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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1177
    ऋषिः - प्रतर्दनो दैवोदासिः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम -
    27

    च꣣मूष꣢च्छ्ये꣣नः꣡ श꣢कु꣣नो꣢ वि꣣भृ꣡त्वा꣢ गोवि꣣न्दु꣢र्द्र꣣प्स꣡ आयु꣢꣯धानि बि꣡भ्र꣢त् । अ꣣पा꣢मू꣣र्मि꣡ꣳ सच꣢꣯मानः समु꣣द्रं꣢ तु꣣री꣢यं꣣ धा꣡म꣢ महि꣣षो꣡ वि꣢वक्ति ॥११७७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    च꣣मूष꣢त् । च꣣मू । स꣢त् । श्ये꣣नः꣢ । श꣣कुनः꣢ । वि꣣भृ꣡त्वा꣢ । वि꣣ । भृ꣡त्वा꣢꣯ । गो꣣विन्दुः꣢ । गो । विन्दुः꣢ । द्र꣣प्सः꣢ । आ꣡यु꣢꣯धानि । बि꣡भ्र꣢꣯त् । अ꣣पा꣢म् । ऊ꣣र्मि꣢म् । स꣡च꣢꣯मानः । स꣣मु꣢द्रम् । स꣣म् । उद्र꣢म् । तु꣣री꣡य꣢म् । धा꣡म꣢꣯ । म꣣हिषः꣢ । वि꣣वक्ति ॥११७७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    चमूषच्छ्येनः शकुनो विभृत्वा गोविन्दुर्द्रप्स आयुधानि बिभ्रत् । अपामूर्मिꣳ सचमानः समुद्रं तुरीयं धाम महिषो विवक्ति ॥११७७॥


    स्वर रहित पद पाठ

    चमूषत् । चमू । सत् । श्येनः । शकुनः । विभृत्वा । वि । भृत्वा । गोविन्दुः । गो । विन्दुः । द्रप्सः । आयुधानि । बिभ्रत् । अपाम् । ऊर्मिम् । सचमानः । समुद्रम् । सम् । उद्रम् । तुरीयम् । धाम । महिषः । विवक्ति ॥११७७॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1177
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 9; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में पुनः परमात्मा का वर्णन है।

    पदार्थ

    (चमूषत्) द्यावापृथिवी में स्थित, (श्येनः) प्रशंसनीय कर्मोंवाला, (शकुनः) शक्तिशाली (विभृत्वा) विशेषरूप से भरण-पोषण करनेवाला, (गोविन्दुः) गायों और भूमियों को प्राप्त करानेवाला, (द्रप्सः) आनन्दरस से भरपूर, (आयुधानि बिभ्रत्) शस्त्रास्त्रों को धारण करनेवाले सेनापति के समान दण्ड देने की शक्ति से युक्त, (अपाम् ऊर्मिम्) जलों के धारणकर्ता (समुद्रम्) समुद्र वा अन्तरिक्ष को (सचमानः) आश्रयस्थान बनाता हुआ अर्थात् उनमें विद्यमान रहता हुआ, (महिषः) महान् वह सोम नामक जगत्पति परमेश्वर (तुरीयं धाम) पुरुषार्थचतुष्टय में चौथे मोक्ष का (विवक्ति) उपदेश करता है ॥ यहाँ यह शङ्का होती है कि पूर्वमन्त्र में मोक्ष को तृतीय धाम कहा गया है और इस मन्त्र में चतुर्थ धाम, यह कैसे सङ्गत है? इसका उत्तर है कि ‘प्रकृतिलोक, जीवात्मलोक, मोक्षलोक’ इस वर्गीकरण के अनुसार मोक्ष तृतीय धाम है और ‘धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष’ इस वर्गीकरण में चतुर्थ धाम। अतः दोनों सङ्गत हैं ॥३॥

    भावार्थ

    सर्वान्तर्यामी, सर्वशक्तिमान् सज्जनों की उन्नति करनेवाले, दुष्टों को दण्ड देनेवाले जगदीश्वर का अनुभव करके सब दुःखों से मुक्ति पानी चाहिए ॥३॥

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    पदार्थ

    (चमूषत्) द्युलोक पृथिवीलोक में*13 द्यावापृथिवीमय समस्त जगत् में रहनेवाला सर्वत्र व्यापक (श्येनः शकुनः) शंसनीय गतिमान्—प्रशंसनीय प्राप्तिवाला*14 कल्याणकारी*15 (विभृत्वा) विशेष भरण पोषण करनेवाला*16 (गोविन्दुः) वाक् विद्याविषय को प्राप्त हुआ (द्रप्सः) अपने अन्दर भरणीय और भक्षणीय सात्म करने योग्य*17 शान्तस्वरूप परमात्मा (आयुधानि बिभ्रत्) जलों को*18 धारण करता है (अपाम्-ऊर्मिं सचमानः) आप्तजनों की*19 भावना—स्तुति प्रार्थना को सेवन करता हुआ (महिषः) महान् उपकारक सोम—परमात्मा (तुरीयं धाम समुद्रं विवक्ति) चतुर्थ—कार्य, कारण, जीवलोक से ऊपर मोक्ष—आनन्दसागर का विवेचन करता है—प्राप्त कराता स्वीकार करता है॥३॥

    टिप्पणी

    [*13. “चम्वौ द्यावापृथिवीनाम” [निघं॰ ३.३०]।] [*14. “श्येनः शंसनीयं गच्छति” [निरु॰ ४.२४]।] [*15. “शकुनिः सर्वत्र शङ्करः” [निरु॰ ९.३]।] [*16. “अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते” [अष्टा॰ ३.२.८५] भृञ् धातोः क्वनिप्।] [*17. “द्रप्सः सम्भृतः प्सानीयो भवति” [निरु॰ ५.१५]।] [*18. “आयुधानि-उदकनाम” [निघं॰ १.१२]।] [*19. “मनुष्या वा आपश्चन्द्रा” [श॰ ७.३.१.२०] कर्मणि क्विप्।]

    विशेष

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    विषय

    तुरीय-धाम ‘सोयमात्मा चतुष्पात् '

    पदार्थ

    १. (चमूषत्) = [चम्वोः सीदति, चम्वोः द्यावापृथिव्योः, द्यावा = मस्तिष्क, पृथिवी=शरीर] जो सदा द्यावापृथिवी में निषण्ण होता है - मस्तिष्क व शरीर का ध्यान करता है, अर्थात् ज्ञान को बढ़ाने का प्रयत्न करता है और शरीर के स्वास्थ्य का पूर्ण ध्यान करता है ।

    २. (श्येनः) = शंसनीय गतिवाला होता है – सदा उत्तम कर्मों को करता है ।

    ३. (शकुनः) = शक्तिशाली बनता है ।

    ४. (विभृत्वा) = विशिष्ट भरण-पोषण के कार्यों में लगता है–निर्माणात्मक कार्यो में प्रवृत होता है ।

    ५. (गोविन्दुः) = [विद् लाभे] सदा ज्ञान की वाणियों को प्राप्त करने के स्वभाववाला होता है। 

    ६. (द्रप्सः) = [दृप हर्षमोहनयोः] सदा प्रसन्न और इसी प्रसन्नता से औरों को मोहित [आकृष्ट] करनेवाला होता है ।

    ७. (आयुधानि बिभ्रत्) = प्रभु से दिये गये ‘इन्द्रियाँ, मन व बुद्धि' रूप आयुधों [Instruments] को उचित स्थिति में धारण करनेवाला होता है।

    ८. (अपाम् ऊर्मिम् सचमानः) = [आप:-रेतः] शक्तिकणों की लहरों का सेवन करता हुआ, अर्थात् उमड़ते हुए सोम-तरंगो को अपने ही अन्दर धारण करता हुआ ।

    ९. परिणामतः (समुद्रम्) = ज्ञान के समुद्र को (सचमानः) = सेवन करता हुआ ।

    १०. (महिष:) = यह प्रभु का पुजारी [मह्=पूजायाम्]।

    ११. (तुरीयं धाम) = उस तुरीय धाम का विवक्ति- विशेषरूप से प्रतिपादन करता है । जागरित, स्वप्न, सुषुप्ति से ऊपर उस चतुर्थ अव्यवहार्य प्रपञ्चोपशम 'शान्त, शिव, अद्वैत' स्थिति का आभास प्रकट करता है। उसके जीवन से इस स्थिति का आभास मिलता है । यह प्रभु से अभिन्न-सा हो जाता है ।

    भावार्थ

    हमारा जीवन 'तुरीय धाम' को व्यक्त करनेवाला हो ।

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    विषय

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    भावार्थ

    (चमूषत्) अपनी ग्राहक इन्द्रिय-शक्तियों में पूर्ण रूप से विराजमान (श्येनः) गतिशील आत्मा कर्मबन्धन को पार करके मोक्ष मार्ग से गमन करने हारा, (शकुनः) शक्तिसम्पन्न, (विभृत्वा) समस्त लोकों में विहार करने में स्वतन्त्र होकर (गोविन्दुः) समस्त ज्ञान-रश्मियों और आदित्यमय लोक या परमब्रह्म को प्राप्त करने हारा जितेन्द्रिय या समस्त लोकों को प्राप्त करने हारा, (आयुधानि) सकल सामर्थ्यों को (बिभ्रत्) धारण करता हुआ, (महिषः) महिमा में सम्पन्न, महत्व को प्राप्त होकर (अपां) समस्त लोकों के (ऊर्मिम्) प्रेरक (समुद्रं) समुद्र के समान एकमात्र उत्कृष्ट सब के आश्रय परमेश्वर को (स्तवमानः) भजन करता हुआ (तुरीयं) मोक्षस्वरूप (धाम) आनन्द को (विवक्ति) प्राप्त करता है। इस सूक्त में परमहंस की परमगति का स्पष्ट वर्णन है, ऐसे परम मुक्ति लाभ करने हारे को वेद गोविन्दु, शकुन, श्येन आदि नामों से पुकारता है। पौराणिकों ने गरुड़ गोविन्द, समुद्रशायी आदि की कल्पना इन्हीं शब्दों के आधार पर की प्रतीत होती है।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ प्रतर्दनो दैवोदामिः। २-४ असितः काश्यपो देवलो वा। ५, ११ उचथ्यः। ६, ७ ममहीयुः। ८, १५ निध्रुविः कश्यपः। ९ वसिष्ठः। १० सुकक्षः। १२ कविंः। १३ देवातिथिः काण्वः। १४ भर्गः प्रागाथः। १६ अम्बरीषः। ऋजिश्वा च। १७ अग्नयो धिष्ण्या ऐश्वराः। १८ उशनाः काव्यः। १९ नृमेधः। २० जेता माधुच्छन्दसः॥ देवता—१-८, ११, १२, १५-१७ पवमानः सोमः। ९, १८ अग्निः। १०, १३, १४, १९, २० इन्द्रः॥ छन्दः—२-११, १५, १८ गायत्री। त्रिष्टुप्। १२ जगती। १३ बृहती। १४, १५, १८ प्रागाथं। १६, २० अनुष्टुप् १७ द्विपदा विराट्। १९ उष्णिक्॥ स्वरः—२-११, १५, १८ षड्जः। १ धैवतः। १२ निषादः। १३, १४ मध्यमः। १६,२० गान्धारः। १७ पञ्चमः। १९ ऋषभः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनः परमात्मानं वर्णयति।

    पदार्थः

    (चमूषत्) चम्वोः द्यावापृथिव्योः सीदति उपविष्टोऽस्ति यः सः, (श्येनः) शंसनीयकर्मा। [श्येनः शंसनीयं गच्छति। निरु० ४।२३।] (शकुनः) शक्तिशाली। [शक्नोतीति शकुनः। शक्लृ शक्तौ धातोः ‘शकेरुनोन्तोन्त्युनयः’ उ० ३।४९ इत्यनेन उन प्रत्ययः।] (विभृत्वा) विशेषेण भरणपोषणकर्ता। [अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते। अ० ३।२।७५। इत्यनेन डुभृञ् धारणपोषणयोः इत्यस्मात् क्वनिप् प्रत्ययः।] (गोविन्दुः२) गवां धेनूनां भूमीनां च लम्भकः। [विन्दुः इत्यत्र ‘विद्लृ लाभे’ धातोर्बाहुलकादौणादिक उः प्रत्ययः।] (द्रप्सः) आनन्दरसयुक्तः। [रसो वै सः। तै० उ० २।७ इत्युक्तेः। द्रप्सः इति जलबिन्दुवाचकः, यथा निरु० ५।१४ इत्यत्र।] (आयुधानि बिभ्रत्) शस्त्रास्त्राणि धारयन् सेनापतिरिव दण्डशक्तियुक्तः, (अपाम् ऊर्मिम्) उदकानाम् आच्छादकम्। [ऊर्मिः ऊर्णोतेः। निरु० ५।२३।] (समुद्रम्) अर्णवम् अन्तरिक्षं वा (सचमानः) श्रयमाणः। [षच सेचने सेवने च, भ्वादिः।] (महिषः) महान् स सोमः जगत्पतिः परमेश्वरः (तुरीयं धाम) पुरुषार्थचतुष्टयेषु चतुर्थं मोक्षमित्यर्थः (विवक्ति) उपदिशति। [वच परिभाषणे, अदादेर्लटि ‘जुहोत्यादिभ्यः श्लुः। बहुलं छन्दसि’ अ० २।४।७६ इत्यनेन शपः श्लुः। कुत्वं छान्दसम्] ॥ ननु पूर्वस्मिन् मन्त्रे मोक्षः ‘तृतीयं धाम’ इत्युक्तम्, अत्र च ‘तुरीयं धाम’ इति, तत् कथं संगच्छते, इति चेद् ब्रूमहे—प्रकृतिलोकः, जीवात्मलोकः, मोक्षलोकः इति तृतीयं धाम। धर्मः, अर्थः, कामः, मोक्षः इति चतुर्थं धाम ॥३॥

    भावार्थः

    सर्वान्तर्यामिणं सर्वशक्तिमन्तं सज्जनानामुन्नायकं दुष्टानां दण्डकं जगदीश्वरमनुभूय सर्वदुःखेभ्यो मुक्तिः प्राप्तव्या ॥३॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।९६।१९। २. गोविन्दुः यजमानानां गवां लम्भकः—इति सा०। गोविन्दुः गावः उदकं वाक् पृथिवी आदित्यरश्मयो वा, एतानि यो विन्दति स गोवित्। विद ज्ञाने, विद लाभे, विद सत्तायाम्—इति वि०।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Residing full well in all the organs of senses, the active soul, marching on the path of salvation, full of force, free to move in all spheres, the seeker after God, master of passions, wielding manifold powers, full of majesty, contemplating upon God, the Refuge of all like an ocean, the Urger of all the worlds, achieves the bliss of salvation.

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    Meaning

    Pervading every form of life and nature, adorable supreme Soma presence of divinity, abiding with stars and planets in motion, bearing infinite powers, vibrating with the waves of natures dynamics, vesting the cosmic structure, transcends to the fourth state of absolute bliss. Only the mighty sage speaks of the presence beyond speech. (Rg. 9-96-19)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (चमूषत्) દ્યુલોક અને પૃથિવીલોકમાં દ્યાવાપૃથિવીમય સમસ્ત જગતમાં રહેનાર સર્વત્ર વ્યાપક (श्येनः शकुनः) શંસનીય-ગતિમાન પ્રશંસનીય પ્રાપ્તિવાળા કલ્યાણકારી (विभृत्वा) વિશેષ ભરણ, પોષણ કરનારો (गोविन्दुः) વાણી વિદ્યા વિષયને પ્રાપ્ત થઈને (द्रप्सः) પોતાની અંદર ભરણીય અને ભક્ષણીય સાત્મ કરવા યોગ્ય શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મા (आयुधानि बिभ्रत्) જલોને ધારણ કરે છે. (अपां ऊर्मिं सचमानः) આપ્ત જનોની ભાવના-સ્તુતિ-પ્રાર્થનાનું સેવન કરતાં (महिषः) મહાન ઉપકારક સોમ-પરમાત્મા (तुरीयं धाम समुद्रं विवक्ति) ચાર-કાર્ય, કારણ, જીવલોકથી ઉપર મોક્ષ-આનંદ સાગરનું વિવેચન કરે છે-પ્રાપ્ત કરાવીને સ્વીકાર કરે છે. (૩)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सर्वान्तर्यामी, सर्वशक्तिमान सज्जनांची उन्नती करणाऱ्या दुष्टांना दंड देणाऱ्या जगदीश्वराची अनुभूती करून सर्व दु:खापासून मुक्ती करून घ्यावी. ॥३॥

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