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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1243
    ऋषिः - अग्नयो धिष्ण्या ऐश्वराः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - द्विपदा विराट् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम -
    34

    दि꣣वो꣢ ध꣣र्त्ता꣡सि꣢ शु꣣क्रः꣢ पी꣣यू꣡षः꣢ स꣣त्ये꣡ विध꣢꣯र्मन्वा꣣जी꣡ प꣢वस्व ॥१२४३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दि꣣वः꣢ । ध꣣र्त्ता꣢ । अ꣣सि । शुक्रः꣢ । पी꣣यू꣡षः꣢ । स꣣त्ये꣢ । वि꣡ध꣢꣯र्मन् । वि । ध꣣र्मन् । वाजी꣢ । प꣢वस्व ॥१२४३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दिवो धर्त्तासि शुक्रः पीयूषः सत्ये विधर्मन्वाजी पवस्व ॥१२४३॥


    स्वर रहित पद पाठ

    दिवः । धर्त्ता । असि । शुक्रः । पीयूषः । सत्ये । विधर्मन् । वि । धर्मन् । वाजी । पवस्व ॥१२४३॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1243
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 9; खण्ड » 8; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में फिर परमात्मा का विषय है।

    पदार्थ

    हे सोम अर्थात् जगत् के स्रष्टा परमात्मन् ! आप (दिवः) खगोल में विद्यमान लोकलोकान्तरों के (धर्ता) धारण करनेवाले, (शुक्रः) तेजस्वी एवं पवित्र और (पीयूषः) आनन्दरसमय (असि) हो। (वाजी) बलवान् आप (विधर्मन्) विशेष धर्मों से युक्त (सत्ये) मुझे सत्य चरित्रवाले उपासक के अन्दर (पवस्व) बहो ॥३॥

    भावार्थ

    तेजस्वी, पवित्र और आनन्दवान् परमेश्वर अपने उपासकों को भी तेजस्वी, पवित्र और आनन्दयुक्त कर देता है ॥३॥ इस खण्ड में परमात्मा, राजा, आचार्य, ज्ञानरस और आनन्दरस का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ नवम अध्याय में अष्टम खण्ड समाप्त ॥

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    पदार्थ

    (शुक्रः-पीयूषः-वाजी) हे सोम शान्तस्वरूप परमात्मन्! तू शुभ्र-तेजस्वी अमृतरूप अमृत अन्नभोग वाला (दिवः-धर्ता-असि) मोक्षधाम का धारक है (सत्ये विधर्मन् पवस्व) सत्यस्वरूप विशेष धर्म सम्पन्न उपासक आत्मा में प्राप्त हो॥३॥

    विशेष

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    विषय

    सत्य में स्थिति

    पदार्थ

    हे सोम ! तू १. (दिव:) = प्रकाश का (धर्ता असि) = धारण करनेवाला है। ज्ञानाग्नि का तो ईंधन ही यह है। इसके अभाव में ज्ञानाग्नि बुझ जाती है । २. (शुक्र:) = तू दीप्तिमान् है । मन को द्वेषादि मलों से रहित करके चमका देनेवाला है। ३. (पीयूष:) = तू अमृत है। शरीर को रोगों से बचाकर तू असमय में मृत्यु का शिकार नहीं होने देता । ४. तू (सत्ये विधर्मन्) = अपने रक्षक को सत्य में धारण करनेवाला है। सोमरक्षक सत्यवादी तो होता ही है और इस सत्य का पालन करता हुआ वह सत्य प्रभु का पानेवाला बनता है । ५. (वाजी) = शक्ति देनेवाला होता हुआ तू (पवस्व) = हमारे शरीर में प्रवाहित हो । 

    भावार्थ

    सोम ज्योति, नैर्मल्य व नीरोगता को देता है— सत्य हमें प्रभु में स्थापित करता है और हममें शक्ति का संचार करता है ।

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    विषय

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    भावार्थ

    हे (सोम) सर्वोत्पादक ! तू (शुक्रः) तेजःस्वरूप, शुक्ल, कान्तिमान् (दिवः) सूर्य को भी (धर्त्ता) धारण करने हारा, (सत्ये) सत्यस्वरूप (विधर्मन्) विश्व को नाना रूप से धारण करने हारे परमेश्वर में (पीयूषः) समस्त जीवों द्वारा पान करने, उनको तृप्त कर अनुकूल संवेदन करने योग्य, अनन्त आनन्दस्वरूप, (वाजी) बलवान्, ऐश्वर्यवान् होकर (पवस्व) प्रकाशित हो।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ प्रतर्दनो दैवोदामिः। २-४ असितः काश्यपो देवलो वा। ५, ११ उचथ्यः। ६, ७ ममहीयुः। ८, १५ निध्रुविः कश्यपः। ९ वसिष्ठः। १० सुकक्षः। १२ कविंः। १३ देवातिथिः काण्वः। १४ भर्गः प्रागाथः। १६ अम्बरीषः। ऋजिश्वा च। १७ अग्नयो धिष्ण्या ऐश्वराः। १८ उशनाः काव्यः। १९ नृमेधः। २० जेता माधुच्छन्दसः॥ देवता—१-८, ११, १२, १५-१७ पवमानः सोमः। ९, १८ अग्निः। १०, १३, १४, १९, २० इन्द्रः॥ छन्दः—२-११, १५, १८ गायत्री। त्रिष्टुप्। १२ जगती। १३ बृहती। १४, १५, १८ प्रागाथं। १६, २० अनुष्टुप् १७ द्विपदा विराट्। १९ उष्णिक्॥ स्वरः—२-११, १५, १८ षड्जः। १ धैवतः। १२ निषादः। १३, १४ मध्यमः। १६,२० गान्धारः। १७ पञ्चमः। १९ ऋषभः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनरपि परमात्मविषयमाह।

    पदार्थः

    हे सोम जगत्स्रष्टः परमेश ! त्वम् (दिवः) खगोले विद्यमानानां लोकलोकान्तराणाम् (धर्ता) धारयिता, (शुक्रः) तेजस्वी पवित्रश्च, (पीयूषः) आनन्दरसमयश्च (असि) विद्यसे। (वाजी) बलवान् त्वम् (विधर्मन्) विशिष्टधर्मयुक्ते (सत्ये) सत्यचरित्रे मयि (पवस्व) प्रवहस्व ॥३॥

    भावार्थः

    तेजस्वी पवित्र आनन्दी च परमेश्वरः स्वोपासकानपि तेजस्विनः पवित्रानानन्दिनश्च करोति ॥३॥ अस्मिन् खण्डे परमात्मनो नृपतेराचार्यस्य ज्ञानस्यानन्दरसस्य च वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्ति ॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।१०९।६।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Pacific God, lovely. Divine, Omnipotent and Sustainer of the Sun etc., art Thou. Purify us in the world of multifarious duties; beyond the reach of Present, Past and Future!

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    Meaning

    You are the sustainer of the heavenly regions of light, most blissful presence for experience in the yajna of truth and divine law, and the ultimate winner of the victory. Flow forth, divine Soma, purify and consecrate us in the presence. (Rg. 9-109-6)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (शुक्रः पीयूषः वाजी) હે સોમ-શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! તું શુભ્ર તેજસ્વી અમૃતરૂપ અમૃત અન્નભોગ વાળો (दिवः धर्ता असि) મોક્ષધામનો ધારક છે. (सत्ये विधर्मन् पवस्व) સત્ય સ્વરૂપ વિશેષ ધર્મ સંપન્ન ઉપાસક આત્મામાં પ્રાપ્ત થા. (૩)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    तेजस्वी, पवित्र व आनंदवान परमेश्वर आपल्या उपासकांनाही तेजस्वी, पवित्र व आनंदयुक्त करतो. ॥३॥

    टिप्पणी

    या खंडात परमात्म, राजा, आचार्य, ज्ञानरस व आनंदरसाचे वर्णन असल्यामुळे या खंडाची पूर्व खंडाबरोबर संगती आहे

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