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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 119
ऋषिः - श्रुतकक्षः आङ्गिरसः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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त꣡मिन्द्रं꣢꣯ वाजयामसि म꣣हे꣢ वृ꣣त्रा꣢य꣣ ह꣡न्त꣢वे । स꣡ वृषा꣢꣯ वृष꣣भो꣡ भु꣢वत् ॥११९॥
स्वर सहित पद पाठत꣢म् । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । वा꣣जयामसि । महे꣢ । वृ꣣त्रा꣡य꣢ । ह꣡न्त꣢꣯वे । सः । वृ꣡षा꣢꣯ । वृ꣣षभः꣢ । भु꣣वत् ॥११९॥
स्वर रहित मन्त्र
तमिन्द्रं वाजयामसि महे वृत्राय हन्तवे । स वृषा वृषभो भुवत् ॥११९॥
स्वर रहित पद पाठ
तम् । इन्द्रम् । वाजयामसि । महे । वृत्राय । हन्तवे । सः । वृषा । वृषभः । भुवत् ॥११९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 119
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 1;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 1;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में स्तोता लोग और प्रजाजन कह रहे हैं।
पदार्थ
प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। (महे) विशाल, (वृत्राय) सूर्यप्रकाश और जल-वृष्टि को रोकनेवाले मेघ के समान धर्म के बाधक पाप को (हन्तवे) नष्ट करने के लिए (तम्) उस प्रसिद्ध (इन्द्रम्) महापराक्रमी परमात्मा की हम (वाजयामसि) पूजा करते हैं। (वृषा) वर्षक (सः) वह परमेश्वर (वृषभः) धर्म की वर्षा करनेवाला (भुवत्) होवे ॥५॥ द्वितीय—राजा के पक्ष में। (महे वृत्राय) महान् शत्रु को (हन्तवे) मारने के लिए, हम (तम्) प्रजा से निर्वाचित उस (इन्द्रम्) अत्यन्त वीर राजा को (वाजयामसि) सहायता-प्रदान द्वारा बलवान् बनाते हैं, अथवा उत्साहित करते हैं। (वृषा) मेघतुल्य (सः) वह राजा (वृषभः) शत्रुओं के ऊपर आग्नेयास्त्रों की और प्रजा के ऊपर सुखों की वर्षा करनेवाला (भुवत्) होवे ॥५॥ इस मन्त्र में वृषा, वृष में छेकानुप्रास अलङ्कार है। वृषा वृषभः दोनों शब्द बैल के वाचक होने से पुनरुक्तवदाभास अलङ्कार भी है, यौगिक अर्थ करने से प्रतीयमान पुनरुक्ति का समाधान हो जाता है ॥५॥
भावार्थ
अनावृष्टि के दिनों में बादल जैसे सूर्य के प्रकाश को और जल को नीचे आने से रोककर भूमि पर अन्धकार और अवर्षण उत्पन्न कर देता है, वैसे ही पापविचार और पापकर्म भूमण्डल में प्रसार प्राप्त कर सत्य के प्रकाश को और धर्मरूप स्वच्छ जल को रोककर असत्य का अन्धकार और अधर्मरूप अवर्षण उत्पन्न कर देते हैं। इन्द्र नामक परमेश्वर जैसे मेघरूप वृत्र को मारकर सूर्य के प्रकाश को तथा वर्षाजल को निर्बाधगति से भूमि के प्रति प्रवाहित करता है, वैसे ही पापरूप वृत्र का विनाश कर संसार में सत्य के प्रकाश को और धर्म की वर्षा को मुक्तहस्त से प्रवाहित करे, जिससे सब भूमण्डल-निवासी लोग सत्य-ज्ञान और सत्य-आचरण में तत्पर तथा धार्मिक होकर अत्यन्त सुखी हों। इसी प्रकार राष्ट्र में राजा का भी कर्त्तव्य है कि दुष्ट शत्रुओं को विनष्ट कर सुख उत्पन्न करे ॥५॥
पदार्थ
(तम्-इन्द्रं वाजयामसि) हम उस ऐश्वर्यवान् परमात्मा को अर्चित करते हैं—स्तुति में लाते हैं “वाजयति-अर्चतिकर्मा” [निघं॰ ३.१४] (महे वृत्राय हन्तवे) महान् आवरक पाप भाव को नष्ट करने के लिये (सः-वृषा) वह परमात्मा सुखज्ञान का वर्षक (वृषभः-भुवत्) सुख ज्ञान वर्षाने में समर्थ हो।
भावार्थ
हमें सुखवर्षक परमात्मा की स्तुति करनी चाहिए जिससे वह अज्ञान—पाप का नाश करके सुख का वर्षानेवाला हो।
विशेष
ऋषिः—श्रुतकक्षः (अध्यात्मज्ञान का कक्ष—पार्श्व जिसने सुन लिया ऐसा उपासक आत्मा)॥<br>
विषय
आत्मिक शक्ति के चार लाभ
पदार्थ
पूर्व मन्त्र में श्रुतकक्ष ने कर्मेन्द्रियों, ज्ञानेन्द्रियों व इन्द्र की तेजस्विता के लिए प्रभु का गायन किया था। वह श्रुतकक्ष ही इस मन्त्र में कहता है कि इन्द्रियों को शक्तिशाली बनाने की बजाय हम (तम्) = उस (इन्द्रम्) = आत्मा को ही (वाजयामसि) = शक्तिशाली बनाते हैं। किसलिए? (महे) = महत्त्व प्राप्ति के लिए । इन्द्रियों की शक्ति बढ़ा लेने से किसी ने इस लोक में महिमा प्राप्त नहीं की। वस्तुतः बाह्य साम्राज्य के स्थान में अन्तः साम्राज्य को बढ़ाना ही श्रेयस्कर है। हम इस अन्तः साम्राज्य में आत्मिक शक्ति को बढ़ाने के लिए प्रयत्नशील होते हैं, (वृत्राय हन्तवे) = ज्ञान को आवृत करनेवाले इस कामरूप वृत्र के विनाश के लिए । इन्द्रियों की शक्ति बढ़ाने से वासनाओं को कुछ बढ़ावा मिलता है जबकि आत्मा की तेजस्विता इन वासनाओं को दग्ध कर देती है।
आत्मा की शक्ति बढ़ाकर (स:) = वह श्रुतकक्ष (वृषा) = शक्तिशाली (भुवत्) = बनता है। स्वयं शक्तिशाली होकर वह (वृषभ:) = औरों पर सुखों की वर्षा करनेवाला बनता है। इन्द्रियों की शक्ति को बढ़ानेवाला व्यक्ति निजी भोगों को बढ़ाने के मार्ग पर चलता है, औरों को हानि पहुँचाकर भी वह अपने को सुखी बनाने के लिए प्रयत्नशील होता है।
भावार्थ
हम आत्मिक तेज प्राप्त करें। वह हमें महत्त्व प्राप्त कराएगा, कामादि के विध्वंस के योग्य बनाएगा, इस प्रकार शक्तिसम्पन्न होकर हम लोकहित करनेवाले बनेंगे।
विषय
परमेश्वर की स्तुति
भावार्थ
भा० = ( तं ) = उस ( इन्द्रं ) = इन्द, ऐश्वर्यवान् प्रभु की हम ( वाजयामसि ) = ज्ञानपूर्वक स्तुति करते हैं । ( महे ) = बड़े भारी ( वृत्राय ) = विघ्नकारी ज्ञान के आवरण करने वाली तामस प्रवृत्तियों को ( हन्तवे ) = विनाश करने के लिये ( सः ) = वह ( वृषभ:) = ज्ञान और सुखों की वर्षा करने वाला और ( वृषा ) = समर्थ बड़ा बलवान् ( भुवत् ) = है।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - श्रुतकक्षः ।
छन्दः - गायत्री।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ स्तोतारः प्रजाजनाश्चाहुः।
पदार्थः
प्रथमः—परमात्मपक्षे। (महे) महते (वृत्राय) सूर्यप्रकाशस्य जलस्य स (आवरकाय) मेघाय इव धर्मावरकाय पाप्मने। पाप्मा वै (वृत्रः)। श० ११।१।५।७ द्वितीयार्थे चतुर्थी। महान्तं पाप्मानमित्यर्थः। वृत्रो वृणोतेः.... यदवृणोत् तद् वृत्रस्य वृत्रत्वमिति विज्ञायते। निरु० २।७। (हन्तवे) हन्तुम्। तुमर्थे सेसेन्०।’ अ० ३।४।९ इति हन् धातोः तुमर्थे तवेन् प्रत्ययः। तस्य नित्यत्वाद् हन्तवे इति पदस्य ञ्नित्यादिर्नित्यम् अ० ६।१।१९७ इत्याद्युदात्तत्वम्। (तम्) प्रसिद्धम् (इन्द्रम्) महावीरं परमेश्वरं (वाजयामसि) अर्चयामः। वाजयति अर्चतिकर्मा। निघं० ३।१४। इदन्तो मसि अ० ७।१।४६ इति मसः इदन्तत्वम्। (वृषा) वर्षकः (सः) परमेश्वरः (वृषभः२) धर्मस्य वृष्टिकर्त्ता (भुवत्) भवतु। लेटि बहुलं छन्दसि। अ० २।४।७३ इति शपो लुकि भूसुवोस्तिङि। अ० ७।३।८८ इति गुणनिषेधः। अथ द्वितीयः—राजपक्षे। (महे वृत्राय) महते शत्रवे, महान्तं शत्रुमित्यर्थः। (हन्तवे) हन्तुम्, वयम् (तम्) प्रजाभिर्निर्वाचितम् (इन्द्रम्) सुवीरं राजानम् (वाजयामसि३) निजसाहाय्यप्रदानेन बलिनं कुर्मः प्रोत्साहयामो वा। (वृषा) मेघतुल्यः (सः) असौ राजा (वृषभः) शत्रूणामुपरि आग्नेयास्त्राणां वर्षकः प्रजानामुपरि च सुखवर्षकः (भुवत्) भवेत् ॥५॥ अत्र वृषा, वृष इत्यत्र छेकानुप्रासः। वृषा-वृषभः इत्युभयोः बलीवर्दवाचकत्वाद् पुनरुक्तवदाभासोऽपि, यौगिकार्थनिष्पत्त्या च प्रतीयमानायाः पुनरुक्तेः परिहारः ॥५॥
भावार्थः
अनावृष्टिदिवसेषु मेघो यथा सूर्यप्रकाशं जलं चावृण्वन् भूम्यामन्धकारम् अवर्षणं च जनयति, तथैव पापविचाराः पापकर्माणि च भूमण्डले प्रसारं प्राप्य सत्यस्य प्रकाशं धर्मरूपं स्वच्छोदकं चावृत्याऽसत्यान्धकारम् अधर्मरूपमवर्षणं च जनयन्ति। इन्द्राख्यः परमेश्वरो यथा मेघरूपं वृत्रं हत्वा सूर्य-प्रकाशं वृष्टिजलं च निर्बाधगत्या भूमिं प्रति प्रवाहयति, तथैव स पापरूपं वृत्रं विनाश्य जगति सत्यस्य प्रकाशं धर्मस्य वृष्टिं चोन्मुक्तरूपेण प्रवाहयेत्, येन सर्वे भूमण्डलनिवासिनः सत्यज्ञान-सत्याचारपरायणा धार्मिकाश्च भूत्वा परमसुखिनो भवेयुः। तथैव राष्ट्रे नृपतेरपि कर्त्तव्यं यत्स दुष्टान् शत्रून् हत्वा सुखं जनयेदिति ॥५॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ८।९३।७, अथ० २०।४७।१, २०।१३७।१२—सर्वत्र ऋषिः सुकक्षः। साम० १२२२। २. वृषभः। लुप्तोपमम् इदम्। वृषभ इव। यथा वृषभः रेतसः वर्षिता तद्वद् वर्षिता उदकस्य भवत्वित्यर्थः—इति वि०। ३. वाजिनं बलिनं कुर्मः स्तुतिभिः—इति भ०।
इंग्लिश (2)
Meaning
We praise God for destroying the mighty forces of evil that overshadow knowledge. He, the Bestower of learning and happiness is All-powerful.
Translator Comment
He refers to God.
Meaning
That Indra, dynamic and enlightened mind and intelligence, we cultivate and strengthen for the elimination of the great waste, deep ignorance and suffering prevailing in the world. May that light and mind be exuberant and generous for us with showers of enlightenment. (Rg. 8-93-7)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (तम् इन्द्रं वाजयामसि) અમે એ ઐશ્વર્યવાન પરમાત્માને અર્ચિત કરીએ છીએ - સ્તુતિમાં લાવીએ છીએ (महे वृत्राय हन्तवे) મહાન આવરણ કરનાર પાપ ભાવનો નાશ કરવા માટે (सः वृषा) તે પરમાત્મા સુખજ્ઞાનના વર્ષક (वृषभः भुवत्) સુખજ્ઞાનના વર્ષા કરવામાં સમર્થ બને. (૫)
भावार्थ
ભાવાર્થ : મનુષ્યોએ સુખની વર્ષા કરનાર પરમાત્માની સ્તુતિ કરવી જોઈએ , જેથી તે અજ્ઞાન - પાપનો નાશ કરીને સુખની વર્ષા કરે. (૫)
उर्दू (1)
Mazmoon
پاپوں کے وِناش کے لئے اِندر کو پُکارو!
Lafzi Maana
(وِرترائے مہے) آتمک شکتیوں کو دبا دینے والے اندر کے روحانی دُشمنوں کام، کرودھ وغیرہ مہا پاپوں کے (ہنتوئے) وِناش کرنے کے لئے (تم اِندرم واج یام اسی) اُس اِندر پرم ایشوریہ وان کی ہم سب ارچنا کرتے ہیں، (سہ وِرشا بُھووت) وہ پرمیشور شکتیوں کی ورشا کرنے والا ہے اور (وِرشبھ) گیان تتھا سُکھ کی بھی ورشا کرتا رہتا ہے۔
Tashree
اِندر کی پُوجا کریں سُکھ، گیان، شکتی کے لئے، وِگھن، بادھا کرنے والے ناش ہونگے پاپ سب۔
मराठी (2)
भावार्थ
अनावृष्टीच्या दिवसात मेघ जसा सूर्याच्या प्रकाशाला व जल खाली येण्यास रोखून भूमीवर अंधकार व अवर्षण उत्पन्न करतो, तसेच पापविचार व पापकर्म भूमंडळावर पसरून सत्याच्या प्रकाशाला व धर्मरूप स्वच्छ जलाला रोखून असत्याचा अंधकार व अधर्मरूप अवर्षण उत्पन्न करतात. इंद्र नावाचा परमेश्वर जसे मेघरूप वृत्राला मारून सूर्याच्या प्रकाशाला व वर्षा जलाला निर्बाध भूमीवर प्रवाहित करते, तसेच पापरूप वृत्राचा विनाश करून संसारात सत्याच्या प्रकाशाला व धर्माच्या वृष्टिजलाला मुक्त हस्ताने प्रवाहित करावे. ज्यामुळे सर्व भूमंडळ निवासी लोक सत्य ज्ञान व सत्याचरणात तत्पर व धार्मिक बनून अत्यंत सुखी व्हावेत. याचप्रकारे राष्ट्रात राजाचेही कर्तव्य आहे, की दुष्ट शत्रूंना नष्ट करून सुखी करावे. ॥५॥
विषय
पुढील मंत्रात स्त्रोताजन आणि प्रजानन म्हणत आहेत -
शब्दार्थ
प्रथम अर्थ (परमात्मपूर) - (महे) (वृत्राय सूर्यप्रकाश व जलवृष्टीकच्या मार्गात (बाधा आणणाऱ्या) मेघाप्रमाणे धर्माच्या मार्गात अडथळा असणाऱ्या पापकर्माला (हन्तने) नष्ट करण्यासाठी (तम्) त्या प्रसिद्ध (इन्द्रम्) महापराक्रमी परमेश्वराची आम्ही (वाजयामसि) पूजा करतो. (वृषा) वर्षक (सः) तो परमेश्वर (वृषभः) धर्माची वृष्टी करणारा होवो.।। द्वितीय अर्थ - (राजाविषयी) (महे वृत्राय) महान शत्रूला (हन्तवे) मारण्यासाठी आम्ही (तम्) प्रजेद्वारे निवा४चित त्या (इन्द्रम्) अत्यंत वीर राजाला (वाजयामसि) आमचे यथाशक्य साह्य देऊन अधिक बलशाली करतो अथवा त्यास उत्साह प्रदान कतो. (वृषा) मेघाप्रमाणे असलेला (सः) तो आमचा राजा (वृषभः) शत्रूसैन्यावर आग्नेयास्त्राची आणि प्रजेवर सुखाची वृष्टी करणारा (भुवत्) होवो. ।। ५।।
भावार्थ
अनावृष्टीच्या काळी जसे मेघ सूर्यप्रकाशाला आणि जलाला खाली भूमीकडे येण्यापासून रोखून धरतो आणि परिणामी भूमीवर अंधाकर आणि अवर्षणाची स्थिती निर्माण करतो, त्याचप्रमाणे पापविचार आणि पापकर्मे या भूमंडलावर प्रसार पावतात आणइ तो पापपुंज सत्य प्रकाशाला व धर्मरूप निर्मळ जलाला थोपवून धरतो. परिणामी सर्वत्र असल्याचा अंधार आणि अधर्मरूप अवर्षण उत्पन्न होते. इन्द्र नामक परमेस्वर ज्याुप्रमाणे मेघरूप वृत्राचा वध करून सूर्याच्या प्रकाशाला आणि वृष्टिजलाला अखंडितपणे पृथ्वीकडे येण्यास मार्ग मुक्त करतो, त्याचप्रमाणे इन्द्र नाम परमेस्वराने पापरूप वृत्राचा नाश करून जगाला सत्याचा प्रकास आणि धर्माचा पाऊस मुक्तपणे द्यावा की ज्यामुळे सर्व भूमंडळवासी लोक सत्यज्ञान प्राप्त करून सत्या चरणाकडे उद्युक्त होतील. सर्वजण धार्मिक होऊन सुखी होतील. याचप्रमाणे राजाचे देखील कर्तव्य आहे की त्याने दुष्ट शत्रूंचा विनाश करून राष्ट्रात सुखाचा प्रसार करावा. ।। ५।।
विशेष
या मंत्रात ‘वृषा, वृष’ या शब्दांमुळे छेदानुप्रास आहे. ‘वृषा’ व ‘वृषभ’ हे दोन्ही शब्द बैलाचे अर्थाचे सूचक आहेत. त्यामुळे येथे पुनरुक्तवदाभास अलंकारदेखील आहे, पण यौगिक अर्थ केल्यामुळे पुनरुक्तीचा उलगडा होतो. ।। ५।।
तमिल (1)
Word Meaning
மகத்தான விருத்திரனைக் கொல்ல இந்த இந்திரனை பலமுள்ளவனாகச் செய்கிறோம். ஐசுவரியமளிக்கும் அவன் எமக்கு வர்ஷிப்பவனாக ஆகட்டும்.
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