Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1535
ऋषिः - गोतमो राहूगणः
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
29
क꣡स्ते꣢ जा꣣मि꣡र्जना꣢꣯ना꣣म꣢ग्ने꣣ को꣢ दा꣣꣬श्व꣢꣯ध्वरः । को꣢ ह꣣ क꣡स्मि꣢न्नसि श्रि꣣तः꣢ ॥१५३५॥
स्वर सहित पद पाठकः꣢ । ते꣣ । जामिः꣢ । ज꣡ना꣢꣯नाम् । अ꣡ग्ने꣢꣯ । कः । दाश्व꣣ध्वरः । दा꣣शु꣢ । अ꣣ध्वरः । कः꣢ । ह꣣ । क꣡स्मि꣢꣯न् । अ꣣सि । श्रितः꣢ ॥१५३५॥
स्वर रहित मन्त्र
कस्ते जामिर्जनानामग्ने को दाश्वध्वरः । को ह कस्मिन्नसि श्रितः ॥१५३५॥
स्वर रहित पद पाठ
कः । ते । जामिः । जनानाम् । अग्ने । कः । दाश्वध्वरः । दाशु । अध्वरः । कः । ह । कस्मिन् । असि । श्रितः ॥१५३५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1535
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 15; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 15; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
प्रथम मन्त्र में परमात्मा के विषय में प्रश्न उठाये गये हैं।
पदार्थ
हे (अग्ने) जगन्नायक परमेश्वर ! (जनानाम्) उत्पन्न मनुष्यों के मध्य (कः ते जामिः) कौन तेरा सहायक बन्धु है ? अर्थात् कोई नहीं है। (कः) मनुष्यों के मध्य कौन ऐसा है (दाश्वध्वरः) जिसका यज्ञ तेरे लिए कुछ फल देनेवाला हो ? अर्थात् कोई नहीं है, क्योंकि सब लोग अपने ही लाभ के लिए यज्ञ करते हैं, तेरे लाभ के लिए नहीं। (कः ह) तू कौन है ? (कस्मिन् श्रितः असि) किसके आश्रित है ? अन्तिम दोनों प्रश्नों का उत्तर है—तू (कः ह) निश्चय ही कमनीय, सबसे आगे बढ़ा हुआ और सुखस्वरूप है। (कस्मिन् असि श्रितः) भला किसके आश्रित हो सकता है, अर्थात् किसी के नहीं, क्योंकि तू आत्मनिर्भर है ॥१॥ यहाँ काकु वक्रोक्ति अलङ्कार है, तृतीय प्रश्न में श्लेष है। अथवा यह मन्त्र जिसमें उत्तर छिपा हुआ है, ऐसी पहेली है ॥१॥
भावार्थ
सबसे महान् परमेश्वर जगत् के सञ्चालन के लिए किसी सहायक बन्धु की या किसी आश्रयदाता की अपेक्षा नहीं करता। न ही किसी के किसी भी कार्य से अपना लाभ चाहता है ॥१॥
पदार्थ
(अग्ने) हे ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मन्! (जनानाम्) मनुष्यों के मध्य में (ते जामिः कः) तेरा बन्धु—स्नेही कौन है—कोई विरला उपासक जीवन्मुक्त (दाश्वध्वरः-कः) दिया है अध्यात्मयज्ञ—आत्मसमर्पी कौन है—कोई विरला मुमुक्षु है (कः-ह) तू कौन है—ऐसा जानने वाला भी विरला ही योगी है (कस्मिन् श्रितः-असि) तू किसमें श्रित है—विराजमान है—किसी विरले ध्यानी में विराजमान है॥१॥
विशेष
ऋषिः—गोतमः (परमात्मा में अत्यन्त गतिशील उपासक)॥ देवता—अग्निः (ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मा)॥<br>
विषय
वास्तविक बन्धु
पदार्थ
साहित्य में एक शैली है कि आचार्य ही विद्यार्थी से पूछता है कि 'कौन तेरा आचार्य है ?' और उसे समझा भी देता है कि 'अग्नि तेरा आचार्य है।' इसी प्रकार वेद में कई बातें जीव को प्रभु प्रश्नोत्तर के प्रकार से समझाते हैं। यहाँ इसी शैली से कुछ बातें समझाई गयी हैं—
प्रश्न – १. (कः ते जनानां जामिः) = मनुष्यों में तेरा बन्धु कौन है ?
उत्तर – (अग्ने त्वं जनानां जामि:) = हे अग्रगति के साधक प्रभो! आप ही मनुष्यों के बन्धु हो । संसार में अन्य सब मित्रताएँ सामयिक हैं तथा कुछ प्रयोजन को लिये हुए होती हैं। केवल एक प्रभु की मित्रता ही स्वार्थ से शून्य तथा सार्वकालिक है । प्रभु हमारा साथ कभी भी छोड़ते नहीं । पत्नी भी, माता भी साथ छोड़ देती हैं, पक्के-से-पक्के मित्र विरोधी बन जाते हैं, परन्तु प्रभु की मित्रता में कभी अन्तर नहीं आता ।
प्रश्न – २. (अग्ने) = हे उन्नतिशील जीव ! (कः दाशु + अध्वरः) = कौन तुझे ये सब वस्तुएँ देनेवाला है [दाशृ दाने] तथा कौन हिंसारहित तेरा भला करनेवाला है ?
उत्तर—(अग्ने प्रियः मित्रः असि) = हे अग्रगति के साधक प्रभो ! आप ही [प्री तर्पणे] सब आवश्यक वस्तुएँ प्राप्त कराके मुझे तृप्त करनेवाले हैं। संसार में सबका दान सीमित है, परन्तु परमात्मा का दान असीम है, प्रभु ही हमें सब आवश्यक वस्तुएँ प्राप्त कराते हैं।
प्रश्न – ३. (कः ह) = वह प्रभु कौन हैं ? तेरे साथ उसका क्या सम्बन्ध है ?
उत्तर—(सखा) = वे तेरे मित्र हैं। वस्तुत: (‘अरक्षितं तिष्ठति दैवरक्षितम्') = जिसका कोई भी रक्षक नहीं होता प्रभु ही उसके रक्षक होते हैं। प्रभु ही अन्तिम व श्रेष्ठ मित्र हैं— वे ही सदा अन्त तक साथ देनेवाले हैं।
प्रश्न –४. (कस्मिन् असि श्रितः) = किसमें तू आश्रय पाये हुए है ?
उत्तर – (सखिभ्यः ईड्यः) = प्रभु ही मित्रों से स्तुति के योग्य हैं। हमें सदा उस प्रभु का ही आश्रय करना, प्रभु की ही उपासना करनी ।
प्रस्तुत मन्त्रों का ऋषि इस तत्त्व को समझ लेता है कि प्रभु ही मेरे बन्धु हैं । २. वे ही मुझे सब आवश्यक वस्तुएँ प्राप्त करानेवाले और सब हिंसाओं से बचानेवाले हैं। ३. वे ही मेरे सखा हैं और ४. उस प्रभु का ही मुझे आश्रय है । इन सब बातों को समझकर वह सदा इन्द्रियों को प्रशस्त
कर्मों में लगानेवाला बना रहता है, परिणामतः ‘गोतम' बनता है और संसार के सब मिथ्या आश्रयों को छोड़ने के कारण 'राहूगण' होता है, 'त्यागियों में गिनने योग्य' ।
भावार्थ
हम इस तत्त्व का मनन करें कि 'हमारे सच्चे सखा प्रभु ही हैं ।
विषय
missing
भावार्थ
हे अग्ने ! (जनानां) मनुष्यों में से (तं) तेरा (कः) कौन (जाभिः) बन्धु है ? अर्थात् कोई नहीं। तेरे लिये (कः) कौन (दाश्वध्वरः) दानशील, अहिंसा रहित यज्ञ करता है ? (कः ह) हे हे अग्ने ! तुम कौन हो, (कस्मिन्) और तुम किस में (श्रितः) आश्रय किये (असि) हो ? अर्थात् तुम्हारा सब कुछ अज्ञेय है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१, ११ गोतमो राहूगणः। २, ९ विश्वामित्रः। ३ विरूप आंगिरसः। ५, ६ भर्गः प्रागाथः। ५ त्रितः। ३ उशनाः काव्यः। ८ सुदीतिपुरुमीळ्हौ तयोर्वान्यतरः । १० सोभरिः काण्वः। १२ गोपवन आत्रेयः १३ भरद्वाजो बार्हस्पत्यो वीतहव्यो वा। १४ प्रयोगो भार्गव अग्निर्वा पावको बार्हस्पत्यः, अथर्वाग्नी गृहपति यविष्ठौ ससुत्तौ तयोर्वान्यतरः॥ अग्निर्देवता। छन्दः-१-काकुभम्। ११ उष्णिक्। १२ अनुष्टुप् प्रथमस्य गायत्री चरमयोः। १३ जगती॥ स्वरः—१-३, ६, ९, १५ षड्जः। ४, ७, ८, १० मध्यमः। ५ धैवतः ११ ऋषभः। १२ गान्धरः प्रथमस्य, षडजश्चरमयोः। १३ निषादः श्च॥
संस्कृत (1)
विषयः
तत्रादौ परमात्मविषये प्रश्नानुत्थापयति।
पदार्थः
हे (अग्ने) जगन्नायक परमेश ! (जनानाम्) जातानां मानवानां मध्ये (कः ते जामिः) कस्तव बन्धुः सहायकः अस्ति, इति काकुः, न कोऽपीत्यर्थः। (कः) जनानां मध्ये कः (दाश्वध्वरः) दाशुः तुभ्यं फलप्रदः अध्वरः यज्ञः यस्य तादृशः अस्ति ? अत्रापि काकुः, न कोऽपीत्यर्थः। यतः सर्वे स्वलाभायैव यज्ञं कुर्वन्ति, न त्वल्लाभाय। (कः ह) त्वं कोऽसि खलु ? (कस्मिन् श्रितः असि) कस्मिन् आश्रितो विद्यसे ? अन्त्ययोः प्रश्नयोरुत्तरमप्यत्रैवान्तर्निहितम् त्वम् (कः) कमनीयः, सर्वातिक्रान्तः, सुखस्वरूपश्च असि, इति। [कः कमनो वा क्रमणो वा सुखो वा। निरु० १०।२३।] किञ्च, कस्मिन्नसि श्रितः इति काकुः। न कस्मिन्नपीत्यर्थः, आत्मनिर्भरत्वात् ॥१॥२ अत्र काकुवक्रोक्तिरलङ्कारः, तृतीये प्रश्ने च श्लेषः। यद्वा मन्त्रोऽयं गूढोत्तररूपा प्रहेलिका ॥१॥
भावार्थः
सर्वेभ्यो महान् परमेश्वरो जगत्सञ्चालनाय कमपि सहायकं बन्धुं कमप्याश्रयदातारं वा नापेक्षते। नापि च कस्यापि केनापि कार्येण स्वकीयं लाभमीहते ॥१॥
इंग्लिश (2)
Meaning
0 God! who is Thy kin amongst men? Who honours Thee with nonviolent sacrifice? Who art Thou? Where dost Thou rest?
Translator Comment
None is the Kin of God. The true, exact nature of God is not known to men, except what is revealed by Him in the Vedas.
Meaning
Agni, who among people is your brother that knows well? Who is the giver? Who is the yajaka? Who are you? Wherein do you abide. (Rg. 1-75-3)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (अग्ने) હે જ્ઞાન પ્રકાશ સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! (जनानाम्) મનુષ્યોની મધ્યમાં (ते जामिः कः) તારો બન્ધુ-સ્નેહી કોણ છે ? કોઈ વિરલ ઉપાસક જીવન મુક્ત. (दाश्वध्वरः कः) આવ્યું છે. અધ્યાત્મ યજ્ઞ આત્મ સમર્પી કોણ છે ? કોઈ વિરલ મુમુક્ષુ છે. (कः ह) તું કોણ છે ? એવું જાણનાર પણ કોઈ દુર્લભ યોગી જ છે અને (कस्मिन् श्रितः असि) તું કોનામાં આશ્રિત છે-વિરાજમાન છે ?-કોઈ વિરલા-દુર્લભ ધ્યાનીમાં વિરાજમાન છે.
मराठी (1)
भावार्थ
सर्वात महान परमेश्वर जगाच्या संचालनासाठी एखाद्या सहायक बंधूची किंवा एखाद्या आश्रयदात्याची अपेक्षा करत नाही किंवा एखाद्या कार्यासाठी लाभ घेऊ इच्छित नाही. ॥१॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal