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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1317
    ऋषिः - वसुर्भारद्वाजः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः काण्ड नाम -
    26

    प꣣र्ज꣡न्यः꣢ पि꣣ता꣡ म꣢हि꣣ष꣡स्य꣢ प꣣र्णि꣢नो꣣ ना꣡भा꣢ पृथि꣣व्या꣢ गि꣣रि꣢षु꣣ क्ष꣡यं꣢ दधे । स्व꣡सा꣢र꣣ आ꣡पो꣢ अ꣣भि꣢꣫ गा उ꣣दा꣡स꣢र꣣न्त्सं꣡ ग्राव꣢꣯भिर्वसते वी꣣ते꣡ अ꣢ध्व꣣रे꣢ ॥१३१७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प꣣र्ज꣡न्यः꣢ । पि꣣ता꣢ । म꣣हिष꣡स्य꣢ । प꣣र्णि꣡नः꣢ । ना꣡भा꣢꣯ । पृ꣣थिव्याः꣢ । गि꣣रि꣡षु꣢ । क्ष꣡य꣢꣯म् । द꣣धे । स्व꣡सा꣢꣯रः । आ꣡पः꣢꣯ । अ꣣भि꣢ । गाः । उ꣣दा꣡स꣢रन् । उ꣡त् । आ꣡स꣢꣯रन् । सम् । ग्रा꣡व꣢꣯भिः । व꣣सते । वीते꣢ । अ꣣ध्वरे꣢ ॥१३१७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पर्जन्यः पिता महिषस्य पर्णिनो नाभा पृथिव्या गिरिषु क्षयं दधे । स्वसार आपो अभि गा उदासरन्त्सं ग्रावभिर्वसते वीते अध्वरे ॥१३१७॥


    स्वर रहित पद पाठ

    पर्जन्यः । पिता । महिषस्य । पर्णिनः । नाभा । पृथिव्याः । गिरिषु । क्षयम् । दधे । स्वसारः । आपः । अभि । गाः । उदासरन् । उत् । आसरन् । सम् । ग्रावभिः । वसते । वीते । अध्वरे ॥१३१७॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1317
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 9; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में पुनः सोम नाम से सोम ओषधि और जीवात्मा का वर्णन है।

    पदार्थ

    प्रथम—सोम ओषधि के पक्ष में। (महिषस्य) महान्, (पर्णिनः) पत्तों या डंठलोंवाले इस ओषधिराज सोम का (पर्जन्यः) बादल (पिता) पिता है। यह सोम (पृथिव्याः नाभा) भूमि के केन्द्रस्थलों में और (गिरिषु) पर्वतों पर (क्षयम्) निवास को (दधे) धारण करता है। बादल से (स्वसारः आपः) बहिनों के समान साथ-साथ चलनेवाली जल-धाराएँ (गाः अभि) भूमि-प्रदेशों की ओर (उद् आ सरन्) ऊपर से आती हैं। इस प्रकार (अध्वरे) वर्षारूप यज्ञ के (वीते) प्रवृत्त होने पर वे जल (गाः) भूमियों को (ग्रावभिः) प्राणों से (सं वसत) आच्छादित कर देते हैं ॥ अथर्ववेद में भी कहा गया है कि वर्षा के साथ भूमि पर प्राण बरसता है— प्रा॒णो अ॒भ्यव॑र्षीद् व॒र्षेण॑ पृथि॒वीं म॒हीम् (अथ० ११।४।५) ॥२॥ द्वितीय—जीवात्मा के पक्ष में। (महिषस्य) महत्त्वशाली, (पर्णिनः) ज्ञान-कर्म रूप पङ्खोंवाले इस सोम नामक जीवात्मा का (पिता) देह में जन्मदाता और पालनकर्ता (पर्जन्यः) मेघवत् सुखवर्षक परमात्मा है। यह आत्मा (पृथिव्याः) पार्थिव शरीर के (नाभा) केन्द्रभूत हृदय में और (गिरिषु) पर्वत के समान उन्नत मस्तिष्क-प्रकोष्ठों में (क्षयं) निवास को (दधे) धारण करता है। (स्वसारः) शरीर में रखी हुई (आपः) ज्ञानवाहक तन्तु-नाड़ियाँ (गाः अभि) ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों की ओर (उदासरन्) ऊपर से आती हैं और (अध्वरे) ज्ञान-यज्ञ तथा कर्म-यज्ञ के (वीते) प्रवृत्त होने पर (ग्रावभिः) ग्राह्य विषयों के साथ (संवसते) मिलती हैं, जिससे मनसहित ज्ञानेन्द्रियों से ज्ञान का ग्रहण और मनसहित कर्मेन्द्रियों से कर्म संपन्न होता है ॥२॥ यहाँ श्लेषालङ्कार है ॥२॥

    भावार्थ

    वर्षा से जो भूमि पर सोम आदि ओषधियाँ उत्पन्न होती हैं और प्राण बरसता है तथा शरीर में जो जीवात्मा मनसहित ज्ञानेन्द्रियों वा कर्मेन्द्रियों से ज्ञान ग्रहण करता वा कर्म करता है, वह सब जगदीश्वर के ही कर्तृत्व को प्रकट करता है ॥२॥

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    पदार्थ

    (महिषस्य पर्णिनः) महान्१ पर्णी—पर्ण—पालन—प्रशस्त पालन धर्म वाला२ (पर्जन्यः) तृप्तिकर्ता३ (पिता) पालक सोम—शान्त परमात्मा (पृथिव्या-नाभा) पार्थिव शरीर के मध्य में (गिरिषु क्षयं दधे) स्तुतिसाधनों४ मन, बुद्धि, चित्त, अहङ्कार और वाणी में स्थान बनाता है (स्वसारः-आपः-अधि गाः-उदासरन्) स्तुति वाणियों को अधिकृत कर स्वसरणशील उपासकजन५ ऊँचे उठते हैं (वीतेअध्वरे) प्राप्त अध्यात्मयज्ञ में अवसर पर (ग्रावभिः-‘ग्रावाणः’) वे स्तुति करने वाले विद्वान् जन६ (संवसते) आच्छादन—रक्षण प्राप्त करते हैं॥२॥

    विशेष

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    विषय

    गिरियों में निवास, स्तोताओं के साथ संवाद

    पदार्थ

    प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि 'वसु भारद्वाज' है— उत्तम निवासवाला, अपने में शक्ति को भरनेवाला । 'यह ऐसा कैसे बन पाया? इस प्रश्न का उत्तर निम्न है— १. यह सदा प्रातः- सायं प्रभु की पूजा करता है [मह पूजायाम् ], पूजा करने के कारण 'महिष' कहलाता है। प्रयत्न करके वासनाओं के आक्रमण से अपनी रक्षा करता है, अतः ‘पर्णी' कहलाता है । इस (महिषस्य पर्णिन:) = प्रभुपूजक आत्मरक्षा करनेवाले का (पिता) = रक्षक (पर्जन्यः) = परातृप्ति का जनक प्रभु होता है, अर्थात् प्रभु-स्मरण इसे सदा वासना से सुरक्षित रखता है। २. वासनाओं से सुरक्षित होकर यह (पृथिव्या नाभा) = [अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः] यज्ञों में (क्षयं दधे) = निवास करता है, अर्थात् यज्ञमय जीवन बिताता है । ३. इसलिए भी यह वासनाओं से बचा रहता है कि (गिरिषु) = गुरुओं में, उपदेष्टाओं में निवास करनेवाला होता है। ४. सदा अज्ञानान्धकार-निवारक गुरुओं के चरणों में उपस्थित होने से यह विलास के मार्ग पर नहीं जाता और इसके (आप:) = रेत:कण [आप:=रेतः] (स्वसारः) = आत्मतत्त्व की ओर ले जानेवाले (अभिगाः) = वेदवाणियों का लक्ष्य करके (उदासरन्) = ऊर्ध्वगतिवाले होते हैं । ५. ये वसु (ग्रावभिः) = स्तोताओं के साथ वीते-कान्त अध्वरे=हिंसाशून्य कर्मों में संवसते-उत्तम प्रकार से रहते हैं। सदा यज्ञमय कर्मों के करनेवाले होते हैं ।

    भावार्थ

    हम उल्लिखित बातों को अपने जीवन में लाकर 'वसु भारद्वाज' बनें । 

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    विषय

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    भावार्थ

    (पर्णिनः) ज्ञानसम्पन्न, (महिषस्य) महान्, बलवान् सोमरूप आत्मा का (पिता) पालक (पर्जन्यः) मेघ के समान आनन्दरसों का दाता प्रजापति परमात्मा ही है। वह (पृथिव्याः) भूलोक के (नाभा) नाना प्रकार के सम्बन्धों में (गिरिषु) विद्वानों में (क्षयं) निवास को (दुधे) धारण करता है। (आपः) ज्ञान-वृत्तियां (स्वसारः) अपने ही स्वरूप से प्रकट होकर निकलने हारी, (गाः अभि) इन्द्रियों के प्रति (उत् आसरन्) ऊर्ध्वगति करती हैं और वह आत्मा (वीते) कान्तिमान् (अध्वरे) ज्ञानयज्ञ में (ग्रावभिः) विद्वानों के संग (संवसते) निवास करता है।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ पराशरः। २ शुनःशेपः। ३ असितः काश्यपो देवलो वा। ४, ७ राहूगणः। ५, ६ नृमेधः प्रियमेधश्च। ८ पवित्रो वसिष्ठौ वोभौ वा। ९ वसिष्ठः। १० वत्सः काण्वः। ११ शतं वैखानसाः। १२ सप्तर्षयः। १३ वसुर्भारद्वाजः। १४ नृमेधः। १५ भर्गः प्रागाथः। १६ भरद्वाजः। १७ मनुराप्सवः। १८ अम्बरीष ऋजिष्वा च। १९ अग्नयो धिष्ण्याः ऐश्वराः। २० अमहीयुः। २१ त्रिशोकः काण्वः। २२ गोतमो राहूगणः। २३ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः॥ देवता—१—७, ११-१३, १६-२० पवमानः सोमः। ८ पावमान्यध्येतृस्तृतिः। ९ अग्निः। १०, १४, १५, २१-२३ इन्द्रः॥ छन्दः—१, ९ त्रिष्टुप्। २–७, १०, ११, १६, २०, २१ गायत्री। ८, १८, २३ अनुष्टुप्। १३ जगती। १४ निचृद् बृहती। १५ प्रागाथः। १७, २२ उष्णिक्। १२, १९ द्विपदा पंक्तिः॥ स्वरः—१, ९ धैवतः। २—७, १०, ११, १६, २०, २१ षड्जः। ८, १८, २३ गान्धारः। १३ निषादः। १४, १५ मध्यमः। १२, १९ पञ्चमः। १७, २२ ऋषभः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनः सोमनाम्ना सोमौषधिर्जीवात्मा च वर्ण्यते।

    पदार्थः

    प्रथमः—सोमौषधिपरः। (महिषस्य) महतः, (पर्णिनः) पर्णवतः अस्य ओषधिराजस्य सोमस्य (पर्जन्यः) मेघः (पिता) जनको वर्तते। एष सोमः (पृथिव्या नाभा) भूमेः केन्द्रस्थलेषु (गिरिषु) पर्वतेषु च (क्षयम्) निवासम्। [क्षि निवासगत्योः। ‘क्षयो निवासे’ अ० ६।१।२०१ इति निवासार्थे आद्युदात्तः। क्षि क्षये इत्यनेन निष्पन्नस्तु अन्तोदात्तः।] (दधे) धारयति। पर्जन्यात् (स्वसारः आपः) स्वसृवत् सहगामिन्यः जलधाराः (गाः अभि) भूप्रदेशान् प्रति (उद् आ सरन्) उपरिष्टाद् आगच्छन्ति। एवम् (अध्वरे) वृष्टियज्ञे (वीते) प्रवृत्ते सति, ताः आपः (गाः) भूमीः (ग्रावभिः) प्राणैः। [प्राणा वै ग्रावाणः। श० १४।२।२।३३।] (सं वसते) समाच्छादयन्ति। [प्रा॒णो अ॒भ्यव॑र्षीद् व॒र्षेण॑ पृथि॒वीं म॒हीम्। अथ० ११।४।५ इति श्रुतेः। वस आच्छादने, अदादिः] ॥ द्वितीयो—जीवात्मपरः। (महिषस्य) महत्त्वशालिनः (पर्णिनः) ज्ञानकर्मरूपपक्षतियुक्तस्य अस्य सोमस्य जीवात्मनः (पिता) देहे जन्मदाता पालकश्च (पर्जन्यः) मेघवत् सुखवृष्टिकरः परमात्मा वर्तते। एष आत्मा (पृथिव्याः) पार्थिवायाः तन्वाः (नाभा) नाभौ केन्द्रभूते हृदये (गिरिषु) पर्वतवदुन्नतेषु मस्तिष्कप्रकोष्ठेषु च (क्षयं) निवासं (दधे) धारयति। (स्वसारः) सुष्ठु देहे न्यस्ताः (आपः) ज्ञानवाहिन्यः तन्तुनाड्यः (गाः अभि) ज्ञानेन्द्रियाणि कर्मेन्द्रियाणि च अभिलक्ष्य (उदासरन्) उपरिष्टादागच्छन्ति, अपि च (अध्वरे) ज्ञानयज्ञे कर्मयज्ञे वा (वीते) प्रवृत्ते सति (ग्रावभिः) ग्राह्यविषयैः। [गीर्यन्ते कवलीक्रियन्ते भुज्यन्ते ये ते ग्रावाणः भोग्यविषयाः।] (सं वसते) सं मिलन्ति, येन मनःसहितैर्ज्ञानेन्द्रियैर्ज्ञानग्रहणं मनःसहितैः कर्मेन्द्रियैश्च कर्म संपद्यते ॥२॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥२॥

    भावार्थः

    वृष्ट्या यद् भूमौ सोमाद्योषधयः समुत्पद्यन्ते प्राणश्च वर्षति, देहे च यज्जीवात्मा मनःसहितैर्ज्ञानेन्द्रियैः कर्मेन्द्रियैश्च ज्ञानं गृह्णाति कर्माणि च करोति तत् सर्वं जगदीश्वरस्यैव कर्तृत्वं प्रकटयति ॥२॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The Guardian of the learned, mighty soul is God. The bestower of joys like a cloud, the soul makes its home in the hearts of the learned, in different earthly relations. The functions of knowledge spontaneously proceed to the organs of senses. The soul dwells with the learned in its effort to acquire brilliant knowledge.

    Translator Comment

    $ God it spoken of as पर्जन्यः as He grants Joys, just as a cloud sends water.

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    Meaning

    Father and sustainer of all great and small, birds and trees, serious realists and flying dreamers, centre hold of the earth and showers of rain, you abide in the mighty clouds and over the mountains. Your waves and vibrations flow and radiate, flow as sister streams and radiate to the stars and planets, and in holy yajna you vibrate with the music of soma stones and the chant of high priests. (Rg. 9-82-3)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (महिषस्य पर्णिनः) મહાન પર્ણી-પર્ણ-પાલન-પ્રશસ્ત પાલન ધર્મવાળા (पर्जन्यः) તૃપ્તિકર્તા (पिता) પાલક સોમ-શાન્ત પરમાત્મા (पृथिव्या नाभा) પાર્થિવ શરીરનાં મધ્યમાં (गिरिषु क्षयं दधे) સ્તુતિ સાધનો-મન, બુદ્ધિ, ચિત્ત, અહંકાર અને વાણીમાં સ્થાન બનાવે છે. (स्वसारः आपः अधि गाः उदासरन्) સ્તુતિ વાણીઓને અધિકૃત કરીને સ્વસરણશીલ ઉપાસકજનો ઊર્ધ્વ ગતિવાળા બને છે. (वीते अध्वरे) પ્રાપ્ત અધ્યાત્મયજ્ઞમાં અવસર પર (ग्रावभिः "ग्रावाणः") તે સ્તુતિ કરનારા વિદ્વાનજનો (संवसते) આવરણ - રક્ષણ પ્રાપ્ત કરે છે. (૨)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    पर्जन्यामुळे भूमीवर सोम इत्यादी औषधी उत्पन्न होतात व प्राण वर्षाव करतो व शरीरात जीवात्मा मनासह ज्ञानेन्द्रिये व कर्मेंद्रिये यांच्याद्वारे ज्ञान ग्रहण करतो किंवा कर्म करतो, ते सर्व जगदीश्वराच्या कर्तृत्वाला प्रकट करतो. ॥२॥

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