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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1283
ऋषिः - प्रियमेध आङ्गिरसः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
26
ए꣣ष꣢꣫ वृषा꣣ क꣡नि꣢क्रदद्द꣣श꣡भि꣢र्जा꣣मि꣡भि꣢र्य꣣तः꣢ । अ꣣भि꣡ द्रोणा꣢꣯नि धावति ॥१२८३॥
स्वर सहित पद पाठए꣣षः꣢ । वृ꣡षा꣢꣯ । क꣡नि꣢꣯क्रदत् । द꣣श꣡भिः꣢ । जा꣣मि꣡भिः꣢ । य꣣तः꣢ । अ꣣भि꣢ । द्रो꣡णा꣢꣯नि । धा꣣वति ॥१२८३॥
स्वर रहित मन्त्र
एष वृषा कनिक्रदद्दशभिर्जामिभिर्यतः । अभि द्रोणानि धावति ॥१२८३॥
स्वर रहित पद पाठ
एषः । वृषा । कनिक्रदत् । दशभिः । जामिभिः । यतः । अभि । द्रोणानि । धावति ॥१२८३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1283
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 4
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 4
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 4
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में जीवात्मा का कर्तव्य वर्णित है।
पदार्थ
(वृषा) बलवान् और (दशभिः जामिभिः) दस अंगुलियों से अर्थात् अंगुलियों के समान आपस में सम्बद्ध दस यम-नियमों से (यतः) नियन्त्रित हुआ (एषः) यह सोम जीवात्मा (द्रोणानि अभि) सांसारिक भोगों के प्रति (धावति) दौड़े ॥४॥
भावार्थ
सांसारिक भोगों में अति आसक्ति उचित नहीं है ॥४॥
पदार्थ
(एषः-वृषा) यह कामनावर्षक सोम—परमात्मा (दशभिः-जामिभिः-यतः) दश गति करने वाली बढ़ी-चढ़ी५ स्तुतियों—मन के मनन, बुद्धि के विवेचन, चित्त के स्मरण, अहङ्कार के ममत्व तथा पाँच ज्ञानेन्द्रियों के श्रवण आदि और वाक् इन्द्रिय के प्रकथन रूप स्तुतियों द्वारा वशीकृत—वश किया हुआ (कनिक्रदत्) साधु उपदेश करता हुआ (द्रोणानि-अभि धावति) अधिकारी उपासक पात्रों की ओर गति करता है—उनको प्राप्त होता है॥४॥
विशेष
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विषय
अन्तः व बाह्य पवित्रता
पदार्थ
२ (एषः) = यह प्रियमेध १. (वृषा) = शक्तिशाली होता है, वासनाओं का विनाश करके यह सोमशक्ति की रक्षा के द्वारा 'आङ्गिरस' अङ्ग-प्रत्यङ्ग में शक्तिवाला बनता है, वृषा होता है । २. (कनिक्रदत्) = वासनाओं से सदा बचे रहने के लिए यह प्रभु का खूब ही आह्वान करता है, सदा प्रभु के नामों का उच्चारण करता है । ३. (दशभिः जामिभिः) = दसों विषयों का अदन करने - [जभ=खाना]-वाली इन्द्रियों के दृष्टिकोण से यह (यतः) = संयत होता है। प्रभु-स्मरण के द्वारा यह इन्द्रियों को वश में करनेवाला बनता है और ४. (द्रोणानि) = गति के आधारभूत शरीरों - अपने [स्थूल व सूक्ष्म दोनों ही शरीरों को] (अभिधावति) = पवित्र कर डालता है। प्रभु-भक्त का शरीर नीरोग होता है और मन व बुद्धि भी निर्मल होते हैं । यह अन्दर व बाहर दोनों ओर से पवित्र होता है।
भावार्थ
मैं प्रभु-स्मरण से जितेन्द्रिय बनूँ । जितेन्द्रिय बनकर पवित्र होऊँ, निर्मल बनूँ
विषय
missing
भावार्थ
(वृषा) समस्त काम्य सुखों का वर्षण करने हारा, (एषः) यह आत्मा (दशभिः) दश (जामिभिः) भगिनीस्वरूप दश दिशाओं से (यतः) धारण किया गया (द्रोणानि) समस्त लोकों में (धावति) व्यापक हो रहा है। आत्मपक्ष में—(दश जामिभिः) वह आत्मा ज्ञान उत्पन्न करने हारी दश इन्द्रियों सहित (द्रोणाति धावति) देहरूप कलशों में व्यापक है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१ पराशरः। २ शुनःशेपः। ३ असितः काश्यपो देवलो वा। ४, ७ राहूगणः। ५, ६ नृमेधः प्रियमेधश्च। ८ पवित्रो वसिष्ठौ वोभौ वा। ९ वसिष्ठः। १० वत्सः काण्वः। ११ शतं वैखानसाः। १२ सप्तर्षयः। १३ वसुर्भारद्वाजः। १४ नृमेधः। १५ भर्गः प्रागाथः। १६ भरद्वाजः। १७ मनुराप्सवः। १८ अम्बरीष ऋजिष्वा च। १९ अग्नयो धिष्ण्याः ऐश्वराः। २० अमहीयुः। २१ त्रिशोकः काण्वः। २२ गोतमो राहूगणः। २३ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः॥ देवता—१—७, ११-१३, १६-२० पवमानः सोमः। ८ पावमान्यध्येतृस्तृतिः। ९ अग्निः। १०, १४, १५, २१-२३ इन्द्रः॥ छन्दः—१, ९ त्रिष्टुप्। २–७, १०, ११, १६, २०, २१ गायत्री। ८, १८, २३ अनुष्टुप्। १३ जगती। १४ निचृद् बृहती। १५ प्रागाथः। १७, २२ उष्णिक्। १२, १९ द्विपदा पंक्तिः॥ स्वरः—१, ९ धैवतः। २—७, १०, ११, १६, २०, २१ षड्जः। ८, १८, २३ गान्धारः। १३ निषादः। १४, १५ मध्यमः। १२, १९ पञ्चमः। १७, २२ ऋषभः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ जीवात्मनः कर्तव्यमाह।
पदार्थः
(वृषा) बलवान्, (दशभिः जामिभिः) दशभिः अङ्गुलिभिः, अङ्गुलिवत् परस्परसम्बद्धैः दशभिः यमनियमैः (यतः)नियन्त्रितः (एषः) अयं सोमः जीवात्मा (द्रोणानि अभि) सांसारिकान् भोगान् प्रति (धावति) धावेत् [विध्यर्थे लेट्] ॥४॥
भावार्थः
सांसारिकेषु भोगेष्वत्यासक्तिर्नोचिता ॥४॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ९।२८।४।
इंग्लिश (2)
Meaning
This God, the fulfiller of all desired joys, revealing the Vedas, held by ten sisters, the directions, pervades all the worlds.
Meaning
This omnificent shower of generous divinity vibrating by the dynamics of Prakrti and her tenfold mode of subtle and gross elements proclaims its presence loud and bold in beauteous forms of mutations and manifestations of nature in the universe. (Rg. 9-28-4)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (एषः वृषा) એ કામનાવર્ષક સોમ-પરમાત્મા (दशभिः जामिभिः यतः) દશ ગતિ કરનારી પ્રવૃદ્ધ સ્તુતિઓ-મનથી મનન, બુદ્ધિથી વિવેચન, ચિત્તથી સ્મરણ, અહંકારથી મમત્વ તથા પાંચ જ્ઞાનેન્દ્રિયોના શ્રવણ આદિ તથા વાક્-વાણી ઇન્દ્રિયના પ્રકથન રૂપ સ્તુતિઓ દ્વારા વશીકૃત-વશ કરેલ (कनिक्रदत्) સુંદર ઉપદેશ કરીને (द्रोणानि अभि धावति) અધિકારી ઉપાસક પાત્રોની તરફ ગતિ કરે છે-તેને પ્રાપ્ત થાય છે. (૪)
मराठी (1)
भावार्थ
सांसारिक भोगात अति आसक्ती योग्य नव्हे. ॥४॥
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