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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 148
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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य꣢꣫दिन्द्रो꣣ अ꣡न꣢य꣣द्रि꣡तो꣢ म꣣ही꣢र꣣पो꣡ वृष꣢꣯न्तमः । त꣡त्र꣢ पू꣣षा꣡भु꣢व꣣त्स꣡चा꣢ ॥१४८॥
स्वर सहित पद पाठय꣢त् । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । अ꣡न꣢꣯यत् । रि꣡तः꣢꣯ । म꣣हीः꣢ । अ꣣पः꣢ । वृ꣡ष꣢꣯न्तमः । त꣡त्र꣢꣯ । पू꣣षा꣢ । अ꣣भुवत् । स꣡चा꣢꣯ ॥१४८॥
स्वर रहित मन्त्र
यदिन्द्रो अनयद्रितो महीरपो वृषन्तमः । तत्र पूषाभुवत्सचा ॥१४८॥
स्वर रहित पद पाठ
यत् । इन्द्रः । अनयत् । रितः । महीः । अपः । वृषन्तमः । तत्र । पूषा । अभुवत् । सचा ॥१४८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 148
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 4;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 4;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि परमेश्वर ही सूर्य द्वारा भूमियों और जलों को गति देता है।
पदार्थ
(वृषन्तमः) अतिशय बलवान् अथवा वृष्टिकर्ता (इन्द्रः) परमेश्वर (यत्) जब (रितः) गति करनेवाली (महीः) पृथिवी, चन्द्र आदि ग्रह-उपग्रह रूप भूमियों को (अनयत्) अपनी-अपनी कक्षाओं में सूर्य के चारों ओर घुमाता है, और (अपः) जलों को (अनयत्) भाप बनाकर ऊपर और वर्षा द्वारा नीचे पहुँचाता है, तब (तत्र) उस कर्म में (पूषा) पुष्टिप्रद सूर्य (सचा) सहायक (अभुवत्) होता है ॥४॥
भावार्थ
महामहिमाशाली जगदीश्वर ही सूर्य, विद्युत्, बादल, आदि को साधन बनाकर सब प्राकृतिक नियमों का संचालन कर रहा है ॥४॥
पदार्थ
(यत्) जब (वृषन्तमः-इन्द्रः) अत्यन्त सुखवृष्टिकर्ता परमात्मा (महीः-रितः-अपः-अनयत्) महती गतिशील व्यापन शक्तियों को प्रेरित करता है (तत्र) तब (सचा) साथ (पूषा अ भुवत्) सूर्य अपना रश्मिप्रसाद करने में और पृथिवी वनस्पति उगाने में समर्थ होती है।
भावार्थ
परमात्मा की व्यापन शक्तियों को पाकर ही सूर्य किरणों का सञ्चार करता है और पृथिवी भी ओषधि वनस्पतियों प्राणियों को उत्पन्न करती है॥४॥
विशेष
ऋषिः—भरद्वाजः (परमात्म ज्ञान को अपने अन्दर भरण धारण करने वाला)॥<br>
विषय
रित् का जीवन
पदार्थ
रित्–(‘रियति गच्छति इति रित्') = इस व्युत्पत्ति से स्पष्ट है कि रित् का अर्थ है 'गतिशील'। इन (रितः)=गतिशील व्यक्तियों को (यत्) = यदा, जब (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली (वृषन्तमः) = शक्तिशाली व सब सुखों का वर्षक प्रभु (महीः अप:) = पूजा व प्रशंसा के योग्य कर्मों को (अनयत्) = प्राप्त कराता है, (तत्र) = तब वहाँ (पूषा) = पुष्टि (सचा) = साथ (भवत्) = होती है।
इस मन्त्रार्थ से स्पष्ट है कि प्रभु जो कुछ प्राप्त कराते हैं, वह रितों-गतिशीलों को ही प्राप्त कराते हैं। अकर्मण्य व आलसी को कुछ प्राप्त नहीं होता। यह ठीक है कि God helps those who help themselves, प्रभु उन्हीं की सहायता करता है, जो अपनी सहायता स्वयं
प्रभु कैसे हैं? वे प्रभु ‘इन्द्रः’=परमैश्वर्यशाली हैं। उनके ऐश्वर्य की सीमा नहीं है। केवल ऐश्वर्यशाली नहीं, वे ‘वृषन्तम:'=सब कामनाओं व सुखों के वर्षक हैं। वे हमारी किस कामना को पूरा नहीं कर सकते! परन्तु करते तभी हैं जब हम रित्- गतिशील बनते हैं। कामना पूरण का प्रकार - हमारी कामनाओं को क्या वे सीधा पूरा कर देते हैं? नहीं। वे हमें ‘महीः अपः’=महनीय प्रशंसा के योग्य उत्तम कर्मों को प्राप्त कराते हैं। हमारी प्रवृत्ति शुभ कर्मों की ओर हो जाती है और उन शुभ कर्मों के परिणामरूप ही हम उस परमैश्वर्य के अंश को पाया करते हैं। क्रियाशीलता से हमें पुष्टि भी प्राप्त होती है। इस मन्त्र का ऋषि 'भरद्वाज: बार्हस्पत्यः' है। भरद्वाज का अर्थ शक्तिशाली है। परमैश्वर्य
का अभिप्राय ज्ञान से था, अतः भरद्वाज ज्ञान को प्राप्त कर बार्हस्पत्य होता है।
भावार्थ
हम ‘रित्' बनें और प्रभु के प्रिय हों।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = ( यद् ) = जब ( वृषन्तमः ) = सर्वत्र, लोम २ मे रस का वर्षण उत्तम रूप से करने वाला ( इन्दः ) = आत्मा ( रितः ) = गति करने वाले ( महीः अपः ) = बड़ी नाड़ियों को ( अनयद् ) = समस्त शरीर में पहुंचाता है ( तत्र ) = वहां ( सचा ) = साथ ही वह ( पूषा ) = पोषण करने वाले सामर्थ्य से भी युक्त ( भुवत् ) = हो जाता है।
आत्मा ही देह में सर्वत्र रस पहुंचाता है और पुष्टि भी करता है। विशाल ब्रह्माण्ड में ईश्वर की शक्ति वर्षा भी करती है और अन्न भी उत्पन्न करती है।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - भरद्वाज:।
देवता - इन्द्रः।
छन्दः - गायत्री।
स्वरः - षड्जः।
संस्कृत (1)
विषयः
परमेश्वर एव सूर्यद्वारा भूमीरपश्च गमयतीत्याह।
पदार्थः
(वृषन्तमः) बलवत्तमः वर्षकतमो वा (इन्द्रः) परमेश्वरः (यत्) यदा (रितः२) गन्त्रीः। रिणन्तीति रितः। रिणातिः गतिकर्मा। निघं० २।१४। क्विपि ह्रस्वस्य पिति कृति तुक् अ० ६।१।७१ इति तुक्। (महीः) पृथिवीचन्द्रादिग्रहोपग्रहरूपाः भूमीः, (अनयत्) स्वस्वरक्षासु सूर्यं परितो भ्रमयति, (अपः) जलानि च (अनयत्) वाष्पीकरणेन ऊर्ध्वं वर्षणेन च अधः प्रापयति, तदा (तत्र) तस्मिन् कर्मणि (पूषा) पुष्टिप्रदः सूर्यः (सचा) सहायकः। सचा सह। निरु० ५।५। (अभुवत्) भवति। भू धातोर्लङि छन्दसि गुणाभावे उवङादेशः ॥४॥३
भावार्थः
महामहिमशालिना जगदीश्वरेणैव सूर्यविद्युत्पर्जन्यपवनादीन् साधनतां नीत्वा सर्वे प्राकृतिकनियमाः सञ्चाल्यन्ते ॥४॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ६।५७।४ देवते इन्द्रापूषणौ। भुवत् इत्यत्र भवत् इति पाठः। २. रितः गन्त्रीः महीः भूमीः, अपः जलानि—इति ऋग्भाष्ये द०। इन्द्रो रितः गतः प्राप्तः सन्नित्यर्थः। महीरपः महान्ति वृष्टिलक्षणान्युदकानि—इति वि०। रितः गन्त्र्यः। रियतेर्गतिकर्मणः क्विपि रूपं रिदिति। महीः महतीः अपः—इति भ०। रितः गच्छतीः महीः महतीः अपः वृष्ट्युदकानि—इति सा०। ३. दयानन्दर्षिणा ऋग्भाष्ये मन्त्रस्यास्य व्याख्याने इन्द्र शब्देन विद्युत्, पूषन् शब्देन च भूमिर्गृहीता।
इंग्लिश (2)
Meaning
When soul, the showerer of extreme delight leads us on to progressive deeds, it becomes our nourisher through affinity.
Translator Comment
Griffith describes Indra and Pushan as two deities. This explanation is unacceptable, as the Vedas are free from historical reference.
Meaning
When most generous Indra moves and brings about heavy showers of rain, then Pusha too is the corporate power of natural energy. (Thus making and breaking, consumption and creation are simultaneous processes of natural metabolism in life. ) (Rg. 6-57-4)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (यत्) જ્યારે (वृषन्तमः इन्द्रः) અત્યંત સુખવૃષ્ટિકર્તા પરમાત્મા (महीः रितः अपः अनयत्) મહાન ગતિશીલ વ્યાપન શક્તિઓને પ્રેરિત કરે છે, (तत्र ત્યારે (सचा) સાથે સૂર્ય પોતાનો રશ્મિપ્રસાદ કરવામાં અને પૃથિવી વનસ્પતિ ઉગાડવામાં સમર્થ બને છે. (૪)
भावार्थ
ભાવાર્થ : પરમાત્માની વ્યાપન શક્તિઓને પ્રાપ્ત કરીને જ સૂર્ય કિરણોનો સંચાર કરે છે અને પૃથિવી પણ ઔષધિ, વનસ્પતિઓ અને પ્રાણીઓને ઉત્પન્ન કરે છે. (૪)
उर्दू (1)
Mazmoon
کب جُڑ جاتے ہیں بھگوان اور بھگت؟
Lafzi Maana
لفظی معنیٰ: (وِرشن تمہ) پُورن آنند کی وَرشا کرنے والا (اِندر) پرمیشور (یت) جب (اپہ) آنند رسوں کو (مہی) بہت مقدار میں اپنے عابد کے لئے (ان یت) پہنچاتا ہے۔ جس سے اُپاسک میں (رِتہ) وشیش پریرنا بھگوان کی اور ہو جاتی ہے، (تتر) تب اُس آنند امرت رس سے (پُوشا) آنندت ہوا وہ پرمیشور کا (سچا) سچا سکھا بھگت بن کے اُس کے ساتھ جُڑ جاتا ہے۔
Tashree
امرت وَرشا کرتے جب بھگوان بھگت کے ہردیہ میں، آنند مگن ہو بھگت بھی تب رہتا شریمان کے ہردیہ میں۔
मराठी (2)
भावार्थ
महा महिमावान जगदीश्वरच सूर्य, विद्युत, मेघ इत्यादींना साधन बनवून संपूर्ण प्राकृतिक नियमांचे संचालन करत आहे. ॥४॥
विषय
पुढील मंत्रात याचे विषयाचे वर्णऩ आहे की परमेश्वरच सूर्याद्वारे भूमीला आणि जलाला गती देतो -
शब्दार्थ
अतिशय बलवान आणि वृष्टीकर्ता (इन्द्रः) परमेश्वर (यत्) जेव्हा (रितः) गतिशील (महीः) पृथ्वी, चंद्र आणि ग्रह उपग्रहरूप भूमींना (अवयत्) आपापल्या भ्रमण कक्षेत सूर्याभोवती फिरवितो आणि (अषः) जलाला (अनयत्) वाष्य रूपाने वर नेतो आणि वृष्टी रूपाने भूमीवर आणतो, तेव्हा (तत्र) त्या अपकर्णण- विकर्षण कार्यात (पूषा) पुष्टिप्रय सूर्य (सचा) त्याचा साहाय्यक (अभुवत्) होतो ।। ४।।
भावार्थ
महामहिमाशाली परमेश्वरच सूर्य, विद्युत, मेघ, पवन आदींना साधने या रूपाने वापरून सर्व नैसर्गिक नियमांचे संचालन करीत आहे. ।। ४।। ‘गो’ शब्दाने भूमी, धेनू, वाणी, विद्युत आदींच्या गुणांचे वर्णऩ केले आहे. - इन्द्राद्वारे निर्मित या भूमी आदींच्या वर्णनाने त्यांच्या जो रचयिता इन्द्र, त्याचीच स्तुती होत आहे, हा विषय पुढील मंत्रात सांगितला आहे. यामुळे याची देवता इन्द्र आहे, असे जाणावे -
तमिल (1)
Word Meaning
அதிகமாய் வர்ஷிக்கும் (இந்திரன்) மேக ஸ்தானமான மகத்தான மழை சலத்தை கொண்டுவருங்கால் அவனருகில் (பூஷணன் (உதவி) யாயிருக்கிறான்).
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