Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1162
ऋषिः - अग्नयो धिष्ण्या ऐश्वराः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - द्विपदा विराट्
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
36
प्र꣡ सो꣢म या꣣ही꣡न्द्र꣢स्य कु꣣क्षा꣡ नृभि꣢꣯र्येमा꣣नो꣡ अद्रि꣢꣯भिः सु꣣तः꣢ ॥११६२॥
स्वर सहित पद पाठप्र । सो꣣म । याहि । इ꣡न्द्र꣢꣯स्य । कु꣣क्षा꣢ । नृ꣡भिः꣢꣯ । ये꣣मानः꣢ । अ꣡द्रि꣢꣯भिः । अ । द्रि꣣भिः । सुतः꣢ ॥११६२॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र सोम याहीन्द्रस्य कुक्षा नृभिर्येमानो अद्रिभिः सुतः ॥११६२॥
स्वर रहित पद पाठ
प्र । सोम । याहि । इन्द्रस्य । कुक्षा । नृभिः । येमानः । अद्रिभिः । अ । द्रिभिः । सुतः ॥११६२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1162
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 8; खण्ड » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 8; खण्ड » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में फिर वही विषय वर्णित है।
पदार्थ
हे (सोम) ज्ञानरस ! (नृभिः) नेता गुरुओं से (येमानः) नियन्त्रित किया जाता हुआ, (अद्रिभिः) अखण्डित पाण्डित्यों से (सुतः) प्रेरित किया गया तू (इन्द्रस्य) जीवात्मा के (कुक्षा) गर्भ में (प्र याहि) उत्तम प्रकार से पहुँच ॥३॥
भावार्थ
विद्वान्, नियमपरायण गुरु लोग जब छात्रों को पढ़ाते हैं, तब उन छात्रों के अन्तरात्मा में विशुद्ध ज्ञान-रस का प्रवाह सुगमता से प्रकट हो जाता है ॥३॥
पदार्थ
(सोम) हे शान्तस्वरूप परमात्मन्! तू (नृभिः-येमाणः) मुमुक्षुजनों से*98 साधना में—उपासना में लाया जाता हुआ (अद्रिभिः सुतः) श्लोक कर्ता—स्तुति कर्ताओं के द्वारा साक्षात् हुआ*99 (इन्द्रस्य कुक्षा) उपासक आत्मा के हृदय में (प्र याहि) प्राप्त हो॥३॥
टिप्पणी
[*98. “अद्रिरसि श्लोककृत्” [जै॰ १.८९]।] [*99. “नरो ह वै देवविशः” [जै॰ १.८९]।]
विशेष
<br>
विषय
परमात्मा की कुक्षि में, तृतीय धाम में
पदार्थ
हमारे जीवनों में माता-पिता व परिवार के अन्य बड़े व्यक्ति मुख्यरूप से हमारा नेतृत्व करनेवाले होते हैं। सर्वप्रथम इनके जीवनों का ही हमपर प्रभाव पड़ता है। इन (नृभिः) = नेतृत्व देनेवालों से (येमानः) = संयत जीवनवाले बनाये जाते हुए तथा (अद्रिभिः) = गुरुओं से (सुतः) = जन्म दिया हुआ (सोम) = हे शान्त-स्वभाव आत्मन् ! तू (इन्द्रस्य कुक्षा) = उस प्रभु के कोख में (प्र याहि) = प्रकर्षेण प्राप्त हो । आचार्य ब्रह्मचारी का उपनयन करता हुआ उसे अपने गर्भ में धारण करता है और ज्ञान से परिपक्व करके कालान्तर में उसे द्वितीय जन्म देता है। प्रथम जन्म माता-पिता ने दिया था और माता ने गर्भस्थ बालक को अपने उचित आहार-विहार से शान्त-दान्त बनाने का प्रयत्न किया । अब आचार्य ने उसे ज्ञान से परिपक्व बनाया है। इस प्रकार इन दो जन्मों को प्राप्त करके यह द्विज बना और द्विज बनकर प्रभु की गोद में पहुँचने का अधिकारी हुआ । इसका प्रथम निवास स्थान वा आधार माता-पिता' थे- दूसरे आधार 'आचार्य' थे और अब यह प्रभुरूप तृतीय धाम में विचरनेवाला बना है ।
भावार्थ
हम प्रथम धाम में संयम और द्वितीय धाम में ज्ञान का प्रकाश प्राप्त करके तृतीय धाम में आनन्द व शान्ति का लाभ करें ।
विषय
missing
भावार्थ
हे (सोम) आत्मन् ! (नृभिः) नेताओं द्वारा (येमानः) हृदय-देश में यम नियमों द्वारा या ईश्वर-प्रणिधान द्वारा विचार किया जाकर (अद्रिभिः) स्थायी अखंडित तपःकर्मों, या ज्ञानी पुरुषों से (सुतः) साधित होकर (कुक्षौ) आत्माकाशरूप गुहा में (आयाहि) आ, प्रकट हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१ वृषगणो वासिष्ठः। २ असितः काश्यपो देवलो वा। ११ भृगुर्वारुणिर्जमदग्निः। ८ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। ४ यजत आत्रेयः। ५ मधुच्छन्दो वैश्वामित्रः। ७ सिकता निवावरी। ८ पुरुहन्मा। ९ पर्वतानारदौ शिखण्डिन्यौ काश्यप्यावप्सरसौ। १० अग्नयो धिष्ण्याः। २२ वत्सः काण्वः। नृमेधः। १४ अत्रिः॥ देवता—१, २, ७, ९, १० पवमानः सोमः। ४ मित्रावरुणौ। ५, ८, १३, १४ इन्द्रः। ६ इन्द्राग्नी। १२ अग्निः॥ छन्द:—१, ३ त्रिष्टुप्। २, ४, ५, ६, ११, १२ गायत्री। ७ जगती। ८ प्रागाथः। ९ उष्णिक्। १० द्विपदा विराट्। १३ ककुप्, पुर उष्णिक्। १४ अनुष्टुप्। स्वरः—१-३ धैवतः। २, ४, ५, ६, १२ षड्ज:। ७ निषादः। १० मध्यमः। ११ ऋषभः। १४ गान्धारः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पुनः स एव विषय उच्यते।
पदार्थः
हे (सोम) ज्ञानरस ! (नृभिः) नायकैः गुरुभिः (येमानः) नियम्यमानः, (अद्रिभिः) अखण्डितैः पाण्डित्यैः (सुतः) प्रेरितः त्वम् (इन्द्रस्य) जीवात्मनः (कुक्षा) गर्भे। [कुक्षौ इति प्राप्ते ‘सुपां सुलुक्०’ अ० ७।१।३९ इति विभक्तेर्डादेशः] (प्र याहि) प्र गच्छ ॥३॥
भावार्थः
विद्वांसो नियमपरायणा गुरवो यदा छात्रानध्यापयन्ति तदा तेषां छात्राणामन्तरात्मनि विशुद्धज्ञानरसप्रवाहः सुतरामाविर्भवति ॥३॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ९।१०९।१८।
इंग्लिश (2)
Meaning
O soul, disciplined by the learned through God’s profound meditation, controlled through ceaseless austerities, enter thou the inmost recesses of the heart!
Meaning
O Soma spirit of divinity, pursued in practice by men and realised in name and presence through senses, mind and intelligence of the yogis, come and abide in the heart core of the soul. (Rg. 9-109-18)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (सोम) હે શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! તને (नृभिः येमाणः) મુમુક્ષુજનો દ્વારા સાધનામાંઉપાસનામાં લાવીને (अद्रिभिः सुतः) શ્લોકકર્તા-સ્તુતિકર્તાઓ દ્વારા સાક્ષાત્ થઈને (इन्द्रस्य कुक्षा ઉપાસક આત્માના હૃદયમાં (प्र याहि) પ્રાપ્ત થા. (૩)
मराठी (1)
भावार्थ
विद्वान, कर्तव्यनिष्ठ गुरू जेव्हा विद्यार्थ्यांना शिकवितात, तेव्हा विद्यार्थ्यांच्या अंतरात्म्यामध्ये विशुद्ध ज्ञानरसाचा प्रवाह सहजतेने प्रकट होतो. ॥३॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal