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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1257
ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः स देवरातः कृत्रिमो वैश्वामित्रः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
35
ए꣣ष꣡ विप्रै꣢꣯र꣣भि꣡ष्टु꣢तो꣣ऽपो꣢ दे꣣वो꣡ वि गा꣢हते । द꣢ध꣣द्र꣡त्ना꣢नि दा꣣शु꣡षे꣢ ॥१२५७॥
स्वर सहित पद पाठए꣣षः꣢ । वि꣡प्रैः꣢꣯ । वि । प्रैः꣣ । अभि꣡ष्टु꣢तः । अ꣣भि꣢ । स्तु꣣तः । अपः꣢ । दे꣣वः꣢ । वि । गा꣣हते । द꣡ध꣢꣯त् । र꣡त्ना꣢꣯नि । दा꣣शु꣡षे꣢ ॥१२५७॥
स्वर रहित मन्त्र
एष विप्रैरभिष्टुतोऽपो देवो वि गाहते । दधद्रत्नानि दाशुषे ॥१२५७॥
स्वर रहित पद पाठ
एषः । विप्रैः । वि । प्रैः । अभिष्टुतः । अभि । स्तुतः । अपः । देवः । वि । गाहते । दधत् । रत्नानि । दाशुषे ॥१२५७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1257
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में परमात्मा द्वारा कर्मफल दिये जाने का वर्णन है।
पदार्थ
(विप्रैः) विद्वान् उपासकों से (अभिष्टुतः) अभिमुख होकर स्तुति किया गया (एषः) यह (देवः) कर्मफलप्रदाता परमेश्वर (अपः) मनुष्यों से किये गये कर्मों का (विगाहते) आलोडन अर्थात् निरीक्षण करता है और (दाशुषे) आत्मसमर्पणकर्ता शुभकर्मकारी मनुष्य को (रत्नानि) रमणीय फल (दधत्) प्रदान करता है ॥२॥
भावार्थ
न्यायकारी परमेश्वर शुभकर्मों का शुभ फल और अशुभ कर्मों का अशुभ फल कर्म करनेवाले को देता है ॥२॥
पदार्थ
(एषः-देवः) यह द्योतमान सोम—शान्त परमात्मा (विप्रैः-अभिष्टुतः) मेधावी उपासकों द्वारा अभीष्ट स्तुति में लाया गया (अपः-विगाहते) उनकी श्रद्धाओं में विगाहन करता है४ (दाशुषे रत्नानि दधत्) आत्मसमर्पी—श्रद्धावान् के लिये रमणीय अध्यात्म सुखैश्वर्यों को धारण कराने के हेतु॥२॥
विशेष
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विषय
प्रभु का प्रजाओं में प्रवेश [ तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत् ]
पदार्थ
१. जीव शरीर में प्रवेश करता है और प्रभु जीवों में प्रविष्ट होकर रहते हैं, परन्तु कब ? जब (एषः) = यह सर्वव्यापक (देवः) = प्रभु (विप्रैः) = विशेषरूप से अपना पूरण करनेवालों से (अभिष्टुतः) = स्तुत होते हैं । वैसे तो वे प्रभु प्राणिमात्र में क्या भूतमात्र में रह रहे हैं, सर्वव्यापकता के नाते वे कण-कण में विद्यमान हैं, परन्तु प्रभु का प्रकाश तो इन स्तोताओं में ही होता है जो अपनी कमियों को दूर करते हैं । २. जब हम अपनी न्यूनताओं को दूर कर उस प्रभु की स्तुति करते हैं तब (देवः) = ये दिव्य प्रभु (अपः) = कर्मशील प्रजाओं में (विगाहते) = प्रवेश करते हैं, अर्थात् ये विप्र उस प्रभु का प्रकाश अपने अन्दर देखते हैं। ३. अन्त:- प्रविष्ट प्रभु (दाशुषे) = दाश्वान् के लिए (रत्नानि दधत्) = रत्नों को धारण करते हैं । जो व्यक्ति दान देता है तथा प्रभु के प्रति अपना समर्पण करता है, प्रभु उसे रमणीय धन प्राप्त कराते हैं ।
भावार्थ
जीव का कल्याण इसी में है कि — १. वह ‘विप्र' बने - अपनी न्यूनताओं को दूर करके अपना पूरण करे, २. अप:- कर्मशील बने, ३. दाश्वान्- दाता और प्रभु के प्रति अर्पण करनेवाला हो। ऐसा करने पर ही यह वास्तविक सुख का निर्माण करनेवाला ‘शुन:शेप' होगा । गर्त=स्तुत्य प्रभु की ओर गति करनेवाला [अज्] यह सचमुच 'आजीगर्ति' हो जाएगा ।
विषय
missing
भावार्थ
(एषः) वह आत्मा (विप्रैः) मेघावी, ज्ञानी पुरुषों द्वारा (अभिस्तुतः) ठीक ठीक प्रकार से साक्षात् करके वर्णित किया हुआ (देवः) प्रकाशस्वरूप (अपः) समस्त प्रज्ञानों, कर्मों और लोकों को (वि गाहते) भ्रमण करता है। और (दाशुषे) आत्म समर्पण करने हारे साधक के (रत्नानि) नाना रमण योग्य सुखों, पदार्थों, या देहों को (दधत्) पुष्ट करता या धारण करता, या देता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१ पराशरः। २ शुनःशेपः। ३ असितः काश्यपो देवलो वा। ४, ७ राहूगणः। ५, ६ नृमेधः प्रियमेधश्च। ८ पवित्रो वसिष्ठौ वोभौ वा। ९ वसिष्ठः। १० वत्सः काण्वः। ११ शतं वैखानसाः। १२ सप्तर्षयः। १३ वसुर्भारद्वाजः। १४ नृमेधः। १५ भर्गः प्रागाथः। १६ भरद्वाजः। १७ मनुराप्सवः। १८ अम्बरीष ऋजिष्वा च। १९ अग्नयो धिष्ण्याः ऐश्वराः। २० अमहीयुः। २१ त्रिशोकः काण्वः। २२ गोतमो राहूगणः। २३ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः॥ देवता—१—७, ११-१३, १६-२० पवमानः सोमः। ८ पावमान्यध्येतृस्तृतिः। ९ अग्निः। १०, १४, १५, २१-२३ इन्द्रः॥ छन्दः—१, ९ त्रिष्टुप्। २–७, १०, ११, १६, २०, २१ गायत्री। ८, १८, २३ अनुष्टुप्। १३ जगती। १४ निचृद् बृहती। १५ प्रागाथः। १७, २२ उष्णिक्। १२, १९ द्विपदा पंक्तिः॥ स्वरः—१, ९ धैवतः। २—७, १०, ११, १६, २०, २१ षड्जः। ८, १८, २३ गान्धारः। १३ निषादः। १४, १५ मध्यमः। १२, १९ पञ्चमः। १७, २२ ऋषभः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमात्मनः कर्मफलदातृत्वमाह।
पदार्थः
(विप्रैः) विपश्चिद्भिः उपासकैः (अभिष्टुतः) आभिमुख्येन स्तुतः (एषः) अयम् (देवः) कर्मफलप्रदाता सोमः परमेश्वरः (अपः) मनुष्यैः कृतानि कर्माणि (विगाहते) आलोडयति, निरीक्षते इत्यर्थः। अथ च (दाशुषे) दानिने आत्मसमर्पकाय शुभकर्मकारिणे जनाय (रत्नानि) रमणीयानि फलानि (दधत्) ददाति ॥२॥
भावार्थः
न्यायकारी परमेश्वरः शुभकर्मणां शुभं फलमशुभकर्मणां चाशुभं फलं कर्मकर्त्रे प्रयच्छति ॥२॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ९।३।६।
इंग्लिश (2)
Meaning
Praised by the sages, this brilliant soul, dives deep into knowledge and action, and bestows rich gifts upon a self-abnegating worshipper.
Meaning
This spirit, divine, generous and refulgent, adored and exalted by sages and scholars, and holding jewel gifts of life for people of generous charity, watches and controls the actions of humanity and the laws of nature in operation. (Rg. 9-3-6)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (एषः देवः) એ પ્રકાશમાન સોમ-શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મા (विप्रैः अभिष्टुतः) મેધાવી ઉપાસકો દ્વારા અભીષ્ટ સ્તુતિમાં લાવીને (अपः विगाहते) તેઓની શ્રદ્ધાઓમાં વિગાહન-પ્રવેશ કરે છે. (दाशुषे रत्नानि दधत्) આત્મ સમર્પી-શ્રદ્ધાવાનને માટે રમણીય અધ્યાત્મ સુખ ઐશ્વર્યોને ધારણ કરાવે છે. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
न्यायकारी परमेश्वर शुभ कर्माचे शुभ फळ व अशुभ कर्मांचे अशुभ फळ, कर्म करणाऱ्यांना देतो. ॥२॥
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