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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1254
ऋषिः - पराशरः शाक्त्यः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम -
55
म꣡त्सि꣢ वा꣣यु꣢मि꣣ष्ट꣢ये꣣ रा꣡ध꣢से नो꣣ म꣡त्सि꣢ मि꣣त्रा꣡वरु꣢꣯णा पू꣣य꣡मा꣢नः । म꣢त्सि꣣ श꣢र्धो꣣ मा꣡रु꣢तं꣣ म꣡त्सि꣢ दे꣣वा꣢꣫न्मत्सि꣣ द्या꣡वा꣢पृथि꣣वी꣡ दे꣢व सोम ॥१२५४॥
स्वर सहित पद पाठम꣡त्सि꣢꣯ । वा꣣यु꣢म् । इ꣣ष्ट꣡ये꣢ । रा꣡ध꣢꣯से । नः꣣ । म꣡त्सि꣢꣯ । मि꣣त्रा꣢ । मि꣣ । त्रा꣢ । व꣡रु꣢꣯णा । पू꣣य꣡मा꣢नः । म꣡त्सि꣢꣯ । श꣡र्धः꣢꣯ । मा꣡रु꣢꣯तम् । म꣡त्सि꣢꣯ । दे꣣वा꣢न् । म꣡त्सि꣢꣯ । द्या꣡वा꣢꣯ । पृ꣣थि꣡वीइति꣢ । दे꣣व । सोम ॥१२५४॥
स्वर रहित मन्त्र
मत्सि वायुमिष्टये राधसे नो मत्सि मित्रावरुणा पूयमानः । मत्सि शर्धो मारुतं मत्सि देवान्मत्सि द्यावापृथिवी देव सोम ॥१२५४॥
स्वर रहित पद पाठ
मत्सि । वायुम् । इष्टये । राधसे । नः । मत्सि । मित्रा । मि । त्रा । वरुणा । पूयमानः । मत्सि । शर्धः । मारुतम् । मत्सि । देवान् । मत्सि । द्यावा । पृथिवीइति । देव । सोम ॥१२५४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1254
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में परमात्मा का कर्म वर्णित है।
पदार्थ
हे (देव) आनन्ददायक, (सोम) संसार के रचयिता परमात्मन् ! आप (नः) हमारी (इष्टये) अभीष्ट-सिद्धि के लिए और (राधसे) ऐश्वर्य के लिए (वायुम्) पवन को (मत्सि) हर्षित करते हो, (पूयमानः) प्राप्त किये जाते हुए आप (मित्रावरुणा) प्राण-अपान को (मत्सि) हर्षित करते हो, (मारुतं शर्धः) सैनिकों के बल को (मत्सि) हर्षित करते हो, (देवान्) विद्वान् जनों को (मत्सि) हर्षित करते हो, (द्यावापृथिवी) आकाश और भूमि को (मत्सि) हर्षित करते हो ॥२॥
भावार्थ
जो यह प्रकृति में सूर्य, चन्द्र, पवन, भूमि आदियों में, समाज में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदियों में और शरीर में जीवात्मा, मन, बुद्धि, प्राण आदियों में हर्ष, स्फूर्ति और कर्मनिष्ठा दिखायी देती है, वह सब परमात्मा द्वारा ही की हुई है ॥२॥
पदार्थ
(सोमदेव) हे शान्तस्वरूप परमात्मदेव (पूयमानः) तू योगाभ्यास द्वारा साक्षात् हुआ (नः-इष्टये राधसे) हमारी आभ्युदयिक कामना के लिये तथा नैःश्रेयसिक—मोक्षसिद्धि के लिये (वायुं मत्सि) आयु को३ हर्ष देने वाला बना४ (मित्रावरुणा मत्सि) प्राण-अपान को५ श्वास उच्छ्वास को हर्ष देने वाले कर दे (मारुतं शर्धः-मत्सि) प्राणों के बल६ को—जीवन शक्ति हर्ष देने वाला बना (देवान् मत्सि) इन्द्रियों को हर्षप्रद बना (द्यावापृथिवी मत्सि) ज्ञानाधार मन को और रसाधार शरीर को१ हर्ष देने वाला कर दे॥२॥
विशेष
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विषय
उल्लासमय जीवन, जीवन का उल्लास
पदार्थ
मन्त्र का ऋषि ‘पराशर:' [परा=away, शृ हिंसा] = शत्रुओं को दूर हिंसित करनेवाला ‘शाक्त्यः शक्ति का पुत्र; शक्ति का पुञ्ज है । यह दिव्य गुणोंवाले सोम का स्मरण करता हुआ कहता है – १. हे (देव सोम) = दिव्य गुणों के पुञ्ज, दिव्य गुणों को जन्म देनेवाले सोम! तू (नः) = हममें से (वायुम्) = गतिशील व्यक्ति को [वा-गति] (इष्टये) = यज्ञादि उत्तम कर्मों के लिए तथा (राधसे) = संसिद्धि व सफलता के लिए (मत्सि) = आनन्दयुक्त करता है । भाव यह है कि गतिशील व्यक्ति ही वासनाओं से बचकर सोम की रक्षा कर पाता है। यह सुरक्षित सोम उसे यज्ञादि में प्रवृत्त करता है और सफलता का लाभ कराता है। २. हे सोम! तू (मित्रावरुणा) = प्राणापान की साधना करनेवालों को (पूयमान:) = पवित्र करता हुआ (मत्सि) = आनन्दित करता है। (प्राणापान) = प्राणायाम की साधना से ही ऊर्ध्वरेतस् बनना सम्भव है। (ऊर्ध्वरेतस्) = बनने पर शरीर में रोग व मन में द्वेषादि मालिन्यों का नाश हो जाता है । इस प्रकार यह सोम साधक के जीवन को पवित्र व आनन्दित करनेवाला होता है । ३. हे सोम ! तू (मारुतं शर्धः) = प्राणों के बल को (मत्सि) = गतिशील तथा प्राणापान-साधक में उल्लासमय बनाता है। सोम के सुरक्षित होने पर प्राणों का बल बढ़ता है और जीवन में उल्लास का संचार होता है । ४. हे सोम! तू (देवान् मत्सि) = ज्ञान प्राप्त करके चमकनेवालों को उल्लसित करता है। 'ज्ञान-प्राप्ति' में लगा रहना भी सोम की सुरक्षा का साधन है। सुरक्षित सोम ज्ञानवृद्धि का साधन बन जाता है । ५. हे देव (सोम) = दिव्य सोम ! तू (द्यावापृथिवी) = द्युलोक तथा पृथिवीलोक को मत्सि-तृप्त व प्रीणित करता है । द्युलोक मस्तिष्क है, पृथिवी शरीर । सोम मस्तिष्क को उल्लसित करता है मनुष्य को ज्ञान की दीप्तियाँ प्राप्त होने लगती हैं [Flashes of light] तथा शरीर की नीरोगता भी एक आनन्द का अनुभव कराती है।
भावार्थ
हम दिव्य गुणों के साधक सोम के महत्त्व को समझकर उसकी रक्षा के लिए १. गतिशील बनें, २. प्राणायाम करें, और ३. ज्ञान-प्राप्ति में लगे रहें । इससे हमारा सारा जीवन उल्लासमय हो उठेगा ।
विषय
missing
भावार्थ
हे आत्मन् ! तू (वायुम्) वायु और प्राण को (मत्सि) प्रसन्न और चेतन करता है, (इष्ट्ये) अभीष्ट-प्राप्ति और (राधसे) आराधना के कारण (नः) हमको (मत्सि) आनन्दित करता है। (पूयमानः) सर्वत्र प्रकाशित होकर (मित्रावरुणौ) मित्र और वरुण सूर्य और मेघ और प्राण और अपान दोनों को (मत्सि) हर्षित करता है, गति देता है। (शर्धः) बलस्वरूप होकर (मारुतं) प्राण और प्रबल वायु को भी (मत्सि) हर्षित करता, मानों आनन्द में नचाता है। (मत्सि देवान्) समस्त सूर्य चन्द्रादि देवों एवं इन्द्रियों को (मत्सि) आनन्दित करता, उनको नियम से गति देता है, और हे (देव सोम) सबके प्रकाशक और उत्पादक प्रेरक आत्मन् ! (द्यावापृथिवी) द्यौ और पृथिवी, ज्ञानी और अज्ञानी नर और नारी दोनों को (मत्सि) हर्षित करता, एवं तृप्त करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१ पराशरः। २ शुनःशेपः। ३ असितः काश्यपो देवलो वा। ४, ७ राहूगणः। ५, ६ नृमेधः प्रियमेधश्च। ८ पवित्रो वसिष्ठौ वोभौ वा। ९ वसिष्ठः। १० वत्सः काण्वः। ११ शतं वैखानसाः। १२ सप्तर्षयः। १३ वसुर्भारद्वाजः। १४ नृमेधः। १५ भर्गः प्रागाथः। १६ भरद्वाजः। १७ मनुराप्सवः। १८ अम्बरीष ऋजिष्वा च। १९ अग्नयो धिष्ण्याः ऐश्वराः। २० अमहीयुः। २१ त्रिशोकः काण्वः। २२ गोतमो राहूगणः। २३ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः॥ देवता—१—७, ११-१३, १६-२० पवमानः सोमः। ८ पावमान्यध्येतृस्तृतिः। ९ अग्निः। १०, १४, १५, २१-२३ इन्द्रः॥ छन्दः—१, ९ त्रिष्टुप्। २–७, १०, ११, १६, २०, २१ गायत्री। ८, १८, २३ अनुष्टुप्। १३ जगती। १४ निचृद् बृहती। १५ प्रागाथः। १७, २२ उष्णिक्। १२, १९ द्विपदा पंक्तिः॥ स्वरः—१, ९ धैवतः। २—७, १०, ११, १६, २०, २१ षड्जः। ८, १८, २३ गान्धारः। १३ निषादः। १४, १५ मध्यमः। १२, १९ पञ्चमः। १७, २२ ऋषभः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमात्मनः कर्म वर्णयति।
पदार्थः
हे (देव) मोदप्रद (सोम) जगत्स्रष्टः परमात्मन् ! त्वम् (नः) अस्माकम् (इष्टये) अभीष्टसिद्धये (राधसे) ऐश्वर्याय च (वायुम्) पवनम् (मत्सि) हर्षयसि, (पूयमानः) प्राप्यमाणः त्वम्। [पवते गतिकर्मा। निघं० २।१४।] (मित्रावरुणा) प्राणापानौ (मत्सि) हर्षयसि। (मारुतं शर्धः) सैनिकानां बलम्। [शर्ध इति बलनाम। निघं० २।९।] (मत्सि) हर्षयसि, (देवान्) विद्वज्जनान् (मत्सि) हर्षयसि, (द्यावापृथिवी) दिवं धरित्रीं च (मत्सि) हर्षयसि। [मदी हर्षग्लेपनयोः भ्वादिः। बहुलं छन्दसि। अ० २।४।७३ इति शपो लुक्] ॥२॥
भावार्थः
यदिदं प्रकृतौ सूर्यचन्द्रपवनभूम्यादिषु, समाजे ब्रह्मक्षत्रविडादिषु, देहे च जीवात्ममनोबुद्धिप्राणापानादिषु हर्षः स्फूर्तिः कर्मनिष्ठादि च दृश्यते तत्सर्वं परमात्मकृतमेव ॥२॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ९।९७।४२।
इंग्लिश (2)
Meaning
O Refulgent God, Thou infusest life in the air. Thou makest us happy for the achievement of our goal, and for worship. O Pure God, Thou mo vest in motion the sun and the cloud through Thy strength, Thou makest the powerful wind blow joyfully, Thou makest all the forces of nature work gladly in obedience to Thy Law. Thou makest the learned and the ignorant rejoice !
Meaning
O self-refulgent Soma, you energise the Vayu for its windy fulfilment and accomplishment of the purpose of creative evolution and, purifying and sanctifying as you are, you energise and fulfil the centripetal and centrifugal modes of energy. You energise the sense of courage, boldness and even defiance of stormy energy, you energise the senses, mind and intelligence, and you energise and fulfil the heaven, earth and the skies of space. (Rg. 9-97-42)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (सोमदेव) હે શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! (पूयमानः) તું યોગાભ્યાસ દ્વારા સાક્ષાત્ થઈને (नः इष्टये राधसे) અમારી આભ્યુદયિક કામનાને માટે તથા નિઃશ્રેયસિક-મોક્ષસિદ્ધિને માટે (वायुं मत्सि) આયુને હર્ષ આપનાર બનાવ, (मित्रावरुणा मत्सि)પ્રાણ-અપાનનાં શ્વાસ-ઉચ્છ્વાસને હર્ષ દેનાર કરી દે, (मारुतं शर्धः मत्सि) પ્રાણોનાં બળને-જીવન શક્તિ હર્ષ આપનાર બનાવ, (देवान् मत्सि) ઇન્દ્રિયોને હર્ષપ્રદ બનાવ અને (द्यावापृथिवी मत्सि) જ્ઞાનના આધાર મનને તથા રસાધાર શરીરને હર્ષ-આનંદ આપનાર બનાવી દે. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
प्रकृतीमध्ये सूर्य, चंद्र, पवन, भूमी इत्यादीमध्ये, समाजात ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य इत्यादीमध्ये व शरीरात जीवात्मा, मन, बुद्धी, प्राण इत्यादीमध्ये हर्ष, स्फूर्ती व कर्मनिष्ठा दिसून येते, ती सर्व परमात्म्याद्वारेच दिलेली आहे. ॥२॥
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