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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1482
    ऋषिः - हर्यतः प्रागाथः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    32

    उ꣢प꣣ स्र꣡क्वे꣢षु꣣ ब꣡प्स꣢तः कृण्व꣣ते꣢ ध꣣रु꣡णं꣢ दि꣣वि꣢ । इ꣡न्द्रे꣢ अ꣣ग्ना꣢꣫ नमः꣣꣬ स्वः꣢꣯ ॥१४८२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ꣡प꣢꣯ । स्र꣡क्वे꣢꣯षु । ब꣡प्स꣢꣯तः । कृ꣣ण्व꣢ते । ध꣣रु꣡ण꣢म् । दि꣣वि꣢ । इ꣡न्द्रे꣢꣯ । अ꣣ग्ना꣢ । न꣡मः꣢꣯ । स्व३रि꣡ति꣢ ॥१४८२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उप स्रक्वेषु बप्सतः कृण्वते धरुणं दिवि । इन्द्रे अग्ना नमः स्वः ॥१४८२॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उप । स्रक्वेषु । बप्सतः । कृण्वते । धरुणम् । दिवि । इन्द्रे । अग्ना । नमः । स्व३रिति ॥१४८२॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1482
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 16; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 6; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आगे फिर वही विषय है।

    पदार्थ

    उपासक लोग (स्रक्वेषु) आत्मसमर्पण होने पर (उप बप्सतः) समीप आकर पापों को खा लेनेवाले परमात्मा का (दिवि) अपने आत्मा में (धरुणम्) धारण (कृण्वते) करते हैं और वे (इन्द्रे) परमैश्वर्यशाली, विघ्नविदारक (अग्ना) अग्रनायक परमात्मा में (नमः) नमस्कार समर्पित करके (स्वः) प्रकाश को पा लेते हैं ॥३॥

    भावार्थ

    ध्यान द्वारा परमात्मा को अपने आत्मा में धारण करके, श्रद्धा से नमस्कार करके उपासकों को परम ज्योति प्राप्त करनी योग्य है ॥३॥

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    पदार्थ

    (वप्सतः स्रक्वेषु-उपकृण्वते) जो उपासक भोग कराने वाले—भोग के साधन प्राणों—इन्द्रियों को१३ भोगों में ही न लगाकर—भोग वस्तुओं के अन्दर परमात्मा के सर्जन गुणों१४ को उपयुक्त करते हैं—लगाते हैं (धरुणं दिवि) धारणा साधन१ मन को अमृतधाम—मोक्ष में उपयुक्त करते हैं—लगाते हैं, तथा (इन्द्रे ‘इन्द्रम्’ अग्ना) स्वात्मा को२ ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मा में३ उपयुक्त करते हैं लगाते हैं (नमः स्वः) उनके लोक में अन्न४ भोग लाभ और मोक्षधाम में अमृत सुख होता है॥३॥

    विशेष

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    विषय

    इन्द्र में 'नमन', अग्नि में 'स्वः ,

    पदार्थ

    ‘स्रक्व' शब्द सृज् धातु से बनकर सर्जन निर्माण का कथन कर रहा है । (स्रक्वेषु) = निर्माणात्मक कार्यों के करने पर (उप बप्सतः) = [उपासन्नेधिके हीने शक्तावारम्भदानयोः] दानपूर्वक भोजन करते हुए अथवा हीन-कर्म – न्यून उपाहार ही करते हुए लोग (दिवि) = द्योतनात्मक प्रभु में अपना (धरुणम्) = निवास (कृण्वते) = बनाते हैं ।

    गत मन्त्र में क्रियाशीलता को प्रभु-प्राप्ति का साधन बताया था। इस मन्त्र में ‘स्रक्व' शब्द से उस क्रियाशीलता को निर्माणात्मक बनाने का संकेत है। निर्माण का कार्य करते हुए ही हमें वस्तुत: खाने का अधिकार है । ' स्रक्वेषु' शब्द की सप्तमी 'सर्जन के होने पर ही' इस भाव को व्यक्त कर रही है। फिर ‘उप’ शब्द दानपूर्वक उपभोग की भावना का व्यञ्जक है। साथ ही ‘उप’ शब्द अधिक भोजन से बचने का भी संकेत कर रहा है - उपाहार शब्द में भोजन का लाघव स्पष्ट दिख रहा है । ये ही व्यक्ति प्रकाशमय लोक में निवास के अधिकारी बनते हैं ।

    ये 'इन्द्र'= '-बल के कार्यों के करनेवाले होते हैं और (इन्द्रे) = इन शक्तिशाली व्यक्तियों में (नमः) = शत्रुओं को नत कर देने की शक्ति होती है। उस महेन्द्र प्रभु के प्रति नमन की भावना होती है – इसी से तो वह शत्रुओं को नत कर पाता है । 'भरद्वाज' अपने बल से शत्रुओं का पराभव करेगा ही। ये ‘अग्नि' = प्रकाश के पुञ्ज बनते हैं और (अग्नौ) = अग्निवत् ज्ञानाग्नि से दीप्त इन व्यक्तियों में (स्व:) = प्रकाश का प्रसरण [Radiation] होता है । इनसे ज्ञान का प्रकाश चारों ओर फैलता है। 'बार्हस्पत्य' होने से इनसे ज्ञान का प्रसार होना ही चाहिए ।

    भावार्थ

    हम उत्पादन करनेवाले बनते हुए ही खाएँ – तभी हम प्रभु को प्राप्त करेंगे।

    टिप्पणी

    नोट–स्रक्व का अर्थ ओष्ठप्रान्त भी है – तब चबाकर खाने की भावना व्यक्त हो रही होगी । ‘स्रक्वेषु उप बप्सतः' की भावना उपांशु जप की भी ली गयी है । वह भी असङ्गत नहीं है ।

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    विषय

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    भावार्थ

    (स्रक्वेषु) सर्जन स्थानों में या इन्द्रिय प्रदेशों में या काली आदि ज्वालाओं में (वप्सतः) भक्षण करते हुए ग्रहण या प्रलय करते हुए उस अग्निरूप महान् आत्मा को विद्वान् पुरुष (दिवि) ज्ञान-प्रकाश में सूर्य के समान (धरुणं) उसको धारक बल या आश्रय रूप से (उप कृण्वते) स्वीकार करते हैं। उस (अग्निं) अग्निस्वरूप, पाप दहन करने हारे, ज्ञानवान् परमेश्वर को (इन्द्रे) इन्द्ररूप आत्मा में भी (नमः) बल और (स्वः) सुख और आनन्दरूप से (उप कृण्वते) उपासना करते हैं। सामाजिक पक्ष में—(स्रक्वेषु) आमोद प्रमोद स्थलों में विहार करते हुए उस नवयुवक रूप अग्नि को विद्वान् उच्च प्रतिष्ठा देते हैं और तभी वह पालन पोषण के भार को अपने में धारण करके बल और पारिवारिक सुख को प्राप्त करता है । इस प्रकार इन मन्त्रों में सामाजिक एवं आध्यात्मिक परिवार का उत्तम वर्णन किया गया है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ कविर्भार्गवः। २, ९, १६ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। ३ असितः काश्यपो देवलो वा। ४ सुकक्षः। ५ विभ्राट् सौर्यः। ६, ८ वसिष्ठः। ७ भर्गः प्रागाथः १०, १७ विश्वामित्रः। ११ मेधातिथिः काण्वः। १२ शतं वैखानसाः। १३ यजत आत्रेयः॥ १४ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः। १५ उशनाः। १८ हर्यत प्रागाथः। १० बृहद्दिव आथर्वणः। २० गृत्समदः॥ देवता—१, ३, १५ पवमानः सोमः। २, ४, ६, ७, १४, १९, २० इन्द्रः। ५ सूर्यः। ८ सरस्वान् सरस्वती। १० सविता। ११ ब्रह्मणस्पतिः। १२, १६, १७ अग्निः। १३ मित्रावरुणौ। १८ अग्निर्हवींषि वा॥ छन्दः—१, ३,४, ८, १०–१४, १७, १८। २ बृहती चरमस्य, अनुष्टुप शेषः। ५ जगती। ६, ७ प्रागाथम्। १५, १९ त्रिष्टुप्। १६ वर्धमाना पूर्वस्य, गायत्री उत्तरयोः। १० अष्टिः पूर्वस्य, अतिशक्वरी उत्तरयोः॥ स्वरः—१, ३, ४, ८, ९, १०-१४, १६-१८ षड्जः। २ मध्यमः, चरमस्य गान्धारः। ५ निषादः। ६, ७ मध्यमः। १५, १९ धैवतः। २० मध्यमः पूर्वस्य, पञ्चम उत्तरयोः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनरपि स एव विषयो वर्ण्यते।

    पदार्थः

    उपासकाः जनाः (स्रक्वेषु) आत्मसमर्पणेषु। [सृज विसर्गे इति धातोरौणादिकः क्वन् प्रत्ययः धातोः सम्प्रसारणं च।] (उप बप्सतः) उपेत्य दुरितानि भक्षयतः अग्नेः परमात्मनः। [बप्सति अत्तिकर्मा। निघं० २।८।] (दिवि) स्वात्मनि (धरुणम्) धारणम् (कृण्वते) कुर्वन्ति। ते च (इन्द्रे) परमैश्वर्यशालिनि विघ्नविदारके (अग्ना) अग्नौ अग्रनायके परमात्मनि (नमः) नमस्कारं समर्प्य (स्वः) प्रकाशं, लभन्ते इति शेषः ॥३॥

    भावार्थः

    ध्यानेन परमात्मानं स्वात्मनि धारयित्वा श्रद्धया नमस्कृत्य चोपासकाः परं ज्योतिः प्राप्तुमर्हन्ति ॥३॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The learned accept, through the light of knowledge as their resort, God, Who brings dissolution in ail places of creation. They worship Him, the Annihilator of sins, in their soul with vigour and gusto.

    Translator Comment

    Doubled: When they get a wife or a son.^Trebled : When they get a son or a grandson.

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    Meaning

    Agni, receiving, kindling and consuming the oblations in the flames, turns the havi into light in heaven as offering in the cup of faith to Indra. (So does the yogi turn his thoughts through contemplation into light and joy in the higher personality to offer it as homage to Indra. ) (Rg. 8-72-15)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (वप्सतः स्रक्वेषु उपकृण्वते) જે ઉપાસક ભોગ કરાવનાર-ભોગના સાધનો પ્રાણો-ઇન્દ્રિયોને ભોગમાં જ ન લગાવીને-ભોગ વસ્તુઓની અંદર પરમાત્માના સર્જન ગુણોને ઉપયુક્ત કરે છે-લગાવે છે, (धरुणं दिवि) ધારણા સાધન મનને અમૃતધામ મોક્ષમાં ઉપયુક્ત કરે છે-લગાવે છે; તથા (इन्द्रे "इन्द्रम्" अग्ना) પોતાના આત્માને જ્ઞાનપ્રકાશસ્વરૂપ પરમાત્મામાં ઉપયુક્ત કરે છે-લગાવે છે (नमः स्वः) તેઓને લોકમાં અન્નભોગ લાભ અને મોક્ષધામમાં અમૃતસુખ પ્રાપ્ત થાય છે. (૩)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ध्यानाद्वारे परमात्म्याला आपल्या आत्म्यात धारण करून, श्रद्धेने नमस्कार करून, उपासकांनी परम ज्योती प्राप्त करावी. ॥३॥

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