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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 138
ऋषिः - कुसीदी काण्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
22
दे꣣वा꣢ना꣣मि꣡दवो꣢꣯ म꣣ह꣡त्तदा वृ꣢꣯णीमहे व꣣य꣢म् । वृ꣡ष्णा꣢म꣣स्म꣡भ्य꣢मू꣣त꣡ये꣢ ॥१३८॥
स्वर सहित पद पाठदे꣣वा꣡ना꣢म् । इत् । अ꣡वः꣢꣯ । म꣣ह꣢त् । तत् । आ । वृ꣣णीमहे । वय꣢म् । वृ꣡ष्णा꣢꣯म् । अ꣣स्म꣡भ्य꣢म् । ऊ꣣त꣡ये꣢ ॥१३८॥
स्वर रहित मन्त्र
देवानामिदवो महत्तदा वृणीमहे वयम् । वृष्णामस्मभ्यमूतये ॥१३८॥
स्वर रहित पद पाठ
देवानाम् । इत् । अवः । महत् । तत् । आ । वृणीमहे । वयम् । वृष्णाम् । अस्मभ्यम् । ऊतये ॥१३८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 138
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 3;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 3;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में परमात्मा से प्राप्तव्य रक्षण तथा विद्वानों से प्राप्तव्य ज्ञान की प्रार्थना करते हैं।
पदार्थ
प्रथम—परमेश्वर के पक्ष में। इन्द्र परमेश्वर है, उसके दिव्य सामर्थ्य देव हैं। (देवानाम्) इन्द्र परमेश्वर के दिव्य सामर्थ्यों का (इत्) ही (अवः) संरक्षण (महत्) महान् है। (वृष्णाम्) सुखों की वर्षा करनेवाले उन दिव्य सामर्थ्यों के (तत्) उस संरक्षण को (वयम्) हम उपासक लोग (ऊतये) प्रगति के प्राप्त्यर्थ (अस्मभ्यम्) अपने लिए (आवृणीमहे) प्राप्त करते हैं ॥ द्वितीय—विद्वानों के पक्ष में। इन्द्र आचार्य है, उसके विद्वान् शिष्य देव हैं। (देवानाम्) विद्वानों का (इत्) ही (अवः) शास्त्रज्ञान (महत्) विशाल होता है। (वृष्णाम्) विद्या की वर्षा करनेवाले उन विद्वानों के (तत्) उस शास्त्रज्ञान को (वयम्) हम अल्पश्रुत लोग (ऊतये) प्रगति के प्राप्त्यर्थ (अस्मभ्यम्) अपने लिए (आवृणीमहे) भजते हैं ॥४॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥४॥
भावार्थ
इन्द्र नाम से वेदों में जिसकी कीर्ति गायी गयी है, उस परमेश्वर के दिव्य सामर्थ्य बहुमूल्य हैं, जिनका संरक्षण पाकर क्षुद्र शक्तिवाला मनुष्य भी सब विघ्नों और संकटों को पार करके विविध कष्टों से आकुल भी इस संसार में सुरक्षित हो जाता है। अतः परमेश्वर के दिव्य सामर्थ्यों का संरक्षण सबको प्राप्त करना चाहिए। साथ ही विद्वान् लोग भी देव कहलाते हैं। उनका उपदेश सुनकर ज्ञानार्जन भी करना चाहिए ॥४॥
पदार्थ
(वृष्णां देवानां-इत् तत्-महत्-अवः) ज्ञानवर्षक इन्द्र परमात्मा एवं ऋषि विद्वानों के अवश्य उस भारी बोध ज्ञान को “अव रक्षण-बोध......” [तुदादि॰] (वयम्-आवृणीमहे) हम समन्तरूप से वरते हैं (अस्मभ्यम्-ऊतये) जो हमारी रक्षा के लिए है।
भावार्थ
परमात्मा और ऋषि विद्वानों के वेदज्ञान को अवश्य स्वीकार करें अपने अन्दर धारण करें जो हमारी रक्षा इस संसार में करता है॥४॥
विशेष
ऋषिः—कुसीदी काण्वः (मेधावी का शिष्य संश्लेषण धर्मवाला)॥<br>
विषय
सबसे महान् कार्य
पदार्थ
इस संसार में सबसे महान् कार्य क्या है? इस प्रश्न का उत्तर इस वेदमन्त्र में इन शब्दों में दिया गया है कि( देवानाम् इत् अवः) = महत्-देवताओं का रक्षण सर्वमहान् कार्य है। इस शरीर में इन्द्रियाँ देव हैं, इनका अधिष्ठाता आत्मा महादेव है। इन इन्द्रियों की रक्षा करना ही मानव जीवन का सबसे बड़ा लक्ष्य होना चाहिए । ('वयम् तत् आवृणीमहे ') = हम इसी कार्य का सदा वरण करते हैं। मकान की रक्षा, सम्पत्ति का ध्यान, स्वास्थ्य का ध्यान, गृहस्थ का पालन–ये सब आवश्यक बातें हैं, परन्तु सबसे बेड़ी बात यह है कि हम अपनी इन्द्रियों की रक्षा करें।
ये इन्द्रियाँ वास्तव में तो (वृष्णाम्) = सुखों की वर्षा करनेवाली हैं। इन सुखवर्षक देवों के रक्षण को हम वरते हैं। वही इन्द्रियाँ जोकि सुरक्षित होकर हमपर सुखों की वर्षा करनेवाली हैं, विषयों में फँसकर हमारे नाश का कारण बनती हैं। जिन ज्ञानेन्द्रियों से प्रकृति का ज्ञान प्राप्त करके हमें मृत्यु को तैरना है और ब्रह्मज्ञान को प्राप्त करके अमृत को पाना है-वही इन्द्रियाँ विषयासक्त होने पर अपवित्र नरक में डाल देती हैं, अतः हमारा यही महान् कर्तव्य है कि (अस्मभ्यम् ऊतये) = ये हमारी रक्षा के लिए हों। रक्षा की हुई इन्द्रियाँ हमारी सब अभिलाषाओं को सिद्ध करनेवाली होती हैं और असुरक्षित होने पर ये ही हमारे विनाश का कारण बन जाती हैं ।
जो व्यक्ति इन्द्रिय-रक्षारूप तप को अपनाता है, वह ओजस्वी होकर पनपता है, इस पृथिवी पर प्रतिष्ठित होता है, उसका नाश नहीं होता। इसीलिए वह 'कु-सीदी'=पृथिवी पर प्रतिष्ठित हानेवाला कहलाता है। एवं, बुद्धिमत्ता इन देवों की रक्षा में ही है। यह कुसीदी काण्व=मेधावी है। हमें भी चाहिए कि देव- रक्षा द्वारा कुसीदी काण्व बनें।
भावार्थ
जितेन्द्रियता ही सर्वमहान् विजय है। हम इन्द्रियों [देवों] की रक्षा करेंगे तो ये इन्द्रियाँ हमारी रक्षा करेंगी।
विषय
परमेश्वर की स्तुति
भावार्थ
भा० = ( वृष्णाम् ) = सुखों और ज्ञानों की धार बरसाने वाले ( देवानाम् ) = विद्वान् गुरुओं या प्राणों की ( इत् ) = ही ( महत् तत् अवः ) = बड़ी भारी उस रक्षा या शरण को हम ( अस्मभ्यम्- ऊतये ) = अपनी रक्षा के लिये ( आ वृणीमहे ) = सब प्रकार से चाहते हैं ।
तैत्तिरीय उप० ( ब० १ । अनु० १० ) में जैसे – “ यदि ते - " कर्मविचिकित्सा वृत्तविचिकित्सा वा स्यात, ये तत्र ब्राह्मणाः संमर्शिनः युक्ता: आयुक्ता अलूक्षा धर्मकामाः स्युः । यथा ते तत्र वर्तेरन् तथा तत्र वर्तेथाः । एषः आदेशः । एष उपदेशः । एषा वेदोपनिषत् । एतदनुशासनम् । एवमुपासितव्यम् । एवमु चैतदुपास्यम् ।
तद्विद्धि प्राणिपातेन परिप्रश्ने सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः ॥
यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव । गी० अ० ५ । ३४-३५॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - कुसीदी काण्वः।
छन्दः - गायत्री।
स्वरः - षड्जः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमात्मनः प्राप्तव्यं रक्षणं, विद्वद्भ्यः प्राप्तव्यं ज्ञानं च प्रार्थ्यते।
पदार्थः
प्रथमः—परमात्मपरः। इन्द्रः परमेश्वरः, तस्य दिव्यसामर्थ्यानि देवाः उच्यन्ते। (देवानाम्) इन्द्राख्यस्य परमेश्वरस्य दिव्यसामर्थ्यानाम् (इत्) एव (अवः) संरक्षणम् (महत्) महिमोपेतम् अस्ति। (वृष्णाम्) सुखवर्षकाणां तेषां दिव्यसामर्थ्यानाम् (तत्) अवः संरक्षणम् (वयम्) उपासकाः (ऊतये) प्रगतये। अव रक्षणगत्यादिषु, क्तिनि रूपम्। (अस्मभ्यम्) अस्मदर्थम् (आ वृणीमहे) सम्भजामहे। वृङ् सम्भक्तौ, क्र्यादिः ॥ अथ द्वितीयः—विद्वत्परः। इन्द्रः आचार्यः, तस्य विद्वांसः शिष्याः देवाः उच्यन्ते। (देवानाम्) विदुषाम् (इत्) एव (अवः) शास्त्रज्ञानम्। अव धातोः रक्षणादिष्वर्थेषु अवगमोऽप्यर्थः पठितः। (महत्) विशालं भवति। अतः (वृष्णाम्) विद्यावर्षकाणां तेषाम् (तत्) अवः शास्त्रज्ञानम् (वयम्) अल्पश्रुताः जनाः (ऊतये) प्रगतये (अस्मभ्यम्) अस्मदर्थम् (आ वृणीमहे) स्वीकुर्मः ॥४॥
भावार्थः
इन्द्रनाम्ना वेदेषु गीतकीर्तेः परमेश्वरस्य दिव्यसामर्थ्यानि बहुमूल्यानि वर्तन्ते, येषां संरक्षणं प्राप्य क्षुद्रशक्तिरपि मनुजः सर्वान् विघ्नान् संकटांश्च तीर्त्वा विविधकष्टाकुलेऽप्यस्मिन् संसारे सुरक्षितो जायते। अतः परमेश्वरस्य दिव्यसामर्थ्यानां संरक्षणं सर्वैः प्रापणीयम्। किं च विद्वांसोऽपि देवा उच्यन्ते। तेषामुपदेशश्रवणेन ज्ञानार्जनमपि कर्त्तव्यम् ॥४॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ८।८३।१, देवता विश्वेदेवाः।
इंग्लिश (2)
Meaning
We choose the protection of our learned preceptors, the bestowers of pleasure and learning, that it may help and succour us.
Meaning
We choose for our selves the grand patron age and protection of the generous brilliancies of nature and humanity for our safety, security and advancement. (Rg. 8-83-1)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (वृष्णां देवानां इत् तत् महत् अवः) જ્ઞાનની વર્ષા કરનાર ઇન્દ્ર પરમાત્મા તથા ઋષિ વિદ્વાનોનાં અવશ્ય તે મહાન બોધ - જ્ઞાનનું (वयम् आवृणीमहे) અમે સમગ્ર રૂપથી વરણ કરીએ છીએ (अस्मभ्यम् ऊतये) જે અમારી રક્ષાને માટે છે. (૪)
भावार्थ
ભાવાર્થ : પરમાત્મા તથા ઋષિઓ - વિદ્વાનોનાં વેદ જ્ઞાનનો અવશ્ય સ્વીકાર કરીએ , જેને અમારી અંદર ધારણ કરીએ , જે આ સંસારમાં અમારી રક્ષા કરે છે. (૪)
उर्दू (1)
Mazmoon
سَت سَنگتی اور ہَری شرن
Lafzi Maana
(ورِشنام دیوانام) سُکھ شانتی اور گیان کی وَرشا دھاراؤں کو بہانے والے دیووں کے دیو پرمیشور اور وِدوانوں کی (اِت) ہی (مہت تت اوہ) مہان رکھشاؤں اور شرن کو (ویّم اسمبھیم اُوتئے) ہم سب بلاؤں سے بچنے کے لئے (آوِرنی مہے) ہمیشہ چاہتے رہتے ہیں، ورن کرتے ہیں۔
Tashree
گیانیوں کی شَرن ہو پر ماتما کی ہو مہر، ہر بلائے زندگی کا نُسخہ ہے یہ کارگر۔
मराठी (2)
भावार्थ
‘इंद्र’ या नावाने ज्याची कीर्ती गायली जाते, त्या परमेश्वराचे दिव्य सामर्थ्य अत्यंत मूल्यवान आहे. ज्याचे संरक्षण प्राप्त करून क्षुद्र शक्तीचा मनुष्य ही सर्व विघ्ने व संकटांचा सामना करून पार पडतो व विविध कष्टांनी व्याकुळ झालेल्या या जगात सुरक्षित होतो. त्यासाठी परमेश्वराच्या दिव्य सामर्थ्याचे संरक्षण सर्वांनी प्राप्त केले पाहिजे. त्याचप्रमाणे विद्वान लोकांनाही देव म्हटले जाते. त्यांचा उपदेश ऐकून ज्ञानार्जनही केले पाहिजे ॥४॥
विषय
पुढील मंत्रात परमेश्वरापासून प्राप्तव्य रक्षणासाठी व विद्वानांपासून प्राप्तव्य ज्ञानाची प्रार्थना केली आहे -
शब्दार्थ
प्रथम अर्थ (परमेश्वर पर) परमेश्वर इन्द्र आहे. त्याचे दिव्य सामर्थ्य यालाच देव म्हटले आहे. (देवानाम्) इन्द्र परमेश्वराचे जे दिव्य सामर्थ्य आहे (इत्) त्यांचीच (अवः) सुरक्षा (महत्) सर्वांहून महामवा श्रेष्ठ आहे. (कृष्णाम्) सुखांची वृष्टी करणाऱ्या त्या दिव्य सामर्थ्याचे (तत्) ते संरक्षण (वयम्) आही उपासक गण (ऊतये) आपल्या प्रगतीकरिता (अस्मभ्यम्) आपल्यासाठी (आ वृणीमहे) प्राप्त करीत आहोत. द्वितीय अर्थ - (विद्वानपर) इन्द्र म्हणजे आचार्य आणि त्यांचे विद्यावान शिष्य हेच देव आहेत. त्या (देवामाम् ) विद्वज्जनांचे (इत्) च (अत्रः) शास्त्र ज्ञान (महत्) महान असते. (वृष्णाम्) विद्येची वृष्टी करणाऱ्या (पाऊस पाडणाऱ्या) विद्वानांच्या (तत्) त्या शास्त्रज्ञानाला (वदम्) आम्ही अल्पश्रुत लोक (ऊतये) स्वतःच्या प्रगतीसाठी (अस्मभ्यम्) आपल्याकरितांच (आवृणीमहे) स्वीकार करीत आहोत. ।। ४।।
भावार्थ
इन्द्र या नावाने वेदांमध्ये ज्या परमेश्वराचे कीर्तीमान केले आहे, त्याचे दिव्य सामर्थ्य बहुमूल्य आहे. या सामर्थ्यांचे संरक्षण मिळाल्यास अल्पशक्तिवान माणूसदेखील सर्व विघ्न - संकटांना अपवारित करू शकतो आणि अनेकांनेक दुःख, कष्टादीनी व्यापलेल्या या जगात सुरक्षित राहू शकतो. यामुळे त्या दिव्य सामर्थ्याची सुरक्षा सर्वांनी प्राप्त केली पाहिजे. तसेच विद्वज्जनही देव असतात. त्यांच्या उपदेश ऐकून सर्वांनी ज्ञानार्जनही केले पाहिजे ।। ४।।
विशेष
या मंत्रात श्लेष अलंकार आहे ।। ४।।
तमिल (1)
Word Meaning
நாங்கள் காக்கப்படுவதற்காக தேவர்களின் மகத்தான ரட்சிப்பை யடைய வர்ஷிப்பவனான உம்மை நாடுகிறோம்.
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