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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1454
ऋषिः - विभ्राट् सौर्यः
देवता - सूर्यः
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
काण्ड नाम -
36
वि꣣भ्रा꣢ड् बृ꣣ह꣡त्सुभृ꣢꣯तं वाज꣣सा꣡त꣢मं꣣ ध꣡र्मं꣢ दि꣣वो꣢ ध꣣रु꣡णे꣢ स꣣त्य꣡मर्पि꣢꣯तम् । अ꣣मित्रहा꣡ वृ꣢त्र꣣हा꣡ द꣢स्यु꣣ह꣡न्त꣢मं꣣ ज्यो꣡ति꣢र्जज्ञे असुर꣣हा꣡ स꣢पत्न꣣हा꣢ ॥१४५४॥
स्वर सहित पद पाठवि꣣भ्रा꣢ट् । वि꣣ । भ्रा꣢ट् । बृ꣣ह꣢त् । सु꣡भृ꣢꣯तम् । सु । भृ꣣तम् । वाजसा꣡त꣢मम् । वा꣣ज । सा꣡त꣢꣯मम् । ध꣡र्म꣢꣯न् । दि꣣वः꣢ । ध꣣रु꣡णे꣢ । स꣣त्य꣢म् । अ꣡र्पि꣢꣯तम् । अ꣣मित्रहा꣢ । अ꣣मित्र । हा꣢ । वृ꣣त्रहा꣢ । वृ꣣त्र । हा꣢ । द꣣स्युह꣡न्त꣢मम् । द꣣स्यु । ह꣡न्त꣢꣯मम् । ज्यो꣡तिः꣢꣯ । ज꣣ज्ञे । असुरहा꣢ । अ꣣सुर । हा꣢ । स꣣पत्नहा꣢ । स꣣पत्न । हा꣢ ॥१४५४॥
स्वर रहित मन्त्र
विभ्राड् बृहत्सुभृतं वाजसातमं धर्मं दिवो धरुणे सत्यमर्पितम् । अमित्रहा वृत्रहा दस्युहन्तमं ज्योतिर्जज्ञे असुरहा सपत्नहा ॥१४५४॥
स्वर रहित पद पाठ
विभ्राट् । वि । भ्राट् । बृहत् । सुभृतम् । सु । भृतम् । वाजसातमम् । वाज । सातमम् । धर्मन् । दिवः । धरुणे । सत्यम् । अर्पितम् । अमित्रहा । अमित्र । हा । वृत्रहा । वृत्र । हा । दस्युहन्तमम् । दस्यु । हन्तमम् । ज्योतिः । जज्ञे । असुरहा । असुर । हा । सपत्नहा । सपत्न । हा ॥१४५४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1454
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में सूर्य की ज्योति का वर्णन करके परमात्मा की महिमा प्रकाशित की गयी है।
पदार्थ
देखो, (विभ्राट्) देदीप्यमान, (बृहत्) विशाल, (सुभृतम्) अत्यन्त पुष्ट, (वाजसातमम्) अन्न और बल की अतिशय देनेवाली, (सत्यम्) सत्य नियमोंवाली, (धर्मन्) ग्रहोपग्रहों के धारणकर्ता (दिवः धरुणे) द्युलोक के स्तम्भरूप सूर्य में (अर्पितम्) अर्पित, (अमित्रहा) रोग आदि शत्रुओं को नष्ट करनेवाली, (वृत्रहा) अन्धकार की विनाशक, (दस्युहन्तमम्) चोर आदि दस्युओं को दूर करनेवाली, (असुरहा) अप्रशस्त दुर्भिक्ष आदि को विनष्ट करनेवाली, (सपत्नहा) एक साथ आक्रमण करनेवाले रोग-कृमियों की विनाशक (ज्योतिः) सूर्य की ज्योति (जज्ञे) प्रादुर्भूत हुई है ॥२॥ यहाँ स्वभावोक्ति अलङ्कार है। ‘हा’ का चार बार प्रयोग होने के कारण वृत्त्यनुप्रास है। ‘तमं’ और ‘त्रहा’ के दो-दो बार प्रयोग में छेकानुप्रास है ॥२॥
भावार्थ
रात्रि के घोर अन्धकार को विध्वस्त करती हुई सूर्य की ज्योति परमात्मा की आभा की ओर संकेत करती है ॥२॥
पदार्थ
(विभ्राट्) विशेष दीप्त (बृहत्) बड़ा (सुभृतम्) सब में सुगमतया रखा (वाजसातमम्) बल का अत्यन्त दाता (दिवः-धरुणे धर्मन्) मोक्षधाम के धारक मुमुक्षु द्वारा धारण करने योग्य१ (सत्यम्) सत्यस्वरूप (अर्पितम्) प्राप्त—स्थित परमात्मज्योति है (अमित्रहा) चेतनत्वविरोधी—जड़त्व का नाशक (वृत्रहा) पापनाशक (दस्युहन्तमम्) क्षयकारक अज्ञान का अत्यन्त नाशक (असुरहा) स्वार्थभावविघातक (सपत्नहा) वैरनाशक (ज्योतिः) परमात्मज्योति उपासक का पालन करता है॥२॥
विशेष
<br>
विषय
विभ्राट् सौर्य
पदार्थ
(अमित्रहा) = शत्रुओं को नष्ट करनेवाला ब्रह्मचारी, (वृत्रहा) = ज्ञान पर पर्दा डालनेवाले कामरूप वृत्र का विध्वंसक गृहस्थ, (असुरहा) = [असु-र-हा] अपने प्राणों में ही रमण करते रहने की वृत्ति को नष्ट करनेवाला वनस्थ और (सपत्नहा) = सब सपत्नों को समाप्त कर एक प्रभु को ही पति बनानेवाला संन्यासी=ब्रह्माश्रमी (ज्योतिः जज्ञे) = अपने अन्दर प्रकाश को उत्पन्न करता है [यहाँ जन् अन्तर्भावितण्यर्थ है] ।
ब्रह्मचारी को यहाँ‘अमित्र-हा' कहा है। उसका मूल कर्त्तव्य काम, क्रोध, लोभादि से दूर रहते
हुए विद्यार्जन करना है। इसे शत्रुघ्न बनना है। गृहस्थ में आने पर काम में फँस जाने की अधिक आशंका है । यह काम ज्ञान पर पर्दा डाल देता है । गृहस्थ ने इसका शिकार न होकर इस वृत्र का विनाश करनेवाला बनना है। वनस्थ ने सदा भोगों में ही न फँसे रहकर तीव्र तपस्या में चलना है और इस प्रकार ‘असु-र-हा' बनकर अपने प्राणों में ही रमण करते रहने की वृत्ति का अन्त करना है। इसके बाद चतुर्थाश्रम में उसे अपना जीवन ऐसा बना लेना है कि केवल प्रभु ही उसके पति हों । यह ब्रह्माश्रमी सर्वसपत्नों परमात्मा के स्थान पर अन्य देवों की उपासना को समाप्त कर केवल ब्रह्म को ही पति बनाता है ।
ये सब व्यक्ति अपने अन्दर उस ज्योति को उत्पन्न करते हैं जो - १. (विभ्राट्) = विशेषरूप से दीप्त करनेवाली है— इससे मस्तिष्करूप द्युलोक जगमगा उठता है । २. (बृहत्) = यह हृदय को विशाल बनाती है [बृहि वृद्धौ ] । इस ज्ञान को प्राप्त करनेवाला व्यक्ति कभी संकुचित हृदय [narrowminded] नहीं होता । ३. (सुभृतम्) = यह शरीर का उत्तम भरण-पोषण करती है । इस ज्ञान-ज्योति से वह आजीविका कमाने योग्य तो बनता ही है साथ ही अपथ्यादि का सेवन नहीं करता, अतः शरीर स्वस्थ बना रहता है । ४. (वाजसातमम्) = यह ज्ञान-ज्योति अङ्ग-प्रत्यङ्ग को अधिक-से-अधिक शक्ति प्राप्त करानेवाली होती है । (धर्मम्) = यह धारण करनेवाली होती है - सदा रोगादि से बचाये रखती है । यह (सत्यम्) = सत्य ज्ञान (दिवः) = प्रकाश के (धरुणे) = धारक [आगार store-room] ब्रह्म में (अर्पितम्) = निहित है— स्थापित है, अर्थात् यह वह सत्य ज्योति है जिसका मूलस्रोत प्रभु हैं। ६. यह ज्योति (दस्युहन्तमम्) = नाशकों की नाशक है । दस्युओं की ध्वंसक शक्तियों को समाप्त करनेवाली है और इस प्रकार हमारे निर्माण व उत्थान की निदान है। ।
इस ज्ञान-ज्योति को प्राप्त करके यह व्यक्ति सूर्य के समान देदीप्यमान हो उठता है, अतः ‘विभ्राट् सौर्य' कहलाता है ।
भावार्थ
प्रभुकृपा से हम भी 'विभ्राट् सौर्य' बन पाएँ।
विषय
missing
भावार्थ
(विभ्राड्) विशेष रूप से तेज से प्रकाशमान (बृहत्) विशाल, बड़ा भारी (सुभृतं) उत्तम रूप से (पालित) पोषित एवं धारित, (वाजसातमं) ज्ञान और बल प्रदान करने हारों में उत्तम है, (धर्मं) धारण करने हारा साक्षात् आनन्द का प्रवर्षक आत्मरूप (दिवः) समस्त सूर्य एवं द्यौलोक और विद्वानों के (धरुणे) आश्रय स्वरूप धारण करने हारे परम आश्रय परब्रह्म में (अर्पितम्) प्रतिष्ठापित, (सत्यं) सत्यस्वरूप, (अमित्रहा) विपरीत जाने हारे शत्रुरूप काम क्रोधादि अन्तःशत्रु और बहिःशत्रुओं का भी नाश करने हारा, (वृत्रहा) आत्मा के आवरक अज्ञान और योगसमाधि के विघातक आभ्यन्तर और बाह्य विघातक व्युत्थान वृत्तियों का नाशक, (हस्युहन्तमं) शरीर आत्मा के उत्तम सम्पदाओं के विनाशक कारणों का नाश करने हारा, (असुरहा) प्राणों में रमण करने वाले आसुरी स्वभाव के व्यक्तियों को वश करने हारा (सपत्नहा) प्रतिस्पर्द्वियों का विनाशक (ज्योतिः) तेजःस्वरूप अर्थात् तेज को धारण करने हारा आदित्य के समान सूर्यव्रतचारी आदित्य योगी (जज्ञे) उत्पन्न होता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१ कविर्भार्गवः। २, ९, १६ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। ३ असितः काश्यपो देवलो वा। ४ सुकक्षः। ५ विभ्राट् सौर्यः। ६, ८ वसिष्ठः। ७ भर्गः प्रागाथः १०, १७ विश्वामित्रः। ११ मेधातिथिः काण्वः। १२ शतं वैखानसाः। १३ यजत आत्रेयः॥ १४ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः। १५ उशनाः। १८ हर्यत प्रागाथः। १० बृहद्दिव आथर्वणः। २० गृत्समदः॥ देवता—१, ३, १५ पवमानः सोमः। २, ४, ६, ७, १४, १९, २० इन्द्रः। ५ सूर्यः। ८ सरस्वान् सरस्वती। १० सविता। ११ ब्रह्मणस्पतिः। १२, १६, १७ अग्निः। १३ मित्रावरुणौ। १८ अग्निर्हवींषि वा॥ छन्दः—१, ३,४, ८, १०–१४, १७, १८। २ बृहती चरमस्य, अनुष्टुप शेषः। ५ जगती। ६, ७ प्रागाथम्। १५, १९ त्रिष्टुप्। १६ वर्धमाना पूर्वस्य, गायत्री उत्तरयोः। १० अष्टिः पूर्वस्य, अतिशक्वरी उत्तरयोः॥ स्वरः—१, ३, ४, ८, ९, १०-१४, १६-१८ षड्जः। २ मध्यमः, चरमस्य गान्धारः। ५ निषादः। ६, ७ मध्यमः। १५, १९ धैवतः। २० मध्यमः पूर्वस्य, पञ्चम उत्तरयोः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ सूर्यस्य ज्योतिरुपवर्ण्य परमात्ममहिमानं प्रकाशयति।
पदार्थः
पश्यत, (विभ्राट्) विभ्राजमानम् (बृहत्) विशालम्, (सुभृतम्) सुपुष्टम्, (वाजसातमम्) अन्नस्य बलस्य वा दातृतमम्, (सत्यम्) सत्यनियमम्, (धर्मन्) धर्मणि ग्रहोपग्रहाणां धारके (दिवः धरुणे) द्युलोकस्य स्तम्भे सूर्ये (अर्पितम्) निक्षिप्तम् (अमित्रहा) अमित्राणां रोगादीनां हन्तृ, (वृत्रहा) वृत्रस्य अन्धकारस्य हन्तृ, (दस्युहन्तमम्) दस्यूनां परपदार्थापहर्तॄणां तस्करादीनाम् अपगमयितृतमम्, (असुरहा) अप्रशस्तानां दुर्भिक्षादीनां हन्तृ, (सपत्नहा) सपत्नानां सहपतनशीलानां रोगकृमीणां हन्तृ, (ज्योतिः) सौरं तेजः (जज्ञे) प्रादुर्भवति ॥२॥ अत्र स्वभावोक्तिरलङ्कारः। ‘हा’ इत्यस्य चतुः प्रयोगाद् वृत्त्यनुप्रासः, ‘तमं’ ‘त्रहा’ इत्यनयोर्द्विरुक्तेश्च छेकः ॥२॥
भावार्थः
रात्रेरन्धतमसं विध्वंसयत् सूर्यज्योतिः परमात्मभासं प्रति संकेतयति ॥२॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The lustrous, mighty force of intellect, well-fostered, the bestower of the strength of knowledge, is stabilized in its true aspect, under the asylum of concentration and the light of learning. Soul, the subduer of unfriendly passions like lust and anger, the dispeller of the demon of ignorance. the killer of the demon of vice, the queller of satanic tendencies, enkindles this intellectual light, that vanquishes all violent propensities.
Meaning
The mighty refulgent sun, destroyer of unfriendly forces, darkness and evil, anti-life elements, adversaries and enemies, rises, bearing the light that is the highest giver of food, energy and growing advancement. Truly vested in the established order of nature in the solar region, blissfully sustained, it is the highest killer of negative and destructive forces prevailing in life and nature. (Rg. 10-170-2)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (विभ्राट्) વિશેષ દીપ્ત (बृहत्) મહાન (सुभृतम्) સર્વમાં સરળતાથી રાખેલ (वाजसातमम्) બળનો અત્યંત દાતા, (दिवः धरुणे धर्मन्) મોક્ષધામના ધારક મુમુક્ષુ દ્વારા ધારણ કરવા યોગ્ય, (सत्यम्) સત્યસ્વરૂપ (अर्पितम्) પ્રાપ્ત-સ્થિત પરમજ્યોતિ છે. (अमित्रहा) ચૈતનત્વ વિરોધી-જડત્વનો નાશક, (वृत्रहा) પાપનાશક, (दस्युहन्तमम्) ક્ષયકારક, અજ્ઞાનનો અત્યંત નાશક, (असूरहा) સ્વાર્થભાવ વિઘાતક, (सपत्नहा) વૈરનાશક, (ज्योतिः) પરમ જ્યોતિ ઉપાસકનું પાલન કરનાર છે. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
रात्रीचा घोर अंधकार नष्ट करत सूर्याची ज्योती परमेश्वराची आभा दर्शवीत आहे. ॥२॥
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