Loading...

सामवेद के मन्त्र

  • सामवेद का मुख्य पृष्ठ
  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1471
    ऋषिः - उशनाः काव्यः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम -
    20

    अ꣣य꣡ꣳ सोम꣢꣯ इन्द्र꣣ तु꣡भ्य꣢ꣳ सुन्वे꣣ तु꣡भ्यं꣢ पवते꣣ त्व꣡म꣢स्य पाहि । त्व꣢ꣳ ह꣣ यं꣡ च꣢कृ꣣षे꣡ त्वं व꣢꣯वृ꣣ष꣢꣫ इन्दुं꣣ म꣡दा꣢य꣣ यु꣡ज्या꣢य꣣ सो꣡म꣢म् ॥१४७१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ꣡य꣢म् । सो꣡मः꣢꣯ । इ꣣न्द्र । तु꣡भ्य꣢꣯म् । सु꣣न्वे । तु꣡भ्य꣢꣯म् । सु꣣न्वे । तु꣡भ्य꣢꣯म् । प꣣वते । त्व꣢म् । अ꣣स्य । पाहि । त्व꣢म् । ह꣣ । य꣢म् । च꣣कृ꣢षे । त्वम् । ववृ꣣षे꣢ । इ꣡न्दु꣢꣯म् । म꣡दा꣢꣯य । यु꣡ज्या꣢꣯य । सो꣡म꣢꣯म् ॥१४७१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयꣳ सोम इन्द्र तुभ्यꣳ सुन्वे तुभ्यं पवते त्वमस्य पाहि । त्वꣳ ह यं चकृषे त्वं ववृष इन्दुं मदाय युज्याय सोमम् ॥१४७१॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अयम् । सोमः । इन्द्र । तुभ्यम् । सुन्वे । तुभ्यम् । सुन्वे । तुभ्यम् । पवते । त्वम् । अस्य । पाहि । त्वम् । ह । यम् । चकृषे । त्वम् । ववृषे । इन्दुम् । मदाय । युज्याय । सोमम् ॥१४७१॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1471
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 1
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    प्रथम मन्त्र में आनन्दरस के प्रवाह का वर्णन है।

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) जीवात्मन् ! (अयं सोमः) यह ब्रह्मानन्द-रस (तुभ्यम्) तेरे लिए (सुन्वे) अभिषुत हो रहा है, (तुभ्यम्) तेरे लिए (पवते) प्रवाहित हो रहा है। (त्वम् अस्य पाहि) तू इसका पान कर, (यम्) जिस (इन्दुम्) भिगोनेवाले (सोमम्) ब्रह्मानन्द-रस को (मदाय) उत्साह के लिए, (युज्याय) और ब्रह्म के साथ मैत्री के लिए (त्वं ह) तूने ही (चकृषे) ब्रह्म के पास से उत्पन्न किया है और (त्वम्) तूने ही (ववृषे) उसके पास से अपने ऊपर उसकी वर्षा की है ॥१॥

    भावार्थ

    परमात्मा के साथ अपने आत्मा का योग करते हुए योगी लोग उसके पास से परमानन्द प्राप्त करके कृतार्थ हो जाते हैं ॥१॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे परमात्मन्! (तुभ्यम्) तेरे लिये (अयं सोमः सुन्वे) यह उपासनारस निष्पन्न किया जाता है (तुभ्यं पवते) तेरे लिये प्रेरित है८ (अस्य ‘इमम्’ पाहि) इसे तू पान कर—स्वीकार कर९ (त्वं ह यम्-इन्दुं चकृषे) तू जिस आर्द्र उपासनारस को स्वीकार किया करता है (त्वं सोमं ववृषे) तू जिस उपासनारस को वरा करता है—चाहा करता है, उसे (मदाय युज्याय) उपासक को हर्षित करने के लिये और उसके सहाय के लिये ‘पाहि’ पान कर—स्वीकार कर॥२॥

    विशेष

    ऋषिः—उशनाः (बन्धन से छूटने—मुक्ति की कामना करने वाला उपासक)॥ देवता—इन्द्रः (ऐश्वर्यवान् परमात्मा७)॥ छन्दः—त्रिष्टुप्॥<br>

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    पवित्रता, उल्लास, प्रभु-सायुज्य

    पदार्थ

    मन्त्र का ऋषि उशना:- [प्रभु-प्राप्ति की प्रबल कामनावाला] है। उससे प्रभु कहते हैं कि हे उशनाः ! (त्वम्) = तू (ह) = निश्चय से (यम्) = जिस (इन्दुम्) = शक्तिशाली (सोमम्) = सोम–वीर्यशक्ति को (चकृषे) = अपने अन्दर उत्पन्न करता है और (त्वम्) = तू (यम्) = जिसको (ववृषे) = अपने अन्दर पीता है [वृष् to drink] हे (इन्द्र) = सोमपान करनेवाले जीवात्मन् ! (अयं सोमः) = यह सोम वस्तुतः (तुभ्यं सुन्वे) = तेरे लिए ही पैदा किया गया है, (तुभ्यम्) = यह सोम तेरे लिए ही (पवते) = जीवन को पवित्र करनेवाला होता है। इस प्रकार यह सोम शरीर के अन्दर व्याप्त होकर (मदाय) = हर्ष के लिए होता है— तेरे जीवन में एक उल्लास को लानेवाला होता है और (युज्याय) = तुझे प्रभु के साथ मिलाने के लिए होता है ‘ऐहलौकिक जीवन में उल्लास और परलोक में प्रभु से मेल' ये दो सोम के प्रमुख लाभ हैं । जीवन ।
    में पवित्रता का संचार तो करता ही है । इसलिए (त्वम्) = तू (अस्य पाहि) = इसकी अवश्य रक्षा कर । 
     

    भावार्थ

    हम सोम का उत्पादन व पान करनेवाले हों । यह हमें पवित्र बनाकर उल्लासयुक्त व प्रभु से मेलवाला बनाएगा।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    missing

    भावार्थ

    हे इन्द्र ! आत्मन् ! परमात्मन् ! (अयं सोमः) यह सोम, शमादि सम्पन्न योगी (तुभ्यं) तर लिये (सुन्वे) साधना करके निष्पन्न होता है। (तुभ्यं पवते) तेरी प्राप्ति के लिये यत्न करता है। (यं) जिसको (त्वं) तू (चकृषे) बनाता है और (त्वं ववृषे) तू ही सामर्थ्य देता है या वरण करता है उस (इन्दुम्) ऐश्वर्य और तप से युक्त (सोमम्) शमदमादि साधन सम्पत्ति से युक्त पुरुष को (मदाय) आनन्दप्राप्ति, मोक्षलाभ और (युज्याय) अपने संग रखने अर्थात् ब्रह्मसाक्षात्कार के लिये (त्वं) तू (अस्य पाहि) उसको (विघ्नों) से बचाता है।

    टिप्पणी

    नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेध्या न बहुना श्रुतेन। यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्। (कठोपनि० १। १२। २२)।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ कविर्भार्गवः। २, ९, १६ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। ३ असितः काश्यपो देवलो वा। ४ सुकक्षः। ५ विभ्राट् सौर्यः। ६, ८ वसिष्ठः। ७ भर्गः प्रागाथः १०, १७ विश्वामित्रः। ११ मेधातिथिः काण्वः। १२ शतं वैखानसाः। १३ यजत आत्रेयः॥ १४ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः। १५ उशनाः। १८ हर्यत प्रागाथः। १० बृहद्दिव आथर्वणः। २० गृत्समदः॥ देवता—१, ३, १५ पवमानः सोमः। २, ४, ६, ७, १४, १९, २० इन्द्रः। ५ सूर्यः। ८ सरस्वान् सरस्वती। १० सविता। ११ ब्रह्मणस्पतिः। १२, १६, १७ अग्निः। १३ मित्रावरुणौ। १८ अग्निर्हवींषि वा॥ छन्दः—१, ३,४, ८, १०–१४, १७, १८। २ बृहती चरमस्य, अनुष्टुप शेषः। ५ जगती। ६, ७ प्रागाथम्। १५, १९ त्रिष्टुप्। १६ वर्धमाना पूर्वस्य, गायत्री उत्तरयोः। १० अष्टिः पूर्वस्य, अतिशक्वरी उत्तरयोः॥ स्वरः—१, ३, ४, ८, ९, १०-१४, १६-१८ षड्जः। २ मध्यमः, चरमस्य गान्धारः। ५ निषादः। ६, ७ मध्यमः। १५, १९ धैवतः। २० मध्यमः पूर्वस्य, पञ्चम उत्तरयोः॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    विषयः

    तत्रादौ आनन्दरसप्रवाहं वर्णयति।

    पदार्थः

    हे (इन्द्र) जीवात्मन् ! (अयं सोमः) एष ब्रह्मानन्दरसः (तुभ्यम्) त्वदर्थम् (सुन्वे) अभिषूयते, (तुभ्यम्) त्वदर्थम् (पवते) प्रवहति, (त्वम् अस्य पाहि) त्वम् एतम् आस्वादय, (यम् इन्दुम्) क्लेदकम् (सोमम्)ब्रह्मानन्दरसम् (मदाय) उत्साहाय, (युज्याय) ब्रह्मणा सह सख्याय च (त्वं ह) त्वमेव (चकृषे) ब्रह्मणः सकाशात् उत्पादितवानसि, (त्वम्) त्वमेव च (ववृषे)तत्सकाशात् स्वोपरि वर्षितवान् असि ॥१॥

    भावार्थः

    परमात्मना स्वात्मानं युञ्जाना योगिनस्तत्सकाशात् परमानन्दं प्राप्य कृतार्था जायन्ते ॥१॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O God, this calm Yogi, is born for Thee, and exerts for Thy acquisition, Whom Thou createst and grandest strength endowed with glory, austerity, tranquillity and self-command. Thou guardest against calamities for salvation and Thy proximity!

    इस भाष्य को एडिट करें

    Meaning

    Indra, O soul of life, O man, this soma spirit of life and light, this beauty and joy is created for you; it flows, illuminates and sanctifies, for you; take it, live it, protect and advance it, dont destroy it. Indeed you create it, it is your choice to create it. And whatever you do and choose to do is for your mutual joy and indispensable togetherness. O man, enjoy the beauty and vibrancy of life, maintain and advance it for peace in mutual interest in a spirit of interdependence and cooperation. (Rg. 9-88-1)

    इस भाष्य को एडिट करें

    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (इन्द्र) હે પરમાત્મન્ ! (तुभ्यम्) તારા માટે (अयं सोमः सुन्वे) આ ઉપાસનારસ તૈયાર કરવામાં આવે છે. (तुभ्यं पवते) તારા માટે પ્રેરિત છે. (अस्य "इमम्" पाहि) તું એનું પાન કર-સ્વીકાર કર. (त्वं हि यम् इन्दुं चकृषे) તું જે આર્દ્ર ઉપાસનારસનો સ્વીકાર કર્યા કરે છે. (त्वं सोमं ववृषे) તું જે ઉપાસનારસનું વરણ કરે છે-ચાહે છે, તેને (मदाय युज्याय) ઉપાસકને હર્ષિત-આનંદિત કરવા માટે અને તેની સહાય માટે ‘પાહિ’ પાન કર-સ્વીકાર કર. (૧)
     

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्म्याबरोबर आपल्या आत्म्याचा योग करत योगी लोक त्याच्याकडून परमानंद प्राप्त करून कृतार्थ होतात. ॥१॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top