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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1291
    ऋषिः - प्रियमेध आङ्गिरसः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    25

    ए꣣ष꣢ शु꣣ष्म्य꣡दा꣢भ्यः꣣ सो꣡मः꣢ पुना꣣नो꣡ अ꣢र्षति । दे꣣वावी꣡र꣢घशꣳस꣣हा꣢ ॥१२९१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए꣣षः꣢ । शु꣣ष्मी꣢ । अ꣡दा꣢꣯भ्यः । अ । दा꣣भ्यः । सो꣡मः꣢꣯ । पु꣣नानः꣢ । अ꣣र्षति । दे꣣वावीः꣢ । दे꣣व । अवीः꣢ । अ꣣घशꣳसहा꣢ । अ꣣घशꣳस । हा꣢ ॥१२९१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एष शुष्म्यदाभ्यः सोमः पुनानो अर्षति । देवावीरघशꣳसहा ॥१२९१॥


    स्वर रहित पद पाठ

    एषः । शुष्मी । अदाभ्यः । अ । दाभ्यः । सोमः । पुनानः । अर्षति । देवावीः । देव । अवीः । अघशꣳसहा । अघशꣳस । हा ॥१२९१॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1291
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 6
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आगे पुनः परमात्मा का वर्णन है।

    पदार्थ

    (एषः) यह (शुष्मी) बलवान् (अदाभ्यः) दबाया या हराया न जा सकनेवाला, (देवावीः) दिव्यगुणों का रक्षक, (अघशंसहा) पापप्रशंसक भावों को नष्ट करनेवाला (सोमः) प्रेरक परमेश्वर (पुनानः) पवित्रता देता हुआ (अर्षति) सक्रिय है ॥६॥

    भावार्थ

    परमेश्वर से प्रेरणा प्राप्त करके सभी मनुष्य पवित्र हृदयवाले हों ॥६॥ इस खण्ड में परमात्मा का विषय वर्णित होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ दशम अध्याय में पञ्चम खण्ड समाप्त ॥

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    पदार्थ

    (एषः) यह (शुष्मी) बलवान् (अदाभ्यः) न दबनेवाला (पुनानः) पवित्र करनेवाला (देवावीः) मुमुक्षु उपासकों का रक्षक (अघशंसहा) पापप्रशंसक विचारों का नाशक (सोमः) शान्तस्वरूप परमात्मा (अर्षति) प्राप्त होता है॥६॥

    विशेष

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    विषय

    जीवन-यात्रा में आगे बढ़ना

    पदार्थ

    (एषः) = यह नृमेध १. (शुष्मी) = शत्रुओं का शोषण करता है, स्वयं २. (अदाभ्यः) = उन शत्रुओं से न दबता है, न हिंसित होता है ३. सोमः = शान्तस्वभाववाला होता है ४. पुनानः = अपने को पवित्र करने के स्वभाववाला होता है । इस प्रकार देवावी :- दिव्य गुणों को सब ओर से प्राप्त करनेवाला होता है अथवा अपने जीवन में दिव्य गुणों की रक्षा करनेवाला होता है और ५. (अघशंसहा) = [अघशंस इति स्तेननाम – नि० ३.२४.४] अपने अन्दर से चोर को नष्ट करनेवाला बनता है। अयज्ञियवृत्ति को ही यहाँ चोर कहा है- ‘अपञ्चयज्ञो मलिम्लुचः' पञ्चयज्ञ न करनेवाला चोर है । यह नृमेध इस ‘चोरवृत्ति' को अपने में से नष्ट करता है । यज्ञशेष को खानेवाला बनता है। इस प्रकार अपने जीवन में उपर्युक्त बातों को साधता हुआ (अर्षति) = यह नृमेध आगे और आगे बढ़ता चलता है।

    भावार्थ

    ‘शुष्मी, अदाभ्य, सोम, पुनान, देवावी और अघशंसहा' बनकर हम जीवन-यात्रा । में आगे बढ़ें।

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    विषय

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    भावार्थ

    (एषः) यह (अदाभ्यः) अमर, हिंसित न होने वाला, स्वतः पीड़ारहित (देवावीः) सब इन्द्रियों, देवों, पञ्चभूतों और दिव्य लोकों में भी व्यापक और उनका, रक्षक (अघशंसहा) पापवार्ता कहने हारे का विनाशक, (सोमः) सोम परमेश्वर (पुनानः) सब को पवित्र और प्रकाशित करता हुआ (अर्षति) सर्वत्र व्यापक है।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ पराशरः। २ शुनःशेपः। ३ असितः काश्यपो देवलो वा। ४, ७ राहूगणः। ५, ६ नृमेधः प्रियमेधश्च। ८ पवित्रो वसिष्ठौ वोभौ वा। ९ वसिष्ठः। १० वत्सः काण्वः। ११ शतं वैखानसाः। १२ सप्तर्षयः। १३ वसुर्भारद्वाजः। १४ नृमेधः। १५ भर्गः प्रागाथः। १६ भरद्वाजः। १७ मनुराप्सवः। १८ अम्बरीष ऋजिष्वा च। १९ अग्नयो धिष्ण्याः ऐश्वराः। २० अमहीयुः। २१ त्रिशोकः काण्वः। २२ गोतमो राहूगणः। २३ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः॥ देवता—१—७, ११-१३, १६-२० पवमानः सोमः। ८ पावमान्यध्येतृस्तृतिः। ९ अग्निः। १०, १४, १५, २१-२३ इन्द्रः॥ छन्दः—१, ९ त्रिष्टुप्। २–७, १०, ११, १६, २०, २१ गायत्री। ८, १८, २३ अनुष्टुप्। १३ जगती। १४ निचृद् बृहती। १५ प्रागाथः। १७, २२ उष्णिक्। १२, १९ द्विपदा पंक्तिः॥ स्वरः—१, ९ धैवतः। २—७, १०, ११, १६, २०, २१ षड्जः। ८, १८, २३ गान्धारः। १३ निषादः। १४, १५ मध्यमः। १२, १९ पञ्चमः। १७, २२ ऋषभः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनरपि परमात्मानं वर्णयति।

    पदार्थः

    (एषः) अयम् (शुष्मी) बलवान् (अदाभ्यः) दब्धुं पराजेतुमशक्यः, (देवावीः) दिव्यगुणानां रक्षकः, (अघशंसहा) पापप्रशंसकानां भावानां हन्ता (सोमः) प्रेरकः परमेश्वरः (पुनानः) पवित्रतां प्रयच्छन् (अर्षति) सक्रियोऽस्ति ॥६॥

    भावार्थः

    परमेश्वरात् प्रेरणां प्राप्य सर्वैः पवित्रहृदयैर्भाव्यम् ॥६॥ अस्मिन् खण्डे परमात्मविषयवर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्ति ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    This Invincible God, the Protector of the godly, the Slayer of the sinful, the Purifier of all, is Omnipresent.

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    Meaning

    This mighty undauntable Soma, pure and purifying, pervades and rolls in the universe everywhere, protector and promoter of the good and destroyer of sin and scandal. (Rg. 9-28-6)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (एषः)(शुष्मी) બળવાન (अदाभ्यः) ન દબાનાર (पुनानः) પવિત્ર કરનાર (देवावीः) મુમુક્ષુ ઉપાસકોનો રક્ષક (अघशंसहा) પાપ પ્રશંસક વિચારોનો નાશક (सोमः) શાન્ત-સ્વરૂપ પરમાત્મા (अर्षति) પ્રાપ્ત થાય છે. (૬)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वराकडून प्रेरणा प्राप्त करून सर्व माणसे पवित्र हृदयाची व्हावीत ॥६॥

    टिप्पणी

    या खंडात परमेश्वराचा विषय वर्णित असल्यामुळे या खंडाची पूर्व खंडाबरोबर संगती आहे

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