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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1478
ऋषिः - विश्वामित्रो गाथिनः
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
33
वा꣣जी꣡ वाजे꣢꣯षु धीयतेऽध्व꣣रे꣢षु꣣ प्र꣡ णी꣢यते । वि꣡प्रो꣢ य꣣ज्ञ꣢स्य꣣ सा꣡ध꣢नः ॥१४७८॥
स्वर सहित पद पाठवा꣣जी꣢ । वा꣡जे꣢꣯षु । धी꣣यते । अध्वरे꣡षु꣢ । प्र । नी꣣यते । वि꣡प्रः꣢꣯ । वि । प्रः꣣ । यज्ञ꣡स्य꣢ । सा꣡ध꣢꣯नः ॥१४७८॥
स्वर रहित मन्त्र
वाजी वाजेषु धीयतेऽध्वरेषु प्र णीयते । विप्रो यज्ञस्य साधनः ॥१४७८॥
स्वर रहित पद पाठ
वाजी । वाजेषु । धीयते । अध्वरेषु । प्र । नीयते । विप्रः । वि । प्रः । यज्ञस्य । साधनः ॥१४७८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1478
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 15; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 5; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 15; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 5; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
आगे फिर वही विषय है।
पदार्थ
(वाजी) बलवान् अग्नि नामक परमेश्वर (वाजेषु) देवासुरसंग्रामों में (धीयते) अन्तरात्मा में धारण किया जाता है और (अध्वरेषु) हिंसारहित व्यवहारों में (प्रणीयते) आगे लाया जाता है। वह (विप्रः) विशेष पूर्णता प्रदान करनेवाला तथा (यज्ञस्य साधनः) जीवन-यज्ञ को सफल करनेवाला है ॥२॥
भावार्थ
जो परमेश्वर सबको सिद्धि देनेवाला है, उसकी सब लोगों को मनोयोगपूर्वक आराधना करनी चाहिए ॥२॥
पदार्थ
(वाजी) अमृत अन्नभोग का स्वामी परमात्मा (वाजेषु) अमृत अन्नभोगों के निमित्त३ (धीयते) ध्याया जाता है (अध्वरेषु प्रणीयते) अतः अध्यात्मयज्ञ प्रसङ्गों में लक्षित किया जाता है (विप्रः-यज्ञस्य साधनः) क्योंकि वह अध्यात्मयज्ञ का विशेष पूरक साधन है॥२॥
विशेष
<br>
विषय
वाज, अध्वर, यज्ञ
पदार्थ
जो व्यक्ति सचमुच 'उशना : ' = प्रभु के गुणों की प्राप्ति की प्रबल कामनावाला होता है तथा ‘काव्यः'=अर्थतत्त्व [वास्तविकता] को जानकर चलता है, वह १. (वाजी) = शक्तिशाली बनता हैऔर (वाजेषु) = शक्तिशाली कामों में (धीयते) = सदा रक्खा जाता है । यह संसार में सदा क्रियाशील जीवनवाला होता है । यह क्रियाशीलता ही इसके वासनाओं से बचे रहकर शक्तिशाली बनने का रहस्य बनती है। २. (अध्वरेषु) = हिंसारहित यज्ञों में यह (प्रणीयते) = आगे और आगे ले जाया जाता है। हिंसारहित कर्मों को करता हुआ यह जीवन में उन्नति-पथ पर आगे बढ़ता है । ३. (विप्रः) = यह विशेषरूप से अपना पूरण करनेवाला होता है और ४. (यज्ञस्य साधन:) = लोकहित के श्रेष्ठतम कर्मों को सिद्ध करनेवाला होता है ।
भावार्थ
हम शक्तिशाली कर्मों में लगे रहें, अहिंसा के मार्ग पर आगे बढ़ें, अपनी न्यूनताओं को दूर कर अपना पूरण करनेवाले हों-लोकहित के कार्यों में प्रवृत्त हों।
टिप्पणी
नोट–‘वाज, अध्वर और यज्ञ' तीनों ही शब्द यज्ञ के लिए प्रयुक्त होते हैं । यहाँ उनमें इस प्रकार भेद करके दिखाया गया है १. वाज शक्तिशाली कर्म हैं, २. अध्वर — अहिंसा का मार्ग है और ३. यज्ञ लोकहित के लिए किये गये श्रेष्ठतम कर्म हैं ।
विषय
missing
भावार्थ
(वाजी) बलवान् और ज्ञानवान् पुरुष (वाजेषु) बल के कार्यों में (धीयते) नियुक्त किया जाता है और उसी प्रकार का ज्ञानवान् बलशाली पुरुष (अध्वरेषु) परस्पर की हिंसादि से रहित व्यवस्थापन आदि कार्यों में (प्रणीयते) विशेष रूप से नियुक्त किया जाता है, क्योंकि (यज्ञस्य) दान, यज्ञ, तप, स्वाध्याय एवं संगतिकरण आदि सत्कार्यों को (साधनः) साधन करने हारा (विप्रः) ज्ञानवान् विपश्चित् पुरुष होता है।
टिप्पणी
मायया, कर्मविषयाभिज्ञानन इति सायणः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१ कविर्भार्गवः। २, ९, १६ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। ३ असितः काश्यपो देवलो वा। ४ सुकक्षः। ५ विभ्राट् सौर्यः। ६, ८ वसिष्ठः। ७ भर्गः प्रागाथः १०, १७ विश्वामित्रः। ११ मेधातिथिः काण्वः। १२ शतं वैखानसाः। १३ यजत आत्रेयः॥ १४ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः। १५ उशनाः। १८ हर्यत प्रागाथः। १० बृहद्दिव आथर्वणः। २० गृत्समदः॥ देवता—१, ३, १५ पवमानः सोमः। २, ४, ६, ७, १४, १९, २० इन्द्रः। ५ सूर्यः। ८ सरस्वान् सरस्वती। १० सविता। ११ ब्रह्मणस्पतिः। १२, १६, १७ अग्निः। १३ मित्रावरुणौ। १८ अग्निर्हवींषि वा॥ छन्दः—१, ३,४, ८, १०–१४, १७, १८। २ बृहती चरमस्य, अनुष्टुप शेषः। ५ जगती। ६, ७ प्रागाथम्। १५, १९ त्रिष्टुप्। १६ वर्धमाना पूर्वस्य, गायत्री उत्तरयोः। १० अष्टिः पूर्वस्य, अतिशक्वरी उत्तरयोः॥ स्वरः—१, ३, ४, ८, ९, १०-१४, १६-१८ षड्जः। २ मध्यमः, चरमस्य गान्धारः। ५ निषादः। ६, ७ मध्यमः। १५, १९ धैवतः। २० मध्यमः पूर्वस्य, पञ्चम उत्तरयोः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पुनरपि तमेव विषयमाह।
पदार्थः
(वाजी) बलवान् अग्निः परमेश्वरः (वाजेषु) देवासुरसंग्रामेषु (धीयते) अन्तरात्मनि धार्यते, अपि च (अध्वरेषु) हिंसारहितेषु व्यवहारेषु (प्रणीयते) अग्रे क्रियते। असौ (विप्रः) विशेषेण परिपूरकः (यज्ञस्य साधनः) जीवनयज्ञस्य सफलयिता च वर्तते ॥२॥२
भावार्थः
यः परमेश्वरः सर्वेषां सिद्धिप्रदाता विद्यते स सर्वैर्जनैर्मनोयोगेन समाराधनीयः ॥२॥
इंग्लिश (2)
Meaning
A strong, learned person is entrusted with gigantic tasks. He is specially deputed for the performance of non-violent deeds. A learned person is the accomplisher of all deeds requiring charity, sacrifice, austerity, study and unity.
Meaning
Agni, tempestuous power and vibrant accomplisher of yajnic creation, is adopted, lighted and accelerated in top gear in scientific and technological programmes of friendly and cooperative nature. (Rg. 3-27-8)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (वाजी) અમૃત અન્નભોગના સ્વામી પરમાત્મા (वाजेषु) અમૃત અન્નભોગોને માટે (धीयते) ધ્યાન કરવામાં આવે છે. (अध्वरेषु प्रणीयते) તેથી અધ્યાત્મયજ્ઞ પ્રસંગોમાં લક્ષિત કરવામાં આવે છે (विप्रः यज्ञस्य साधनः) કારણ કે તે અધ્યાત્મયજ્ઞનું વિશેષ પૂરક સાધન છે. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
जो परमेश्वर सर्वांना सिद्धी देणारा आहे त्याची सर्व लोकांनी मनोयोगपूर्वक आराधना केली पाहिजे. ॥२॥
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