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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 117
ऋषिः - हर्यतः प्रागाथः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
35
गा꣢व꣣ उ꣡प꣢ वदाव꣣टे꣢ म꣣हि꣢ य꣣ज्ञ꣡स्य꣢ र꣣प्सु꣡दा꣢ । उ꣣भा꣡ कर्णा꣢꣯ हिर꣣ण्य꣡या꣢ ॥११७॥
स्वर सहित पद पाठगा꣡वः꣢꣯ । उ꣡प꣢꣯ । व꣣द । अवटे꣢ । म꣣ही꣡इति꣢ । य꣣ज्ञ꣡स्य꣢ । र꣣प्सु꣡दा꣢ । र꣣प्सु꣢ । दा꣣ । उभा꣢ । क꣡र्णा꣢꣯ । हि꣣रण्य꣡या꣢ ॥११७॥
स्वर रहित मन्त्र
गाव उप वदावटे महि यज्ञस्य रप्सुदा । उभा कर्णा हिरण्यया ॥११७॥
स्वर रहित पद पाठ
गावः । उप । वद । अवटे । महीइति । यज्ञस्य । रप्सुदा । रप्सु । दा । उभा । कर्णा । हिरण्यया ॥११७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 117
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 1;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 1;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में स्तोताओं को प्रेरणा दी जा रही है।
पदार्थ
हे (गावः) स्तोताओ ! तुम (अवटे) रसों के कूप-तुल्य परमेश्वर के विषय में (उप वद) महिमा-गान करो। (मही) महान् धरती-आकाश (यज्ञस्य) उस पूजनीय परमेश्वर के (रप्सुदा) स्वरूप को प्रकाशित करनेवाले हैं। (उभा) दोनों (हिरण्यया) सुनहरे सूर्य और चन्द्रमा, जिन धरती-आकाश के (कर्णा) कर्ण-कुण्डलों के समान हैं ॥३॥ इस मन्त्र में सुनहरे सूर्य-चन्द्र मानो कर्ण-कुण्डल हैं इस कथन में व्यङ्ग्योत्प्रेक्षालङ्कार है। कर्ण-कुण्डलों के अर्थ में कर्णौ के प्रयोग में लक्षणा है। इन्द्र में अवट (कूप) का आरोप होने से रूपक है ॥३॥
भावार्थ
जो परमेश्वर दया, वीरता, आनन्द आदि रसों के कूप के समान है, उसकी सब मनुष्यों को अपनी वाणियों से महिमा अवश्य गान करनी चाहिए। यद्यपि वह निराकार तथा गोरे, काले, हरे, पीले आदि रूपों से रहित है, तो भी उसके भक्तजन धरती-आकाश के अनेकविध चित्र-विचित्र पदार्थों में उसी के रूप को देखते हैं और उसी की चमक से यह सब-कुछ चमक रहा है, यह बुद्धि करते हैं। इसीलिए धरती-आकाश को उसके स्वरुप-प्रकाशक कहा गया है ॥३॥
पदार्थ
(गावः) वाक् स्तुतियो! (अवटे उप ‘उपगत्य’) रक्षणधाम आश्रयरूप आनन्दरूप ऐश्वर्यवान् इन्द्र—परमात्मा के समीप जाकर (वद ‘वदत’ ‘वचनव्यत्ययः’) मुझ स्तुति करने वाले को बतलाओ सूचित करो कि (यज्ञस्य) मेरे अध्यात्म की (रप्सुदा) रूप देने वाली—(मही) भूमियाँ—अभ्यास और वैराग्य योग भूमियाँ “मही पृथिवीनाम” [निघं॰ १.१] (उभा कर्णा) दोनों सिरे—(हिरण्यया) तुझ परमात्म ज्योतिःस्वरूप हिरण्यमय तुझे प्राप्त करने वाले बन गए। “स्वाध्यायाद् योगमासीत योगात्स्वाध्यायमामनेत् स्वाध्याययोगसम्पत्त्या परमात्मा प्रकाशते।” [योग॰ १.२८ व्यास]।
भावार्थ
स्तुतियाँ ज्योतिःस्वरूप परमात्मा में आश्रित हो जाती हैं उपासक की हृद्भावना को सूचित करती हुईं परमात्मा को झुकाती हैं अध्यात्मयज्ञ को रूप देने वाले अभ्यास और वैराग्य या जप और अर्थभावन रूप दोनों योग्य भूमियों को जो कि दो दिशाएँ हैं वे परमात्मा के प्रकाश वाली बन जाती हैं॥३॥
विशेष
ऋषिः—हर्य्यतः प्रगाथः (प्रकृष्ट गाथा—उत्तम स्तुतिवाक् में कुशल कान्तिमान् तेजस्वीजन)॥<br>
विषय
प्रभो! बोलो तो
पदार्थ
इस मन्त्र का ऋषि ('हर्यत प्रागाथ') है। प्रभु का खूब ही गायन करनेवाला 'प्रागाथ' है। खाते-पीते, सोते-जागते यह प्रभु का स्मरण करना नहीं भूलता। इसकी वाणी निसर्गतः प्रभु के स्तोत्रों का उच्चारण करती हैं, परन्तु प्रभु के स्तोत्रों का उच्चारण करते हुए यह 'हर्यत' है [हर्य गतिकान्तयोः] । यह गतिमय है, इसमें पुरुषार्थ है तथा प्रबल इच्छाशक्ति है कि वह ज्ञान प्राप्त कर सके। पिछले मन्त्र में इसी ज्ञान की मस्ती की याचना थी। यह माता, पिता, आचार्य व विद्वान् लेखकों की पुस्तकों से खूब ज्ञान प्राप्त करने के बाद अभी अतृप्त ही है और प्रभु से प्रार्थना करता है कि आप मेरे (अवटे) = उस हृदयाकाश में, जिसकी मैंने यथासम्भव काम-क्रोधादि की वृत्तियों के आक्रमण से रक्षा [अव् रक्षणे] की है, (गाव:) = तत्त्व को जनानेवाली वेदवाणियों का (उपवद) = उच्चारण कीजिए। मैं प्राकृतिक भोगों में फँसा हुआ नहीं हूँ। इस समय मैं आपके ही समीप उपस्थित हूँ। आप बोलिए तो सही। मैं क्यों न सुनूँगा? इस समय मुझे सुनने की प्रबल कामना है।
कैसी वाणियों को? १. (महीः) = महिमा से भरी- अर्थगौरववाली । जिनके छोटे-छोटे शब्द महान् अर्थों से भरे हुए हैं। जैसे यहाँ ही 'अवट' शब्द उस हृदय का वाचक है जिसकी वासनाओं से अवन= रक्षा की गई है। २. (यज्ञस्य रप् + सु + दा) = यज्ञ के उपदेश को उत्तम प्रकार से देनेवाली। ये वेद वाणियाँ सदा उत्तम कर्मों का उपदेश देती हैं। उपदेश भी इस प्रकार से कि पाठक के हृदय पर उत्तम प्रभाव पड़े । ३.( उभा कर्णा हिरण्यया) = जो वाणियाँ दोनों कानों के लिए हितकर व रमणीय हैं। अशुभ शब्दों का सुनना भी अहित व अरमणीय है। कुछ आपातरमणीय वह लगा करता है, परन्तु उसका परिणाम परिताप कर है। वेदवाणियों का सुनना ही ठीक है।
भावार्थ
प्रभु बोलें और मैं सुनूँ। ये वेदवाणियाँ अर्थ से भरी, उत्तम उपदेश देनेवाली व हित-रमणीय हैं।
विषय
परमेश्वर की स्तुति
भावार्थ
भा० = हे ( गावः ) = गौओ ! वाणियो ! रश्मियो ! नदियो ! ( अवटे १ ) = यज्ञस्थान, रक्षास्थान, ईश्वररूप, गंभीर स्थान में ( उपवद ) = आओ, अपना तात्पर्य प्रकाशित करो । अर्थात् गोएं जिस प्रकार रक्षास्थान में, रश्मियें सूर्य में और नदियें गंभीर गर्त्त, जलाशय या समुद्र में आश्रय पाती हैं इसी प्रकार हे वाणियो ! तुम सकल रक्षक परमेश्वर में लगती हो । ( मही ) = विशाल यह पृथ्वी और यह द्यौलोक ( यज्ञस्य ) = यज्ञ का ( रप्सुदा ) = उत्तम फल देनेवाले हैं । ( उभा ) = दोनों ( हिरण्यया ) = हरणशील, भोग्य लोको के प्राप्त कराने में ( कर्णा ) = साधनभूत हैं ।
[टि० - इस मन्त्र पर सब भाष्यकारों के मत भिन्न २ हैं । यजुर्वेद में महीधर और उवट के मत में – "वे गौए कूए के समीप आवें और पृथ्वी और द्यौ यज्ञ का फल देने वाली है और इनके दोनों कान सोने के हैं ।' सायण के मत से – 'हे ( गावः ) = यज्ञकर्त्ताओ ! तुम महावीर के पात्र की स्तुति करो यह यज्ञ का फल देता है। उस कूण्डे के दोनों कान सोने के हैं।" स्वामी तुलसीराम के मत से - 'यज्ञकुण्ड के समीप हे वाणियों ! तुम इन्द्र की स्तुति करो जिससे यज्ञभूमि वेदपाठ के प्रवाहवाली हो और श्रोताओं के दोनों कान प्रकाशमय हो ।" इनमें कर्मकाण्ड को लक्ष्य करके यज्ञ के विनियोग के अनुसार सायण महीधरादि की पदयोजना संगत है । परन्तु अध्याहार और उन्नेयार्थता का दूषण है। यही दोष तुलसीरामजी के अर्थ में भी है। हमारी सम्मति में 'ओम्', 'अवत', 'अवट' ये तीनों शब्द रक्षार्थक अव धातु से बने हैं, इसलिये यह मन्त्र परमात्मा की स्तुति पर लगना चाहिये । ]
टिप्पणी
११७–उपावतावतं इति पाठभेदः, ऋ०
१. यजुर्वेदे अवतं इत्यस्य अवटं गर्त्तमिति उवटमहीधरयोः सम्मतोर्थः अवतीत्यवतं रक्षास्थलं । अवटं कूपम् । रक्षादायकत्वादेव इन्द्रोप्यवटशब्दवाच्यः शरण्यत्वादेव । अवतीत्योम् । समानधातुवशाद ओंकारः परमेश्वर एव सर्वस्तुतिवाचां शरणमित्यवदात्म् ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - हर्यतः प्रागाथः।
छन्दः - गायत्री।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ स्तोतारः प्रेर्यन्ते।
पदार्थः
हे (गावः२) स्तोतारः ! गौः इति स्तोतृनाम। निघं० ३।१६। यूयम् (अवटे३) विविधरसानां कूपभूते इन्द्रे परमेश्वरे परमेश्वरमुपजीव्येत्यर्थः। अत्र विषयसप्तमी। अवतः, अवटः इति कूपनामसु पठिते। निघं० २।२३। (उपवद) उपवदत महिमानमुपगायत। अत्र अनात्मनेपदेऽपि छान्दसस्तकारलोपः, व्यत्ययो वा। (मही४) महत्यौ द्यावापृथिव्यौ। मही इति द्यावापृथिव्योर्नाम। निघं० ३।३०। मह्यौ इति प्राप्ते सुपां सुलुक्० अ० ७।१।३९ इति पूर्वसवर्णदीर्घः। (यज्ञस्य) यजनीयस्य तस्य इन्द्राख्यस्य परमेश्वरस्य (रप्सु-दा५) रप्सुदे स्वरूपप्रकाशयित्र्यौ स्तः। (उभा) उभौ (हिरण्यया) हिरण्मयौ सूर्याचन्द्रमसौ, ययोः द्यावापृथिव्योः (कर्णा६) कर्णौ, कर्णकुण्डले इव स्तः। रप्सुदा, उभा, कर्णा, हिरण्यया इति सर्वत्र सुपां सुलुक्०।’ अ० ७।१।३९ इति प्रथमाद्विवचनस्य आकारादेशः। हिरण्यया इत्यत्र ऋत्व्यवास्त्व्यवास्त्वमाध्वीहिरण्ययानि च्छन्दसि।’ अ० ६।४।१७५ इति निपातनाद् हिरण्यशब्दाद् विहितस्य मयटो मकारस्य लोपः ॥३॥ उभा कर्णा हिरण्यया इत्यत्र व्यङ्ग्योत्प्रेक्षालङ्कारः। कर्णकुण्डले इति विवक्षायां कर्णा इत्यस्य प्रयोगे च लक्षणा। इन्द्रे अवटत्वारोपाच्च रूपकम् ॥३॥
भावार्थः
यः परमेश्वरो दयावीरताऽऽनन्दादिरसानां कूप इव वर्तते, सर्वैर्जनैः स्वकीयाभिः स्तुतिवाग्भिस्तन्महिमाऽवश्यं गेयः। यद्यप्यसौ निराकारः गौरकृष्णहरितपीतादिरूपरहितश्च, तथापि तद्भक्ता द्यावापृथिव्योर्नानाविधेषु चित्रविचित्रेषु पदार्थेषु तस्यैव स्वरूपं निभालयन्ति, तस्यैव भासा सर्वमिदं विभातीति च बुद्धिं कुर्वन्ति। अत एव द्यावापृथिव्यौ तस्य स्वरूपप्रकाशिके वर्णिते ॥३॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ८।७२।१२, देवता १अग्निर्हवींषि वा। य० ३३।१९, ऋषिः पुरुमीढाजमीढौ, देवते इन्द्रवायू, ३३।७१ ऋषिः वसिष्ठः, देवते मित्रावरुणौ। सर्वत्र उपवदावटे इत्यत्र उपावतावतं इति पाठः। सा० १६०२। २. हे गावः मदीया वाचः—इति वि०। गावः गाः धर्मदोग्ध्रीः उपवद उपस्तुहि हे अध्वर्यो—इति भ०। हे गावः धर्मदुघाः—इति सा०। ३. अवट इति अपठितमपि मेघनाम द्रष्टव्यम्—इति वि०। महावीरोऽत्रावट उच्यते। महावीरनिमित्ते—इति भ०। अवटे अवटं महावीरं प्रति—इति सा०। ४. मही शब्दः पदपाठे महीइति इत्येवम् इतिकरणाद् द्विवचनान्त एव। ५. (रप्सुदा) ये रप्सुं रूपं दत्तस्ते इति य० ३३।१९ भाष्ये, सुरूपप्रदे इति च य० ३३।७१ भाष्ये द०। रप्सु इति रूपनाम, ये तद् दत्तः ते रप्सुदे, यज्ञस्य रूपदे इत्यर्थः—इति वि०। रपेः शब्दकर्मणो रपिः स्तुतिः तत्र सदनं रप्सुदा, अकारस्योकारो व्यत्ययात्—इति भ०। रप्सुदा रप्सुदे आरिप्सोः फलदे। रिप्सोः अश्विनोः दातव्ये वा। यद् वा रपणं शब्दनं, रप् मन्त्रः तेन सुदातव्ये। अथवा षुद क्षरणे, रपा मन्त्रेण क्षारणीये दोहनीये गवाजयोः पयसी—इति सा०। ६. उभौ कर्णौ हिरण्ययौ यस्य (मेघस्य)। अस्ति पुनः क्वचिदन्यत्रापि हिरण्यकर्णत्वं मेघस्य ? अस्तीति ब्रूमः, हिरण्यकर्णं मणिग्रीवम् (ऋ० १।१२२।१४) इत्यत्र—इति वि०। अपि च अस्य महावीरस्य उभा उभौ कर्णा कर्णस्थानीयौ द्वौ रुक्मौ हिरण्यया हिरण्मयौ सुवर्णरजतमयौ—इति सा०।
इंग्लिश (2)
Meaning
O words, go unto God, and express your aim. Heaven and Earth lend beauty to the Yajna. Knowledge and action are two excellent accomplishments.
Translator Comment
Griffith writes, the meaning of rapsuda is unknown. Rishi Dayananda in his commentary on Yajur 33-19 translates the word as givers of beauty. रप्सु रुपं दत्तस्ते . As the word गो means speech, earth, cow, stream. Sun’s ray, so different commentators have interpreted the verse differently. Just as cows go to the cowshed, rays to the Sun, and streams to the ocean, so do the words of applause go to God.
Meaning
The psychic base of the devoted seeker of meditative communion is highly creative. O mind and senses attended with both knowledge and action of divine character, rise high and reach close to the reservoir of divine grace and win the showers of bliss. (Rg. 8-72-12)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (गावः) વાણીની સ્તુતિઓ ! (अवटे उप ' उपगत्य ') રક્ષણધામ , આશ્રયરૂપ , આનંદરૂપ , ઐશ્વર્યવાન ઇન્દ્ર - પરમાત્માની સમીપ જઈને (वद ' वदत ' ' वचनव्यत्यः यः ') મને સ્તુતિ કરનારને બતાવો , સૂચિત કરો કે , (यज्ञस्य) મારા અધ્યાત્મને (रप्सुदा) રૂપ આપનારી , (मही) ભૂમિઓ - અભ્યાસ અને વૈરાગ્યની યોગ ભૂમિઓ (उभा कर्णा) બન્ને કિનારે , (हिरण्यया) તને પ્રાપ્ત કરનારા તારી પરમાત્મજ્યોતિ સ્વરૂપ હિરણ્યમય બની ગયા. (૩)
भावार्थ
ભાવાર્થ : સ્તુતિઓ જ્યોતિ સ્વરૂપ પરમાત્મામાં આશ્રિત થઈ જાય છે અને ઉપાસકની હૃદય ભાવનાને સૂચિત કરતી પરમાત્માને ઝુકાવે - નમાવે છે. અધ્યાત્મયજ્ઞનું રૂપ આપનાર અભ્યાસ અને વૈરાગ્ય અથવા જય અને અર્થભાવન રૂપ બન્ને યોગ્ય ભૂમિઓ જે બે દિશાઓ છે , તે પરમાત્માના પ્રકાશયુક્ત બની જાય છે. (૩)
उर्दू (1)
Mazmoon
اِیشور کا گُن گان ویدبانی سے سب کو سُنا کر پرسّن کرو!
Lafzi Maana
(گاوا) ہماری بانیاں (اوٹے) ہردیہ کی گپھا میں (اُپ) پرمیشور کے نِکٹ ہو کر اُس کا (ود) گُن گان کریں تاکہ (مہی) ساری دھرتی کے لوگ (یگیہ رپ سُودا) برہم یگیہ کے متعلق اُتم بانی سب کو سُنا سکیں اور ہر ایک آدمی (اُبھاکرنو) دونوں کانوں سے پِوتّر ویدبانی سب کو سُن کر (ہِرنیہ یا) بھگوان کے پرتی شردھا سے جہُوم اُٹھے۔ ترپت ہو جائے۔
Tashree
ایش کے گُن گان کرتے وید بانی کو سُناؤ، جس سے شردھا اُمڈ آئے ایسے سُندر منتر گاؤ۔
मराठी (2)
भावार्थ
जो परमेश्वर दया, वीरता, आनंद इत्यादी रसांच्या कूपाप्रमाणे आहे. सर्व माणसांनी त्याचा माहिमा जाणण्यासाठी आपल्या वाणीने त्याचे गान अवश्य केले पाहिजे. जरी तो गोरा, काळा, हिरवा, पिवळा इत्यादी रूपांनी रहित आहे व निराकार आहे, तरीही त्याचे भक्तजन धरती-आकाशाच्या अनेक प्रकारच्या चित्र विचित्र पदार्थांमध्ये त्याचेच रूप पाहतात, त्याच्या तेजानेच हे सर्व चमकत आहे, त्यामुळे धरती-आकाशाला त्याचे स्वरूप प्रकाशक म्हटलेले आहे. ॥३॥
विषय
पुढील मंत्रात स्तोताजनांना प्रेरणा केली आहे -
शब्दार्थ
हे (गावः) स्तोताजनहो, तुम्ही (अवटे) जो रसांच्या विहिरीप्रमाणे रसपरिपूर्ण असा परमेश्वर आहे, त्याचे (उप वद) महिमागान करता (मही) ही महान पृथ्वी व विशाल आकाश (यज्ञस्म) त्या पूजनीय परमेश्वराचे (रप्सुदा) स्वरूप प्रकाशित करणारे (म्हणजे त्या विस्तृत्वाची व महानतेची किंचित कल्पना देणारे) आहेत. (उभा) हिरण्यया) सूर्य व चंद्र दोन्ही या धरित्री व आकाशाच्या (कर्णा) कर्ण- कुंडलाप्रमाणे आहेत. ।। ३।।
भावार्थ
जो परमेश्वर दया, वीरत्व, आनंद आदी रसांच्या विहिरीप्रमाणे आहे, सर्व मनुष्यांनी आपल्या वाणीने त्याचा महिमा अवश्य गायिला पाहिजे. जरी हे निराकार असल्यामुळे गोरा, हिरवा, पिवळा, आदी रंग रूपाचा नाही, तरीही त्याचे बक्त त्याला पृथ्वी आणि आकाशाच्या अनेकानेक चित्र- विचित्र पदार्थांमध्ये त्याचे रूप पाहतात आणि अशी भावना करतात की जणू त्या परमेश्वराच्या दीप्तीनेच हे सर्व दीप्तिमान आहेत. यामुळेच धरित्री व आकाशाला त्याच्या स्वरूपाचे प्रकाशक असे म्हटले जाते. ।। ३।।
विशेष
या मंत्रात ‘सोनेरी सूर्य- चंद्र जणू कर्म- कुंडल आहेतफ या कथनात व्यदव्य उत्पेक्षा अलंकार आहे. कर्ण- कुंडलाच्या अर्थाने ‘कर्णो’ शब्दाच्या प्रयोगात ‘लक्षणा’ असून इन्द्रावर कूपाचा आरोप असल्यामुळे रूपक अलंकार आहे.
तमिल (1)
Word Meaning
இந்த மகாவீரனின் உயர்ந்த பயன்களை அளிக்கும் இரண்டு [1] சாதனங்கள் பொன்னால் செய்யப்பட்டவைகளாகும். மேகம் (யக்ஞத்தின்) வடிவான வானம் பூமியை அடைந்துள்ளது.
FootNotes
[1].இரண்டு சாதனங்கள் - சன்மமும் சாவும்
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