रम् । इन्दवः । पथा । धर्मन् । ऋतस्य । सुश्रियः । सु । श्रियः । विदानाः । अस्य । योजना ॥११२८॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1128
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 8; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    प्रथम मन्त्र में विद्वानों का विषय वर्णित है।

    पदार्थ

    (सुश्रियः) उत्तम श्रीवाले, (इन्दवः) तेजस्वी, ज्ञानरस से भिगोनेवाले विद्वान् गुरु लोग (ऋतस्य पथा) सत्य के मार्ग से (धर्मन्) धर्म में (असृग्रम्) तत्पर होते हैं, क्योंकि वे (अस्य) इस धर्ममार्ग की (योजना)क्रियान्वयन-पद्धतियों को (विदानाः) जानते हैं ॥१॥

    भावार्थ

    विद्वान् लोग स्वयं भी सत्य और धर्म के मार्ग में चलें तथा योजनाएँ बनाकर दूसरों को भी उस मार्ग पर चलाएँ ॥१॥

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    पदार्थ

    (सुश्रियः) उत्तम शोभित करनेवाले (इन्दवः) आनन्दरसपूर्ण परमात्मा (ऋतस्य धर्मन्) अध्यात्मयज्ञ के धर्म में—आचरण में (पथा-असृग्रम्) योगाभ्यास मार्ग से प्राप्त होता है (अस्य योजना विदानाः) इस अध्यात्ममार्ग के युक्तिक्रमों को जनाता हुआ*35॥१॥

    टिप्पणी

    [*35. “योगो योगेन ज्ञातव्यो योगो योगात् प्रवर्तते” “तस्य भूमिषु विनियोगः” [योग द॰ ३.६ व्यासभाष्यम्]।]

    विशेष

    ऋषिः—असितो देवलो वा (रागबन्धन से रहित या परमात्मदेव को अपने अन्दर लानेवाला)॥ देवता—सोमः (शान्तस्वरूप परमात्मा)॥ छन्दः—गायत्री॥<br>

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    विषय

    ऋत के मार्ग से

    पदार्थ

    (इन्दवः) = इन्दु = सोम [इन्द् to be powerful] सोम का, शक्ति का शरीर में ही व्यापन करके शक्तिशाली बननेवाले (सुश्रियः) = उत्तम श्रीसम्पन्न व्यक्ति (अस्य) = इस प्रभु की (योजना) = योजनाओं को (विदाना:) = जानते हुए (ऋतस्य पथा) = ऋत के, सत्य के मार्ग से (धर्मन्) = [धर्माणि] धर्म-कर्मों को असृग्रम्=करते हैं [सृजन्ति]।

    १. ऋत के मार्ग से चलना चाहिए। असत् को छोड़कर सत् को अपनाना चाहिए । ऋत के मार्ग से चलते हुए सदा सत्कर्मों को ही करना चाहिए । २. सत्कर्मों में प्रवृत्ति के लिए तीन बातें आवश्यक हैं—[क] सोम का पान करके शक्तिशाली बनना, [ख] उत्तम श्रीयुक्त – धन-सम्पन्न होना, [ग] प्रभु की योजनाओं को समझना । जितना - जितना हम इन योजनाओं को समझेंगे उतना उतना ही कर्मों को ठीक प्रकार से करनेवाले होंगे। इस प्रकार संक्षेप से सत्कर्मों में प्रवृत्ति के लिए 'शक्ति, धन व ज्ञान' तीनों आवश्यक हैं ।

    भावार्थ

    ‘शक्ति, धन व ज्ञान' से युक्त होकर हम ऋत के मार्ग से धर्म-कर्मों को करनेवाले बनें ।

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    विषय

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    भावार्थ

    (इन्दवः) आत्मसम्पत्ति से सम्पन्न, शमादि गुणयुक्त योगीजन, (ऋतस्य) सत्यज्ञान के (धर्मन्) धारण करने हारे परमात्मा के स्वरूप में (सुश्रियः) उत्तम रूप से आश्रय प्राप्त करने वाले (पथा) सत्य ज्ञान के मार्ग से (अस्य) इस आत्मा के (योजना) योग-समाधि योग-समाधि द्वारा मिलापों के आनन्दों का (विदाना) लाभ करते हुए (असृग्रम्) कृतकृत्य होजाते हैं।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ वृषगणो वासिष्ठः। २ असितः काश्यपो देवलो वा। ११ भृगुर्वारुणिर्जमदग्निः। ८ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। ४ यजत आत्रेयः। ५ मधुच्छन्दो वैश्वामित्रः। ७ सिकता निवावरी। ८ पुरुहन्मा। ९ पर्वतानारदौ शिखण्डिन्यौ काश्यप्यावप्सरसौ। १० अग्नयो धिष्ण्याः। २२ वत्सः काण्वः। नृमेधः। १४ अत्रिः॥ देवता—१, २, ७, ९, १० पवमानः सोमः। ४ मित्रावरुणौ। ५, ८, १३, १४ इन्द्रः। ६ इन्द्राग्नी। १२ अग्निः॥ छन्द:—१, ३ त्रिष्टुप्। २, ४, ५, ६, ११, १२ गायत्री। ७ जगती। ८ प्रागाथः। ९ उष्णिक्। १० द्विपदा विराट्। १३ ककुप्, पुर उष्णिक्। १४ अनुष्टुप्। स्वरः—१-३ धैवतः। २, ४, ५, ६, १२ षड्ज:। ७ निषादः। १० मध्यमः। ११ ऋषभः। १४ गान्धारः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तत्रादौ विदुषां विषयमाह।

    पदार्थः

    (सुश्रियः) सुशोभाः, (इन्दवः) तेजस्विनः, ज्ञानरसेन क्लेदकाः विद्वांसो गुरवः (ऋतस्य पथा) सत्यस्य मार्गेण (धर्मन्) धर्मे। [धर्मणि इति प्राप्ते ‘सुपां सुलुक्०’। अ० ७।१।३९ इत्यनेन विभक्तेर्लुक्।] (असृग्रम्) सृज्यन्ते, तत्परा भवन्ति, यतः ते (अस्य) धर्ममार्गस्य (योजना) योजनानि, क्रियान्वयनपद्धतीः [अत्र शेर्लोपः।] (विदानाः) जानानाः भवन्ति ॥१॥

    भावार्थः

    विद्वांसो जनाः स्वयमपि सत्यस्य धर्मस्य च मार्गे चलन्तु, योजना निर्मायान्यानपि च तस्मिन् मार्गे प्रवर्तयन्तु ॥१॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।७।१, ‘योज॑नम्’ इति पाठः।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The Yogis endowed with spiritual wealth and mental quietness, taking shelter in God, the Lord of true knowledge, and treading on the path of virtue, fed highly satisfied enjoying the union of this soul with God through Yoga.

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    Meaning

    Knowing the relevance of their vibrant action in Dharma, wise sages, brilliant and gracious, move by the path of rectitude following the eternal law of existence created by the lord of peace and glory. (Rg. 9-7-1)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (सुश्रियः) શ્રેષ્ઠ શોભિત કરનાર (इन्दवः) આનંદરસપૂર્ણ પરમાત્મા તસ્ય ધર્મન્-અધ્યાત્મયજ્ઞના ધર્મમાં-આચરણમાં (पथा असृग्रम्) યોગાભ્યાસ માર્ગથી પ્રાપ્ત થાય છે. (अस्य योजना विदानाः) એ અધ્યાત્મમાર્ગના યુક્તિક્રમોને જણાવતાં. [પ્રાપ્ત થાય છે.] (૧)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    विद्वान लोकांनी स्वत: सत्य मार्गावर चालावे व योजना बनवून इतरांनाही त्या मार्गावर चालवावे. ॥१॥

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