Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1445
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
30
ह꣡स्त꣢च्युतेभि꣣र꣡द्रि꣢भिः सु꣣त꣡ꣳ सोमं꣢꣯ पुनीतन । म꣢धा꣣वा꣡ धा꣢वता꣣ म꣡धु꣢ ॥१४४५॥
स्वर सहित पद पाठह꣡स्त꣢꣯च्युतेभिः । ह꣡स्त꣢꣯ । च्यु꣣तेभिः । अ꣡द्रि꣢꣯भिः । अ । द्रि꣣भिः । सुत꣢म् । सो꣡म꣢꣯म् । पु꣣नीतन । पुनीत । न । म꣡धौ꣢꣯ । आ । धा꣣वत । म꣡धु꣢꣯ ॥१४४५॥
स्वर रहित मन्त्र
हस्तच्युतेभिरद्रिभिः सुतꣳ सोमं पुनीतन । मधावा धावता मधु ॥१४४५॥
स्वर रहित पद पाठ
हस्तच्युतेभिः । हस्त । च्युतेभिः । अद्रिभिः । अ । द्रिभिः । सुतम् । सोमम् । पुनीतन । पुनीत । न । मधौ । आ । धावत । मधु ॥१४४५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1445
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
आगे फिर मनुष्यों को प्रेरित करते हैं।
पदार्थ
हे उपासको ! (हस्तच्युतेभिः) हाथ-रहित (अद्रिभिः) हृदय और मस्तिष्करूप सिल-बट्टों से (सुतम्) अभिषुत किये गये (सोमम्) श्रद्धारस को (पुनीतन) पवित्र करो। (मधौ) अपने मधुर श्रद्धारस में (मधु) परमात्मा से प्राप्त मधुर आनन्द-रस को (आधावत) मिला दो ॥२॥ यहाँ ‘मधा, मधु’ और ‘धावा, धाव’ में छेकानुप्रास अलङ्कार है ॥२॥
भावार्थ
जब योगी लोगों को ब्रह्मानन्द-रस की अनुभूति हो जाती है,तभी उनकी परब्रह्म में श्रद्धा सफल होती है ॥२॥
पदार्थ
पदार्थ—(हस्तच्युतैः-अद्रिभिः) हे उपासको! तुम हाथ से रहित अदीर्ण अनश्वर फल वाले कर्मों—योगाभ्यासों—द्वारा (सुतं सोमम्) निष्पादित परमात्मा को (पुनीतन) साक्षात् करो (मधौ मधु-आधावत) मधु—अपने ज्ञानवान् चेतन-स्वरूप आत्मा में महामधु—मधुररूप परमात्मा को समन्तरूप से प्राप्त करो॥२॥
विशेष
<br>
विषय
पवित्रता व माधुर्य
पदार्थ
प्रभु-स्तवन के द्वारा पवित्रीभूत हृदय में जब प्रभु का प्रकाश होता है तब कहते हैं कि वह सोम=शान्त प्रभु सुत - उत्पन्न हुए हैं। स्तोताओं के लिए उपदेश देते हैं कि (सुतं सोमम्) = इस आविर्भूत सोम का लक्ष्य करके (पुनीतन) = अपने को अधिक और अधिक पवित्र बनाओ। पवित्र हृदय में ही उस प्रभु का दर्शन व निवास होता है ।
पवित्रता कैसे करें ? १. (हस्तच्युतेभि:) = [हन् धातु से बना हस्त शब्द यहाँ हिंसा का वाचक है]। हिंसाओं को छोड़ने के द्वारा । पवित्रता के लिए हिंसा का त्याग आवश्यक है। २. (अद्रिभिः) = [अद्रय: आदरणीयाः – नि० ९.८] आदर की भावनाओं [adoration] से । जब हम आदर की भावनाओं से युक्त होकर हृदय में प्रभु का उपासन करते हैं तब सब वासनाओं का उन्मूलन होकर हृदय पवित्र हो जाता है ।
‘परमं वा एतद् रूपं देवतायै यन्मधु' [तै० ३.८.१४.२] इस वाक्य में उस देवता का जो सर्वोत्कृष्टरूप है, उसे 'मधु' कहा गया है । (मधौ) = उस मधुरूप प्रभु में (आधावत) = सब प्रकार से अपने को शुद्ध कर डालो [धाव्= शुद्धि] । अपने को शुद्ध करके स्वयं भी (मधु) = मधु ही हो जाओ । प्रभु के अन्दर निवास करनेवाला 'मधु' ही बन जाता है— कभी कड़वी वाणी का प्रयोग नहीं करता । 'उपासना और कटुता' ये विरोधी बातें हैं । प्रभु के उपासक का जीवन माधुर्य से परिपूर्ण होता है ।
भावार्थ
हिंसा को छोड़कर, प्रभु के प्रति आदर की भावना से हम अपने को पवित्र बनाएँ । माधुर्यमय प्रभु में निवास कर 'मधु' ही बन जाएँ।
विषय
missing
भावार्थ
हे विद्वान् पुरुषो ! (हस्तच्युतेभिः) हाथों के समान प्रेरक साधनों से प्रेरित, (अद्रिभिः) पर्वत एवं शिलाओं के समान स्थिर, सदाचारी, विद्वानों द्वारा निष्पादित तैयार किये गये (सोमं) ज्ञानराशि को (पुनीतन) बराबर उन्नत करो, उसका सम्पादन करो और बढाओ और उसको निःसंशय करके पवित्र बनाओ। और (मधो) अत्यन्त आनन्द करने हारे अमृतस्वरूप अपने आत्मा में उस (मधु) परम-आत्मज्ञानरूप अमृत को (आधावत) प्राप्त करो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१ कविर्भार्गवः। २, ९, १६ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। ३ असितः काश्यपो देवलो वा। ४ सुकक्षः। ५ विभ्राट् सौर्यः। ६, ८ वसिष्ठः। ७ भर्गः प्रागाथः १०, १७ विश्वामित्रः। ११ मेधातिथिः काण्वः। १२ शतं वैखानसाः। १३ यजत आत्रेयः॥ १४ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः। १५ उशनाः। १८ हर्यत प्रागाथः। १० बृहद्दिव आथर्वणः। २० गृत्समदः॥ देवता—१, ३, १५ पवमानः सोमः। २, ४, ६, ७, १४, १९, २० इन्द्रः। ५ सूर्यः। ८ सरस्वान् सरस्वती। १० सविता। ११ ब्रह्मणस्पतिः। १२, १६, १७ अग्निः। १३ मित्रावरुणौ। १८ अग्निर्हवींषि वा॥ छन्दः—१, ३,४, ८, १०–१४, १७, १८। २ बृहती चरमस्य, अनुष्टुप शेषः। ५ जगती। ६, ७ प्रागाथम्। १५, १९ त्रिष्टुप्। १६ वर्धमाना पूर्वस्य, गायत्री उत्तरयोः। १० अष्टिः पूर्वस्य, अतिशक्वरी उत्तरयोः॥ स्वरः—१, ३, ४, ८, ९, १०-१४, १६-१८ षड्जः। २ मध्यमः, चरमस्य गान्धारः। ५ निषादः। ६, ७ मध्यमः। १५, १९ धैवतः। २० मध्यमः पूर्वस्य, पञ्चम उत्तरयोः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पुनरपि मानवान् प्रेरयति।
पदार्थः
हे उपासकाः ! (हस्तच्युतेभिः) हस्तरहितैः (अद्रिभिः) हृदयमस्तिष्करूपैः पेषणसाधनैः (सुतम्) अभिषुतम् (सोमम्) श्रद्धारसम् (पुनीतन) पवित्रयत। (मधौ) मधुरे स्वकीये श्रद्धारसे (मधु) परमात्मनः सकाशात् प्राप्तं मधुरम् आनन्दरसम् (आधावत) आगमयत, मिश्रयतेत्यर्थः। [धावु गतिशुद्ध्योः] ॥२॥ ‘मधा, मधु’, ‘धावा, धाव’ इत्यत्र छेकानुप्रासोऽलङ्कारः ॥२॥
भावार्थः
यदा योगिभिर्ब्रह्मानन्दरसोऽनुभूयते तदैव तेषां परब्रह्मणि श्रद्धा सफला जायते ॥२॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O learned persons, advance knowledge, through devices skilful like the hands; gleaned by well-charactered scholars, adamant like a mountain, and realise in your soul, the elixir of spiritual knowledge!
Meaning
As soma juice is extracted with stones worked by hands, refined and seasoned with honey and milk, so O lord, let my mind be refined and purified with repeated chants of the sacred voice, and let it be sanctified with the honey of devotion and let it be absorbed in the honey sweet of divinity. (Rg. 9-11-5)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (हस्तच्युतैः अद्रिभिः) હે ઉપાસકો ! તમે હાથથી રહિત, અદીર્ણ, અનશ્વર ફળવાળા કર્મો-યોગાભ્યાસો-દ્વારા (सुतं सोमम्) નિષ્પાદિત પરમાત્માનો (पुनीतन) સાક્ષાત્ કરો. (मधौ मधु आधावत) મધુ પોતાનાં જ્ઞાનવાન ચેતન સ્વરૂપ આત્મામાં મહામધુર-મધુરરૂપ પરમાત્માને સમગ્રરૂપથી પ્રાપ્ત કરો. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
जेव्हा योगी लोकांना ब्रह्मानंद-रसाची अनुभूती होते, तेव्हाच त्यांची परब्रह्मावरची श्रद्धा सफल होते. ॥२॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal