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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1279
    ऋषिः - राहूगण आङ्गिरसः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    22

    ए꣣तं꣢꣫ त्यꣳ ह꣣रि꣢तो꣣ द꣡श꣢ मर्मृ꣣ज्य꣡न्ते꣢ अप꣣स्यु꣡वः꣢ । या꣢भि꣣र्म꣡दा꣢य꣣ शु꣡म्भ꣢ते ॥१२७९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए꣣त꣢म् । त्यम् । ह꣣रि꣡तः꣢ । द꣡श꣢꣯ । म꣣र्मृज्य꣡न्ते꣢ । अ꣣पस्यु꣡वः꣢ । या꣡भिः꣢꣯ । म꣡दा꣢꣯य । शु꣡म्भ꣢꣯ते ॥१२७९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एतं त्यꣳ हरितो दश मर्मृज्यन्ते अपस्युवः । याभिर्मदाय शुम्भते ॥१२७९॥


    स्वर रहित पद पाठ

    एतम् । त्यम् । हरितः । दश । मर्मृज्यन्ते । अपस्युवः । याभिः । मदाय । शुम्भते ॥१२७९॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1279
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 6
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अब देह में स्थित जीवात्मा के साधनों का वर्णन करते हैं।

    पदार्थ

    (एतं त्यम्) इस उस देहधारी जीवात्मा को (अपस्युवः) ज्ञान और कर्म के उपार्जन की इच्छुक (दश हरितः) दस इन्द्रियाँ (मर्मृज्यन्ते) अतिशय अलङ्कृत करती हैं, (याभिः) जिन दस इन्द्रियों से वह (मदाय) सुखभोगार्थ (शुम्भते) शोभित होता है ॥६॥

    भावार्थ

    यदि शरीर में ज्ञान प्राप्त करनेवाला और कर्म करनेवाला जीवात्मा मन, बुद्धि एवं प्राणों सहित ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय रूप साधनों को न प्राप्त करे तो, कैसे सफल हो सकता है ॥६॥ इस खण्ड में जीवात्मा और परमारत्मा के विषय का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ दशम अध्याय में तृतीय खण्ड समाप्त ॥

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    पदार्थ

    (एतं त्यम्) इस उस सोम—शान्तस्वरूप परमात्मा को (अपस्युवः) कर्म में व्याप्त होने वाले (दश हरितः) दश हरणशील—मन, बुद्धि, चित्त, अहङ्कार, श्रोत्रादि पञ्च ज्ञानेन्द्रियाँ और वाक्—वाणी का अपने मनन, विवेचन, स्मरण-चिन्तन, ममत्व, श्रवण-स्तवन आदि कर्मप्रवृत्तियाँ (मर्मृज्यन्ते) पुनः पुनः प्राप्त करती हैं६ (याभिः-मदाय शुम्भते) जिनके द्वारा हर्ष आनन्द कर७ सोम—शान्तस्वरूप परमात्मा शोभित—आत्मा में प्रकाशित होता है॥६॥

    विशेष

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    विषय

    क्रियाशीलता व शुद्धि

    पदार्थ

    (एतं त्यम्) = इस प्रभुभक्त को (दश) = दस (अपस्युव:) = कर्मों को चाहती हुई, अर्थात् कर्मों में व्यापृत हुई- हुई (हरितः) = मन का हरण करनेवाली इन्द्रियाँ (मर्मृज्यन्ते) = खूब शुद्ध कर डालती हैं । इन्द्रियाँ 'हरित्' हैं—ये मन का विषयों में हरण करती हैं, परन्तु जब ये निरन्तर कर्म में लगी रहती हैं [अपस्युव:] तब दसों इन्द्रियाँ आत्मा को शुद्ध कर डालती हैं।

    ये इन्द्रियाँ वे हैं (याभि:) = जिनसे (मदाय) = उल्लास के लिए (शुम्भते) = चमकता [Shines] है। इन्द्रियाँ जब निरन्तर कर्म में व्यापृत रहकर पवित्र बनती हैं तब वे मनुष्य के उल्लास के लिए होती हैं और यह उल्लास उसके चमकने का कारण होता है ।

    भावार्थ

    हम इन्द्रियों को सदा कर्मव्यापृत रक्खें, यही इन्हें शुद्ध व वश में करने का उपाय है।

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    विषय

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    भावार्थ

    (त्यं एतं) उस इसको (अपस्युवः) कर्म करने की इच्छा करने हारी चेष्टावान् (दश) दस (हरितः) हरणशील इन्द्रियां, प्राणवृत्तियां निरुद्ध होकर (मर्मृज्यन्ते) और अधिक उज्ज्वल होती हैं। (याभिः) जिनसे वह मुमुक्षु (इन्द्रस्य) अपने भीतर विराजमान ऐश्वर्यशील आत्मा के (मदाय) परम आनन्द प्राप्त करने के लिये (शुम्भते) स्वयं प्रकाशित, या सुशोभित, या तैयार होता है।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ पराशरः। २ शुनःशेपः। ३ असितः काश्यपो देवलो वा। ४, ७ राहूगणः। ५, ६ नृमेधः प्रियमेधश्च। ८ पवित्रो वसिष्ठौ वोभौ वा। ९ वसिष्ठः। १० वत्सः काण्वः। ११ शतं वैखानसाः। १२ सप्तर्षयः। १३ वसुर्भारद्वाजः। १४ नृमेधः। १५ भर्गः प्रागाथः। १६ भरद्वाजः। १७ मनुराप्सवः। १८ अम्बरीष ऋजिष्वा च। १९ अग्नयो धिष्ण्याः ऐश्वराः। २० अमहीयुः। २१ त्रिशोकः काण्वः। २२ गोतमो राहूगणः। २३ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः॥ देवता—१—७, ११-१३, १६-२० पवमानः सोमः। ८ पावमान्यध्येतृस्तृतिः। ९ अग्निः। १०, १४, १५, २१-२३ इन्द्रः॥ छन्दः—१, ९ त्रिष्टुप्। २–७, १०, ११, १६, २०, २१ गायत्री। ८, १८, २३ अनुष्टुप्। १३ जगती। १४ निचृद् बृहती। १५ प्रागाथः। १७, २२ उष्णिक्। १२, १९ द्विपदा पंक्तिः॥ स्वरः—१, ९ धैवतः। २—७, १०, ११, १६, २०, २१ षड्जः। ८, १८, २३ गान्धारः। १३ निषादः। १४, १५ मध्यमः। १२, १९ पञ्चमः। १७, २२ ऋषभः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ देहस्थस्य जीवात्मनः साधनानि वर्णयति।

    पदार्थः

    (एतं त्यम्) अमुं देहधारिणं जीवात्मानम् (अपस्युवः) ज्ञानकर्मोपार्जनकामाः (दश हरितः) दश स्वस्वविषयहारीणि इन्द्रियाणि (मर्मृज्यन्ते) अतिशयेन अलङ्कुर्वन्ति। [मृजू शौचालङ्कारयोः, चुरादिः] (याभिः) यैर्दशभिः इन्द्रियैः सः (मदाय) सुखभोगाय (शुम्भते) शोभते। [शुम्भ शोभार्थे, तुदादिः। आत्मनेपदं छान्दसम्] ॥६॥

    भावार्थः

    यदि देहे ज्ञाता कर्मकर्ता च जीवात्मा मनोबुद्धिप्राणसहितानि ज्ञानकर्मेन्द्रियरूपाणि साधनानि न प्राप्नुयात् तर्हि कथं सफलो भवेत् ॥६॥ अस्मिन् खण्डे जीवात्मपरमात्मविषयवर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्ति ॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।३८।३।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The ten organs of senses, ever intent upon work, purify the soul, where with, longing for salvation, it equips itself for acquiring the supreme bliss of God.

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    Meaning

    This Soma, ten senses and ten pranas of the devotee, well controlled past sufferance and pointed to concentrative meditation, present in uninvolved purity of form, by which experience the bright presence is glorified for the souls joy. (Rg. 9-38-3)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (एतं त्यम्) એ તે સોમ-શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્માને (अपस्युवः) કર્મમાં વ્યાપ્ત થનારા (दश हरितः) દશ હરણશીલ-મન, બુદ્ધિ, ચિત્ત, અહંકાર, શ્રોત્રાદિ પાંચ જ્ઞાનેન્દ્રિયો અને વાણીનું પોતાનાં મનન, વિવેચન, સ્મરણ-ચિંતન, મમત્વ, શ્રવણ અને સ્તવન આદિ કર્મ પ્રવૃત્તિઓ (मर्मृज्यन्ते) પુનઃ પુનઃ પ્રાપ્ત કરે છે. (याभिः मदाय शुम्भते) જેના દ્વારા હર્ષ-આનંદકર સોમ-શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મા શોભિત-આત્મામાં પ્રકાશિત થાય છે. (૬)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    शरीरात जर ज्ञान प्राप्त करणारा व कर्म करणारा जीवात्मा मन, बुद्धी व प्राणांसहित ज्ञानेंद्रिये व कर्मेंद्रिये या साधनांना प्राप्त न झाल्यास कसा सफल होऊ शकेल? ॥६॥

    टिप्पणी

    या खंडात जीवात्मा व परमात्मा यांच्या विषयी वर्णन असल्यामुळे या खंडाची पूर्व खंडाबरोबर संगती आहे

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