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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1416
    ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    49

    न꣡ कि꣢रस्य सहन्त्य पर्ये꣣ता꣡ कय꣢꣯स्य चित् । वा꣡जो꣢ अस्ति श्र꣣वा꣡य्यः꣢ ॥१४१६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । किः꣢ । अस्य । सहन्त्य । पर्येता꣢ । प꣣रि । एता꣢ । क꣡य꣢꣯स्य । चि꣣त् । वा꣡जः꣢꣯ । अ꣡स्ति । श्रवा꣡य्यः꣢ ॥१४१६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न किरस्य सहन्त्य पर्येता कयस्य चित् । वाजो अस्ति श्रवाय्यः ॥१४१६॥


    स्वर रहित पद पाठ

    न । किः । अस्य । सहन्त्य । पर्येता । परि । एता । कयस्य । चित् । वाजः । अस्ति । श्रवाय्यः ॥१४१६॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1416
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 12; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में परमेश्वर की कृपा का फल वर्णित है।

    पदार्थ

    हे (सहन्त्य) शत्रुओं को तिरस्कृत करनेवाले अग्रणी परमात्मन् ! (कयस्य चित्) युद्ध विद्या के ज्ञाता (अस्य) इस आपके स्तोता को (पर्येता) घेरनेवाला वा उस पर आक्रमण करनेवाला (न किः) कोई नहीं होता, प्रत्युत (वाजः) युद्ध (श्रवाय्यः) उसका यश फैलानेवाला (अस्ति) होता है ॥२॥

    भावार्थ

    जिस पर जगदीश्वर कृपा करता है, उसे युद्ध में कोई भी हरा नहीं सकता, अपितु वह विजयश्री को प्राप्त करता है ॥२॥

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    पदार्थ

    (सहन्त्य) हे सब के सहन—अभिभव करने वाले अधिपति परमात्मन्! (अस्य कयस्य चित्) तेरे इस ज्ञानी जैसे ऊँचे ज्ञानी उपासक मुमुक्षु का५ (पर्येता न किः) घेरा डालने वाला—बन्धन में लाने वाला राग आदि कोई विषय नहीं है, कारण कि (वाजः श्रवाय्यः-अस्ति) श्रवण प्राप्त६ श्रवण-चतुष्टय प्राप्त—श्रवण, मनन, निदिध्यासन, साक्षात्कार से प्राप्त आध्यात्मिक बल है७॥२॥

    विशेष

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    विषय

    अपराजेय

    पदार्थ

    हे (सहन्त्य) = सभी शत्रुओं का अभिभव करनेवाले अग्ने ! (अस्य) = आपसे रक्षित [अवा: १४१५] तथा आपसे शक्ति को प्राप्त [जुना: १४१५] (कयस्य चित्) = अद्वितीय, विलक्षण शक्ति को प्राप्त पुरुष पर (पर्येता) = आक्रमण करनेवाला (न कि:) = कोई भी नहीं है। इसको कोई भी वासना आक्रान्त नहीं कर सकती। जहाँ आप, वहाँ वासना को आने का साहस नहीं । आपसे रक्षित इस पुरुष का (वाज:) = बल व ज्ञान (श्रवाय्यः) = श्रवणीय, कीर्तनीय व लोकोत्तर (अस्ति) = है । यह तो आपकी शक्ति से शक्तिमान् हो रहा है, अतः इसका बल आसाधारण होना स्वाभाविक ही है। लोहे का गोला जैसे अग्नि की चमक से चमकता है, इसी प्रकार यह आपकी शक्ति से शक्ति-सम्पन्न होकर चमक उठता है। इसका वाज इसे बाह्य व आन्तर शत्रुओं से बचाता है । बल [वाज] यदि बाह्य शत्रुओं व रोगों को पराजित करता है तो ज्ञान [वाज] आन्तर- इ र - शत्रुओं को । इस प्रकार न इस पर रोग आक्रमण करते हैं, और न ही वासनाएँ ।

    भावार्थ

    प्रभु की शक्ति व ज्ञान से सम्पन्न होकर हम रोगों व वासनाओं के लिए 'अपराजेय हो जाएँ।
     

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    हे (सहन्त्य) सब विघ्नों के बिनाशक ! (अस्य) इस आपके (कयस्य चित्) किसी भी उपासक साधक को (पर्येता) कष्ट देने हारा या उस पर आक्रमण करने हारा (नकिः) कोई भी नहीं। प्रत्युत उसके पास (श्रवाय्यः) श्रवण करने योग्य उत्तम (वाजः) ज्ञान बल (अस्ति) प्राप्त होता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ गोतमो राहूगणः, वसिष्ठस्तृतीयस्याः। २, ७ वीतहव्यो भरद्वाजो वा बार्हस्पत्यः। ३ प्रजापतिः। ४, १३ सोभरिः काण्वः। ५ मेधातिथिमेध्यातिथी काण्वौ। ६ ऋजिष्वोर्ध्वसद्मा च क्रमेण। ८, ११ वसिष्ठः। ९ तिरश्वीः। १० सुतंभर आत्रेयः। १२, १९ नृमेघपुरुमेधौ। १४ शुनःशेप आजीगर्तिः। १५ नोधाः। १६ मेध्यातिथिमेधातिथिर्वा कण्वः। १७ रेणुर्वैश्वामित्रः। १८ कुत्सः। २० आगस्त्यः॥ देवता—१, २, ८, १०, १३, १४ अग्निः। ३, ६, ८, ११, १५, १७, १८ पवमानः सोमः। ४, ५, ९, १२, १६, १९, २० इन्द्रः॥ छन्दः—१, २, ७, १०, १४ गायत्री। ३, ९ अनुष्टुप्। ४, १२, १३, १६ प्रागाथं। ५ बृहती। ६ ककुप् सतोबृहती च क्रमेण। ८, ११, १५, १० त्रिष्टुप्। १७ जगती। १६ अनुष्टुभौ बृहती च क्रमेण। २९ बृहती अनुष्टुभौ क्रमेण॥ स्वरः—१, २, ७, १०, १४ षड्जः। ३, ९, १०, गान्धारः। ४-६, १२, १३, १६, २० मध्यमः। ८, ११, १५, १८ धैवतः। १७ निषादः।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमेश्वरानुग्रहस्य फलमाह।

    पदार्थः

    हे (सहन्त्य) शत्रूणामभिभवितः अग्ने अग्रणीः परमात्मन् ! (कयस्य२ चित्) युद्धविद्याया ज्ञातुः [कि ज्ञाने, जुहोत्यादिः, चिकेति जानाति योद्धुं यः स कयः।] (अस्य) तव स्तोतुः (पर्येता) परिवारकः आक्रमिता वा (न किः) न कश्चिदपि भवति। प्रत्युत (वाजः) सङ्ग्रामः, तस्य (श्रवाय्यः) श्रोतुं योग्यः यशस्करः (अस्ति) जायते ॥२॥३

    भावार्थः

    यं जगदीश्वरोऽनुगृह्णाति तं सङ्ग्रामे कश्चित् पराजेतुं न क्षमते, प्रत्युत स विजयश्रियं लभते ॥२॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O God, the Remover of all obstacles, none can vanquish Thy devotee. Very glorious is his strength !

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    Meaning

    No one is his challenger, no vanquisher of the hero whose battle for life and humanity is worthy of praise. (Rg. 1-27-8)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (सहन्त्य) હે સર્વનો સહન-પરાજ્ય કરનાર અધિપતિ પરમાત્મન્ ! (अस्य कयस्य चित्) તારા તે જ્ઞાની જેમ ઊંચ જ્ઞાની ઉપાસક મુમુક્ષુને (पर्येता न किः) ઘેરાવ કરનાર-બંધનમાં લાવનાર રાગ આદિ કોઈ વિષય નથી, કારણ કે (वाजः श्रवाय्य अस्ति) [તેની પાસે] શ્રવણ પ્રાપ્ત શ્રવણ ચતુષ્ટય પ્રાપ્તશ્રવણ, મનન, નિદિધ્યાસન અને સાક્ષાત્કાર દ્વારા પ્રાપ્ત આધ્યાત્મિક બળ છે. (૨)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्याच्यावर जगदीश्वराची कृपा असते त्याला युद्धात कुणी हरवू शकत नाही, तर तो विजयश्री प्राप्त करतो. ॥२॥

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