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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1286
ऋषिः - नृमेध आङ्गिरसः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
31
ए꣣ष꣢ क꣣वि꣢र꣣भि꣡ष्टु꣢तः प꣣वि꣢त्रे꣣ अ꣡धि꣢ तोशते । पु꣣ना꣢꣫नो घ्नन्नप꣣ द्वि꣡षः꣢ ॥१२८६॥
स्वर सहित पद पाठए꣣षः꣢ । क꣣विः꣢ । अ꣣भि꣡ष्टु꣢तः । अ꣣भि꣢ । स्तु꣣तः । प꣣वि꣡त्रे꣢ । अ꣡धि꣢꣯ । तो꣣शते । पुनानः꣢ । घ्नन् । अ꣡प꣢꣯ । द्वि꣡षः꣢꣯ ॥१२८६॥
स्वर रहित मन्त्र
एष कविरभिष्टुतः पवित्रे अधि तोशते । पुनानो घ्नन्नप द्विषः ॥१२८६॥
स्वर रहित पद पाठ
एषः । कविः । अभिष्टुतः । अभि । स्तुतः । पवित्रे । अधि । तोशते । पुनानः । घ्नन् । अप । द्विषः ॥१२८६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1286
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
प्रथम मन्त्र में परमात्मा का विषय है।
पदार्थ
(अभिष्टुतः) स्तुति किया हुआ (कविः) मेधावी, क्रान्तद्रष्टा (एषः) यह सोम परमेश्वर (पुनानः) अन्तःकरण को पवित्र करता हुआ (द्विषः) द्वेषवृत्तियों को (अपघ्नन्) मार भगाता हुआ (पवित्रे अधि) पवित्र अन्तरात्मा में (तोशते) प्रदीप्त होता है ॥१॥
भावार्थ
मलिन दर्पण में जैसे प्रतिबिम्ब भासित नहीं होता, वैसे ही मलिन अन्तरात्मा में परमेश्वर प्रकाशित नहीं होता ॥१॥
पदार्थ
(एषः-कविः) यह क्रान्तदर्शी सर्वज्ञ (अभिष्टुतः) स्तुति में लाया हुआ (पुनानः) पवित्र करता हुआ (द्विषः-अपघ्नन्) द्वेष भावनाओं को दूर हटाता हुआ (पवित्रे-अधितोशते) हृदय में प्राप्त होता है॥१॥
विशेष
ऋषिः—नृमेधः (मुमुक्षु बुद्धिवाला११ उपासक)॥ देवता—सोमः (शान्तस्वरूप परमात्मा)॥ छन्दः—गायत्री॥<br>
विषय
द्वेष से दूर
पदार्थ
पिछले मन्त्र में वर्णन था कि प्रियमेध ज्ञानी बनकर भी मनुष्यों के साथ ही निवास करनेवाला होता है— उनसे दूर नहीं भाग जाता । यह मनुष्यों के साथ निवास करने के कारण ही 'नृ-मेध'=मनुष्यों से मेलवाला कहलाता है । सदा मानव हितैषी कार्यों में लगे रहने से यह 'आङ्गिरस' शक्तिशाली बना रहता है। १. (एषः) = यह नृमेध (कवि:) = ज्ञान - सूर्योदय के कारण क्रान्तदर्शी है – वस्तुतत्त्व को जाननेवाला है। (अभिष्टुतः) = हित के कार्यों में लगे होने से सदा चारों ओर इसकी स्तुति होती है । अथवा (अभि) = दोनों ओर सोते-जागते [स्तुतमस्य] यह प्रभु का स्तवन करनेवाला होता है । २. इस प्रभु-स्तवन से यह (पवित्रे अधि) = उस पवित्र प्रभु में (तोशते) = सब कामादि वासनाओं का संहार कर देता है [तुष to kill]। ३. (पुनान:) = इस प्रकार यह अपने को निरन्तर पवित्र करता हुआ ४. (द्विषः) = द्वेष की भावनाओं को अपघ्नन्-अपने से दूर नष्ट कर देता है । एवं, नृमेध अपने जीवन में क्रान्तदर्शी बनकर निरन्तर प्रभु-स्तवन करता हुआ उस पवित्र प्रभु में स्थित होकर वासनाओं का विनाश कर डालता है—अपने को पवित्र कर लेता है और द्वेष की भावनाओं को दूर कर देता है।
भावार्थ
हम प्रभु का स्मरण करें और द्वेष से दूर रहें ।
संस्कृत (1)
विषयः
तत्रादौ परमात्मविषयमाह।
पदार्थः
(अभिष्टुतः) स्तुतिविषयीकृतः (कविः) मेधावी क्रान्तद्रष्टा (एषः) अयं सोमः परमेश्वरः (पुनानः) अन्तःकरणं पवित्रं कुर्वन्, (द्विषः) द्वेषवृत्तीः (अपघ्नन्) अपहिंसन् (पवित्रे अधि) पवित्रे अन्तःकरणे (तोशते२) दीप्यते ॥१॥
भावार्थः
मलिने दर्पणे यथा प्रतिबिम्बं न भासते तथैव मलिनेऽन्तरात्मनि परमेश्वरो न प्रकाशते ॥१॥
इंग्लिश (2)
Meaning
This Omniscient God, casting aside persons fall of hatred, this Purifier of all, and Uplifter of the down-trodden, applauded by all, lends contentment to a pure heart.
Meaning
This Soma, creative, inspiring and poetic spirit of universal joy, pure and sanctifying, manifests in the pure and pious consciousness of the devotees, eliminating disturbing negativities when it is contemplated with a concentrated mind. (Rg. 9-27-1)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (एषः कविः) એ ક્રાન્તદર્શી સર્વજ્ઞ (अभिष्टुतः) સ્તુતિમાં લાવીને (पुनानः) પવિત્ર કરીને (द्विषः अपघ्नन्) દ્વેષ ભાવનાઓને દૂર હટાવીને (पवित्रे अधितोशते) હૃદયમાં પ્રાપ્ત થાય છે.
मराठी (1)
भावार्थ
मलिन दर्पणात जसे प्रतिबिंब भासित होत नाही, तसेच मलिन अंतरात्म्यात परमेश्वर प्रकाशित होत नाही. ॥१॥
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