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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1460
    ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः देवता - सरस्वान् छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    39

    ज꣣नी꣢यन्तो꣣ न्व꣡ग्र꣢वः पुत्री꣣य꣡न्तः꣢ सु꣣दा꣡न꣢वः । स꣡र꣢स्वन्तꣳ हवामहे ॥१४६०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ज꣣नीय꣡न्तः꣢ । नु । अ꣡ग्र꣢꣯वः । पु꣣त्रीय꣡न्तः꣢ । पु꣣त् । त्रीय꣡न्तः꣢ । सु꣣दा꣢न꣢वः । सु꣣ । दा꣡न꣢꣯वः । स꣡र꣢꣯स्वन्तम् । ह꣣वामहे ॥१४६०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जनीयन्तो न्वग्रवः पुत्रीयन्तः सुदानवः । सरस्वन्तꣳ हवामहे ॥१४६०॥


    स्वर रहित पद पाठ

    जनीयन्तः । नु । अग्रवः । पुत्रीयन्तः । पुत् । त्रीयन्तः । सुदानवः । सु । दानवः । सरस्वन्तम् । हवामहे ॥१४६०॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1460
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 1
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    प्रथम मन्त्र में गृहस्थ के कर्तव्य के रूप में परमात्मा की पूजा का वर्णन है।

    पदार्थ

    (अग्रवः) पुरुषार्थी, (जनीयन्तः) पत्नी को चाहनेवाले, (पुत्रीयन्तः) पुत्र-पुत्री को चाहनेवाले, (सुदानवः) उत्कृष्ट दान करनेवाले हम गृहस्थ लोग (सरस्वन्तम्) आनन्दरसमय परमात्मा को (नु) शीघ्र ही (हवामहे)पुकारते हैं ॥१॥

    भावार्थ

    ब्रह्मचारी लोग स्नातक होकर विदुषी, सच्चरित्र, गुणवती कन्या से विवाह करके, प्रशस्त सन्तान उत्पन्न करके, पञ्चमहायज्ञ आदि गृहस्थ के कर्तव्यों का पालन करते हुए परमात्मा की उपासना करें ॥१॥

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    पदार्थ

    (जनीयन्तः) हम उपासक मुमुक्षुजनों की शक्तियों५ को चाहते हुए जिनमें मुमुक्षु बनते हैं (पुत्रीयन्तः) अध्यात्मवरों६ को चाहते हुए जो मुमुक्षुओं के अभीष्ट होते हैं (अग्रवः) आगे बढ़ने वाले (सुदानवः) शोभनदान—आत्मदान—आत्मसमर्पण करने वाले (सरस्वन्तं हवामहे) वेदवाणी वाले परमात्मा को आमन्त्रित करते हैं॥१॥

    विशेष

    ऋषिः—वसिष्ठः (परमात्मा में अत्यन्त वसने वाला)॥ देवता—सरस्वान् (वेदवाणी वाला४ परमात्मा)॥<br>

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    विषय

    उत्तम जीवन=सरस्वान्, पत्नी, पुत्र, प्रभु

    पदार्थ

    मैत्रावरुणि=प्राणापान की साधनावाला वसिष्ठ- उत्तम वसुओंवाला– प्राणापान की साधना से जिसने उत्तम वसुओं को प्राप्त किया है, वह अपने जीवन को उत्तम इसलिए बना पाया है कि -
    १. (जनीयन्तः) = उन्होंने पत्नी की कामना तो की, परन्तु केवल इसलिए कि (नु) = अब वे (अग्रवः) = आगे बढ़ सकें। गृहस्थ में उनके प्रवेश का उद्देश्य ‘आराम का या मौज का जीवन बिताना' न था। उन्होंने तो पत्नी का हाथ पकड़ते हुए यही शब्द कहे थे कि ('त्वया वयं धारा उदन्या इव अतिगाहेमहि द्विष:') = तेरे साथ मिलकर हम सब अप्रीतिकर – अवाञ्छनीय दुर्गुणों को ऐसे तैर जाएँ जैसे पर्वतीय जलधाराओं को हाथ पकड़कर पार कर जाते हैं । इस संसार - समुद्र में मनुष्य का अकेले पार पहुँचना । मनुष्य किसी भी समय किसी विषय-ग्राह से गृहीत हो सकता है। पतिपत्नी परस्पर रक्षा का कारण बनते हैं। कभी-कभी जीवन में निराशा भी आ सकती है— उस समय ये एक-दूसरे का उत्साहवर्धनवाले होते हैं । एवं, गृहस्थ मोक्षमार्ग पर आगे बढ़ने के लिए है। 

    २. (पुत्रीयन्तः) = इन्होंने सन्तान को भी चाहा, पर केवल (सुदानवः) = इस भावना से कि वे अपने (सु) = उत्तमांश को (दानवः) = लोकहित के लिए अपने पीछे भी दे जाएँ । उनके शरीरान्त पर ये अनुभव न हो कि वे समाप्त हो गये हैं- अपितु उनसे चलाये हुए कर्म उसी प्रकार चलते रहें । यही तो प्रजाओं के द्वारा अमर बनना है–('प्रजाभिरग्ने अमृतत्वमश्याम') । 

    ३. इसी प्रकार एक सद्गृहस्थ बनकर ये (सरस्वन्तम्) = ज्ञान के सागर 'सरस्वान्' प्रभु को (हवामहे) = सदा पुकारते हैं। प्रातः - सायं प्रभु की प्रार्थना करते हैं – वस्तुतः खाते-पीते, सोते-जागते, उठतेबैठते ये प्रभु का स्मरण करते हैं, उसे कभी विसारते नहीं । इन तीन बातों ने ही वसिष्ठ को वसिष्ठबड़े उत्तम निवासवाला बना दिया।

    भावार्थ

    हम साथी के रूप में पत्नी को चाहें, अपने लोकहित के कार्यों को नष्ट न होने देने के लिए सन्तानों को चाहें, सदा प्रभु का स्मरण करें और 'वसिष्ठ' बनें ।

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    (जनीयन्तः) पुत्रोत्पादन के निमित्त भार्याओं की कामना करते हुए और (पुत्रीयन्तः) उनमें पुत्रों की कामना करने हारे होकर भी (अग्रवः) उन्नतिशील और (सुदानवः) उत्तम दानी होकर हम लोग (सरस्वन्तं) समस्त आनन्दरस के सागररूप तुझ परमात्मा को (हवामहे) नित्य स्मरण करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ कविर्भार्गवः। २, ९, १६ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। ३ असितः काश्यपो देवलो वा। ४ सुकक्षः। ५ विभ्राट् सौर्यः। ६, ८ वसिष्ठः। ७ भर्गः प्रागाथः १०, १७ विश्वामित्रः। ११ मेधातिथिः काण्वः। १२ शतं वैखानसाः। १३ यजत आत्रेयः॥ १४ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः। १५ उशनाः। १८ हर्यत प्रागाथः। १० बृहद्दिव आथर्वणः। २० गृत्समदः॥ देवता—१, ३, १५ पवमानः सोमः। २, ४, ६, ७, १४, १९, २० इन्द्रः। ५ सूर्यः। ८ सरस्वान् सरस्वती। १० सविता। ११ ब्रह्मणस्पतिः। १२, १६, १७ अग्निः। १३ मित्रावरुणौ। १८ अग्निर्हवींषि वा॥ छन्दः—१, ३,४, ८, १०–१४, १७, १८। २ बृहती चरमस्य, अनुष्टुप शेषः। ५ जगती। ६, ७ प्रागाथम्। १५, १९ त्रिष्टुप्। १६ वर्धमाना पूर्वस्य, गायत्री उत्तरयोः। १० अष्टिः पूर्वस्य, अतिशक्वरी उत्तरयोः॥ स्वरः—१, ३, ४, ८, ९, १०-१४, १६-१८ षड्जः। २ मध्यमः, चरमस्य गान्धारः। ५ निषादः। ६, ७ मध्यमः। १५, १९ धैवतः। २० मध्यमः पूर्वस्य, पञ्चम उत्तरयोः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तत्रादौ गृहस्थकर्तव्यत्वेन परमात्मपूजामाह।

    पदार्थः

    (अग्रवः) गन्तारः, पुरुषार्थिनः, (जनीयन्तः) जनिर्जाया तामिच्छन्तः, (पुत्रीयन्तः) पुत्रपुत्रीः इच्छन्तः (सुदानवः) सुदानकर्माणः गृहस्थाः वयम् (सरस्वन्तम्) आनन्दरसमयं परमात्मानम् (नु) सद्यः (हवामहे) आह्वयामः। [अग्रवः, अगि गतौ, अङ्गन्ति गच्छन्तीति अग्रवः। बाहुलकादौणादिकः उः प्रत्ययो धातोर्नलोपश्च। सुदानवः ददातीति दानुः ‘दाभाभ्यां नुः।’उ० ३।३२ इति ददातेर्नुः प्रत्ययः] ॥१॥

    भावार्थः

    ब्रह्मचारिणः स्नातका भूत्वा विदुषीं सच्चरित्रां गुणवतीं कन्यां विवाह्य प्रशस्तं सन्तानमुत्पाद्य पञ्चमहायज्ञादिगृहस्थकर्तव्यान्या- चरन्तः परमात्मानमुपासीरन् ॥१॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    We progressing, bounteous people, longing for wives, and yearning For sons, daily call upon the Omniscient God.

    Translator Comment

    In the opinion of Satyavrat Samashrami, this stanza does not contain one verse alone, the next verse also forms a part of it. Vivarnkar also holds the same view. Sayan Acharya differs from this View. Vedic Yantralaya of Ajmer, Swami Tulsi Ram, and Pt. Jaidev Vidyalankar agree with Sayana.

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    Meaning

    Wishing for marriage, or looking forward to good progeny, liberally giving in charity, or meditating to realise the light of divinity, we pray for the living flow of the waters of Sarasvati, radiating light of divinity, the eternal ocean whence flow the light and the waters of life. (Rg. 7-96-4)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (जनीयन्तः) અમારી ઉપાસક મુમુક્ષુજનોની શક્તિઓને ઇચ્છતાં જેનામાં મુમુક્ષુ બનીએ છીએ (पुत्रीयन्तः) અધ્યાત્મવરોને ઇચ્છતા જે મુમુક્ષુઓને ઇચ્છિત બને છે. (अग्रवः) આગળ વધારનારા (सुदानवः) શ્રેષ્ઠદાન-આત્મદાન આત્મસમર્પણ કરનારા (सरस्वन्तं हवामहे) વેદવાણીવાળા પરમાત્માને આમંત્રિત કરીએ છીએ. (૧)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ब्रह्मचारी लोकांनी स्नातक बनून विदुषी सच्चरित्र गुणवान कन्येशी विवाह करून, प्रशंसनीय संतान उत्पन्न करावे. पंचमहायज्ञ इत्यादी गृहस्थाच्या कर्तव्यांचे पालन करून परमेश्वराची उपासना करावी. ॥१॥

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