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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1224
    ऋषिः - सुकक्ष आङ्गिरसः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    29

    गि꣣रा꣢꣫ वज्रो꣣ न꣡ सम्भृ꣢꣯तः꣣ स꣡ब꣢लो꣣ अ꣡न꣢पच्युतः । व꣣व꣢क्ष उ꣣ग्रो꣡ अस्तृ꣢꣯तः ॥१२२४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    गि꣣रा꣢ । व꣡ज्रः꣢꣯ । न । स꣡म्भृ꣢꣯तः । सम् । भृ꣣तः । स꣡ब꣢꣯लः । स । ब꣣लः । अ꣡न꣢꣯पच्युतः । अन् । अ꣣पच्युतः । ववक्षे꣢ । उ꣣ग्रः꣢ । अ꣡स्तृ꣢꣯तः । अ । स्तृ꣣तः ॥१२२४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    गिरा वज्रो न सम्भृतः सबलो अनपच्युतः । ववक्ष उग्रो अस्तृतः ॥१२२४॥


    स्वर रहित पद पाठ

    गिरा । वज्रः । न । सम्भृतः । सम् । भृतः । सबलः । स । बलः । अनपच्युतः । अन् । अपच्युतः । ववक्षे । उग्रः । अस्तृतः । अ । स्तृतः ॥१२२४॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1224
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 9; खण्ड » 6; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में फिर उसी विषय में कहा गया है।

    पदार्थ

    (गिरा) निर्घोष से (वज्रः न) जैसे विद्युद्वज्र संयुक्त होता है, वैसे ही (गिरा) वेदवाणी वा प्रभावशालिनी वाणी से (सम्भृतः) संयुक्त, (सबलः) बलवान् (अनपच्युतः) अविचलित, (उग्रः) प्रचण्ड, (अस्तृतः) अहिंसित इन्द्र अर्थात् परमेश्वर, जीवात्मा वा राजा (ववक्षे) जगत् के भार को, शरीर के भार को वा राष्ट्र के भार को वहन करता है ॥३॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥३॥

    भावार्थ

    जिसकी वाणियों का प्रभाव वज्रनिर्घोष के समान होता है, वह बलियों में बली, दुष्टों के प्रति प्रचण्ड, किसी से जीता न जा सकनेवाला, शत्रुओं को जीतनेवाला जो परमेश्वर, जीवात्मा और राजा है, उसे सहायक पाकर सब लोग जीवन-सङ्ग्राम में विजयी होवें ॥३॥ इस खण्ड में पुरोहित, विद्वान् स्नातक तथा परमात्मा, जीवात्मा और राजा का विषय वर्णित होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ नवम अध्याय में षष्ठ खण्ड समाप्त ॥

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    पदार्थ

    (गिरा) वह स्तुति वाणी से (वज्रः-न सम्भृतः) वज्रसमान दुःखों से वर्जित वाला सम्यक् धारण करने योग्य (सः-बलः) वह बलवान् (अनपच्युतः) अपच्युत न करने योग्य (उग्रः-अस्तृतः) तेजस्वी अहिंसनीय (ववक्ष) प्राप्त होता है॥३॥

    विशेष

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    विषय

    वेदवाणी के द्वारा

    पदार्थ

    प्रत्यङ्ग में रसवाला (गिरा) = वेदवाणी के द्वारा १. (वज्रो न) = वज्र की भाँति बनता है। अपने आहार - विहार को वेदवाणी के अनुकूल करता हुआ दृढ़ शरीरवाला होता है । २. (संभृतः) = बड़े उत्तम ढङ्ग से अपनी इन्द्रियों का भरण-पोषण करता है ३. (सबल:) = मानस बल के लिए होता है, अतएव ४. - (अनपच्युतः) = अपने कर्त्तव्य पथ से भ्रष्ट नहीं किया जा सकता । स्तुति - निन्दा, धन की प्राप्ति व हानि व जीवन-मृत्यु का भय इसे न्याय्य मार्ग से विचलित नहीं कर पाता, ५. उग्र:=[High, noble] यह सदा उदात्त स्वभाववाला बनता है ६. और अस्तृत:-अहिंसित व अजेय बनता हुआ ववक्षे=उन्नति-पथ पर आगे और आगे बढ़ता है ।

    भावार्थ

    वेदवाणी के अनुकूल चलने से १. शरीर वज्र-तुल्य बनता है २. इन्द्रियाँ शक्तिसंभृत होती हैं ३. मन सबल तथा अविचलित होता है ४. मनुष्य उदात्त व अजेय बनकर उन्नत होता चलता है।
     

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    विषय

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    भावार्थ

    (सः) वह (बलः) बलवान् (अनपच्युतः) कभी अपने कर्त्तव्य जगत् रचनादि कार्यों से न डिगने वाला (उग्रः) दुर्जनों के प्रति अति उग्रस्वभाव (अस्तृतः) कभी न हिंसित (वज्रः न) विघ्र नाशक आयुध के समान (गिरा) वेदवाणी द्वारा (सम्भृतः) उत्तम रीति से धारण किया गया (ववक्षे) संसार को धारण करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ प्रतर्दनो दैवोदामिः। २-४ असितः काश्यपो देवलो वा। ५, ११ उचथ्यः। ६, ७ ममहीयुः। ८, १५ निध्रुविः कश्यपः। ९ वसिष्ठः। १० सुकक्षः। १२ कविंः। १३ देवातिथिः काण्वः। १४ भर्गः प्रागाथः। १६ अम्बरीषः। ऋजिश्वा च। १७ अग्नयो धिष्ण्या ऐश्वराः। १८ उशनाः काव्यः। १९ नृमेधः। २० जेता माधुच्छन्दसः॥ देवता—१-८, ११, १२, १५-१७ पवमानः सोमः। ९, १८ अग्निः। १०, १३, १४, १९, २० इन्द्रः॥ छन्दः—२-११, १५, १८ गायत्री। त्रिष्टुप्। १२ जगती। १३ बृहती। १४, १५, १८ प्रागाथं। १६, २० अनुष्टुप् १७ द्विपदा विराट्। १९ उष्णिक्॥ स्वरः—२-११, १५, १८ षड्जः। १ धैवतः। १२ निषादः। १३, १४ मध्यमः। १६,२० गान्धारः। १७ पञ्चमः। १९ ऋषभः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनरपि तमेव विषयमाह।

    पदार्थः

    (गिरा) निर्घोषेण (वज्रः न) कुलिशः इव (गिरा) वेदवाचा प्रभावशालिन्या वा वाचा (सम्भृतः) संयुक्तः (सबलः) बलवान्, (अनपच्युतः) अविचलितः, (उग्रः) प्रचण्डः, (अस्तृतः) अहिंसितः इन्द्रः परमेश्वरो जीवात्मा नृपतिर्वा (ववक्षे) जगद्भारं देहभारं राष्ट्रभारं वा वहति। [वह प्रापणे, लडर्थे लिटि छान्दसः सुगागमः] ॥३॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥३॥

    भावार्थः

    यस्य वाचां प्रभावो वज्रनिर्घोषवद् भवति स बलिनां बली, दुष्टेषु प्रचण्डः, केनाप्यजय्यः, परेषां पराजेता परमेश्वरो जीवात्मा राजा च योऽस्ति तं सहायं प्राप्य सर्वे जीवनसङ्ग्रामे विजयिनो जायन्ताम् ॥३॥ अस्मिन् खण्डे पुरोहितस्य, विदुषः स्नातकस्य, परमात्मजीवात्मनृपतीनां च विषयस्य वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्ति ॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ८।९३।९, अथ० २०।४७।३, १३७।१४। सर्वत्र ‘उग्रो’ इत्यत्र ‘ऋ॒ष्वो’ इति पाठः।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    That powerful intellect, never failing in its duty, strong, invincible, solid like a weapon, sharpened by Vedic study, sustains the universe.

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    Meaning

    Held in and by the voice of divinity like the roar of thunder and the flood of sun-rays, it is powerful, unfallen, irrepressible and lofty with thought, so let it express itself freely. (Rg. 8-93-9)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (गिरा) તે સ્તુતિ વાણીથી (वज्रः न सम्भृतः) વજ્ર સમાન દુઃખોથી વર્જિતવાળા સમ્યક્ ધારણ કરવા યોગ્ય, (सः बलः) તે બળવાન (अनपच्युतः) અપચ્યુત ન કરવા યોગ્ય, (उग्रः अस्तृतः) તેજસ્વી અહિંસનીય (ववक्ष) પ્રાપ્ત થાય છે. (૩)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्याच्या वाणीचा प्रभाव वज्रनिनादाप्रमाणे असतो तो बलवानामध्ये बलवान, दुष्टांसमोर अत्यंत प्रबल प्रतापी, अजिंक्य, शत्रूंना जिंकणारा असतो. परमेश्वर, जीवात्मा व राजा यांना सहायक समजून सर्व लोकांनी जीवनसंग्रामात विजयी व्हावे. ॥३॥ या खंडात पुरोहित विद्वान, स्नातक व परमात्मा, जीवात्मा व राजाचा विषय वर्णित असल्यामुळे या खंडाची पूर्व खंडाबरोबर संगती आहे

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