Loading...

सामवेद के मन्त्र

  • सामवेद का मुख्य पृष्ठ
  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1204
    ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    39

    अ꣣भि꣢ प्रि꣣या꣢ दि꣣वः꣢ क꣣वि꣢꣫र्विप्रः꣣ स꣡ धार꣢꣯या सु꣣तः꣢ । सो꣡मो꣢ हिन्वे परा꣣व꣡ति꣢ ॥१२०४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ꣣भि꣢ । प्रि꣣या꣢ । दि꣣वः꣢ । क꣣विः꣢ । वि꣡प्रः꣢꣯ । वि । प्रः꣣ । सः꣢ । धा꣡र꣢꣯या । सु꣣तः꣢ । सो꣡मः꣢꣯ । हि꣣न्वे । पराव꣡ति꣢ ॥१२०४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभि प्रिया दिवः कविर्विप्रः स धारया सुतः । सोमो हिन्वे परावति ॥१२०४॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अभि । प्रिया । दिवः । कविः । विप्रः । वि । प्रः । सः । धारया । सुतः । सोमः । हिन्वे । परावति ॥१२०४॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1204
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 9
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 9; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 9
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अब परमात्मा से होनेवाली आनन्द-वर्षा का वर्णन करते हैं।

    पदार्थ

    (दिवः) तेजस्वी जीवात्मा के (प्रिया) प्रिय धाम अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनन्दमय कोशों को (अभि) अभिलक्षित करके (धारया) धारारूप से (सुतः) अभिषुत किया गया (कविः) क्रान्तद्रष्टा, (विप्रः) विशेषरूप से पूर्णता देनेवाला (स सोमः) वह रसागार परमेश्वर क्रमशः (परावति) सबसे परे स्थित आनन्दमयकोश में (हिन्वे) पहुँचता है ॥९॥

    भावार्थ

    रस के भण्डार परमेश्वर में से अभिषुत की गयी आनन्द-रस की धाराएँ जीवात्मा को पूर्णरूप से आप्लावित कर देती हैं ॥९॥ इस खण्ड में परमात्मा की महिमा, परमात्मा और जीवात्मा के मिलन तथा ब्रह्मानन्द-रस का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ नवम अध्याय में तृतीय खण्ड समाप्त ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    पदार्थ

    (सः-कविः) वह क्रान्तदर्शी सर्वज्ञ (विप्रः) विविध प्रकार से तृप्त करने वाला (सोमः) शान्तस्वरूप परमात्मा (धारया सुतः) स्तुतिवाणी१ द्वारा साक्षात् किया हुआ (दिवः) मोक्षधाम के (प्रिया) प्रिय—कमनीय सुखों को (परावति) दूर स्थान में (अभि) कहीं भी जहाँ स्तुति करी हों उन्हें लक्ष्य कर (हिन्वे) प्रेरित करता है॥९॥

    विशेष

    <br>

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    द्युलोक के उत्कृष्ट लोकों की ओर

    पदार्थ

    (परावति) = सुदूर प्रदेश में अथवा उत्कृष्ट रक्षक परमेश्वर में स्थित हुआ-हुआ व्यक्ति (दिव:) = द्युलोक के (प्रिया) = आनन्दमय सुन्दर लोकों के प्रति (अभिहिन्वे) = प्राप्त होता है। कौन– १. (कविः) = जो क्रान्तदर्शी बनता है— जो वस्तुओं के तत्त्व को देखने का प्रयत्न करता है । २. (विप्रः) = जो विशेष रूप से अपना पूरण करनेवाला है। जो सदा अपनी न्यूनताओं को दूर करके अपने में गुणों का पूरण करने में लगा हुआ है । ३. (सः) = वह जो (धारया) = वेदवाणी के द्वारा (सुतः) = संस्कृत जीवनवाला हुआ है । ४. (सोमः) = जो सौम्यस्वभाववाला— अभिमान से दूर है। =

    यह व्यक्ति ‘सूर्यद्वार' से जाता हुआ अन्त में ब्रह्मलोक को प्राप्त करता है। अब यह इस मर्त्यलोक में जन्म न लेकर सुदूर द्युलोक के किसी प्रकाशमय लोक में जन्म लेता है। जितना - जितना हम अपना जीवन वेदवाणी के अनुसार बनाएँगे उतना उतना ही हमारा जीवन परिष्कृत होता जाएगा [सुत:] हमारी न्यूनताएँ दूर हो जाएँगी [विप्रः] और हम अधिकाधिक क्रान्तदर्शी बनेंगे [कविः]। ऐसा बनने पर हम द्युलोक के उत्कृष्ट लोकों में जन्म लेनेवाले होगें और क्रमश: ब्रह्मलोक की ओर बढ़ रहे होंगे ।

    भावार्थ

    हम अपने जीवन को वैदिक जीवन बनाएँ और उत्कृष्ट लोकों में जन्म लेनेवाले हों ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    missing

    भावार्थ

    (कविः) क्रान्तदर्शी, (सुतः) ज्ञानसम्पन्न ! विद्वान् (परावति) परम रक्षास्थान, परमात्मा में स्थित होकर (विप्रः) मेधावी (धारया) परमात्मा से प्राप्त अपनी धारणा शक्ति या, रसधारा से (सः) वह (दिवः) सूर्य के समान ज्ञान के प्रकाश से उज्ज्वल (प्रिया) अति उत्तम कान्तियुक्त लोकों में (अभि हिन्वे) विहार करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ प्रतर्दनो दैवोदामिः। २-४ असितः काश्यपो देवलो वा। ५, ११ उचथ्यः। ६, ७ ममहीयुः। ८, १५ निध्रुविः कश्यपः। ९ वसिष्ठः। १० सुकक्षः। १२ कविंः। १३ देवातिथिः काण्वः। १४ भर्गः प्रागाथः। १६ अम्बरीषः। ऋजिश्वा च। १७ अग्नयो धिष्ण्या ऐश्वराः। १८ उशनाः काव्यः। १९ नृमेधः। २० जेता माधुच्छन्दसः॥ देवता—१-८, ११, १२, १५-१७ पवमानः सोमः। ९, १८ अग्निः। १०, १३, १४, १९, २० इन्द्रः॥ छन्दः—२-११, १५, १८ गायत्री। त्रिष्टुप्। १२ जगती। १३ बृहती। १४, १५, १८ प्रागाथं। १६, २० अनुष्टुप् १७ द्विपदा विराट्। १९ उष्णिक्॥ स्वरः—२-११, १५, १८ षड्जः। १ धैवतः। १२ निषादः। १३, १४ मध्यमः। १६,२० गान्धारः। १७ पञ्चमः। १९ ऋषभः॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमात्मन आनन्दधारासंपातो वर्ण्यते।

    पदार्थः

    (दिवः) द्योतमानस्य जीवात्मनः (प्रिया) प्रियाणि धामानि अन्नमयप्राणमयमनोमयविज्ञानमयानन्दमयकोशाख्यानि (अभि) अभिलक्ष्य (धारया) धारारूपेण (सुतः) अभिषुतः, (कविः) क्रान्तद्रष्टा, (विप्रः) विशेषेण पूर्णताप्रापकः (स सोमः) असौ रसागारः परमेश्वरः क्रमशः (परावति) परःस्थिते आनन्दमयकोशे (हिन्वे) गच्छति ॥९॥

    भावार्थः

    रसागारात् परमात्मनोऽभिषुता आनन्दरसधारा जीवात्मानं पूर्णत आप्लावयन्ति ॥९॥ अस्मिन् खण्डे परमात्ममहिम्नः परमात्मजीवात्मसंगमस्य ब्रह्मानन्दरसस्य च वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्ति ॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।१२।८, अ॒भि प्रि॒या दि॒वस्प॒दा सोमो॑ हिन्वा॒नो अ॑र्षति। विप्र॑स्य॒ धार॑या क॒विः—इति पाठः।

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O All-pervading, Glorious God, give us wealth bright with a thousand splendours, and endowed with fine power!

    इस भाष्य को एडिट करें

    Meaning

    Soma, divine poet creator, all peace and bliss, abiding in the heavenly beauty of the universe, inspiring and energising human creativity especially of the wise sage, sends down streams of joy in song overflowing the poetic imagination. (Rg. 9-12-8)

    इस भाष्य को एडिट करें

    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (सः कविः) તે ક્રાન્તદર્શી-સર્વજ્ઞ (विप्रः) વિવિધ રીતે તૃપ્ત કરનાર (सोमः) શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મા (धारया सुतः) સ્તુતિ વાણી દ્વારા સાક્ષાત્ કરેલ (दिवः) મોક્ષધામનાં (प्रिया) પ્રિય-મનોહર સુખોને (परावति) દૂર સ્થાનમાં (अभि) ક્યાંય પણ જ્યાં સ્તુતિ કરી હોય તેને લક્ષ્ય કરીને (हिन्वे) પ્રેરિત કરે છે. (૯)
     

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    रसाचा भांडार असलेल्या परमेश्वराकडून सिंचित केलेली आनंद-रस धारा जीवात्म्याला पूर्णपणाने आप्लवित करतात ॥९॥ या खंडात परमात्म्याचा महिमा, परमात्मा व जीवात्म्याचे मिलन व ब्रह्मानंद रसाचे वर्णन असल्यामुळे या खंडाची पूर्व खंडाबरोबर संगती आहे

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top