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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1537
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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    य꣡जा꣢ नो मि꣣त्रा꣡वरु꣢꣯णा꣣ य꣡जा꣢ दे꣣वा꣢ꣳ ऋ꣣तं꣢ बृ꣣ह꣢त् । अ꣢ग्ने꣣ य꣢क्षि꣣ स्वं꣡ दम꣢꣯म् ॥१५३७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य꣢ज꣢꣯ । नः꣣ । मित्रा꣢ । मि꣣ । त्रा꣢ । व꣡रु꣢꣯णा । य꣡ज꣢꣯ । दे꣣वा꣢न् । ऋ꣣त꣢म् । बृ꣣ह꣢त् । अ꣡ग्ने꣢꣯ । य꣡क्षि꣢꣯ । स्वम् । द꣡म꣢꣯म् ॥१५३७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यजा नो मित्रावरुणा यजा देवाꣳ ऋतं बृहत् । अग्ने यक्षि स्वं दमम् ॥१५३७॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यज । नः । मित्रा । मि । त्रा । वरुणा । यज । देवान् । ऋतम् । बृहत् । अग्ने । यक्षि । स्वम् । दमम् ॥१५३७॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1537
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 15; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में परमात्मा से प्रार्थना करते हैं।

    पदार्थ

    हे (अग्ने) जगन्नियन्ता परमेश्वर ! आप (नः) हमारे लिए (मित्रावरुणा) मैत्री का गुण और दोषनिवारण का गुण (यज) प्रदान करो। (देवान्) अन्य दिव्य गुणों को (बृहत् ऋतम्) और महान् सत्य को (यज) प्रदान करो। साथ ही (स्वं दमम्) अपने दमन करने के गुण को भी (यक्षि) प्रदान करो ॥३॥

    भावार्थ

    जो परमेश्वर सब गुणों की निधि है, वह हमें भी दिव्य गुण प्रदान करे ॥३॥

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    पदार्थ

    (अग्ने) हे ज्ञानप्रकाशक परमात्मन्! तू (नः-मित्रावरुणौ यज) हमारे प्राण अपान को३ सङ्गत कर (देवान् यज) इन्द्रियों को सङ्गत कर (बृहत्-ऋतम्) तू महान् सत्य को सङ्गत कर (स्वं दमं यक्षि) अपने घर—हृदय को सङ्गत कर॥३॥

    विशेष

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    विषय

    मोक्षधाम की प्राप्ति

    पदार्थ

    गोतम ‘राहूगण’ प्रभु से प्रार्थना करता है—१. हे (अग्ने) = मुझे आगे ले-चलनेवाले प्रभो! आप (नः) = हमारे साथ (मित्रावरुणौ) = प्राणापान को यज-सङ्गत कीजिए। मेरे प्राणापान ठीक कार्य करनेवाले होकर शरीर में ही सुरक्षित रहें ।

    २. (देवान् यज) = हमारे साथ अन्य सब देवों को भी सङ्गत कीजिए। 'सूर्य-चन्द्रादि सभी देवता हमारे शरीर में निवास कर रहे हैं । ('सर्वा ह्यस्मिन् देवता गावो गोष्ठ इवासते') = इसमें सब देव उसी प्रकार रह रहे हैं जैसे गौशाला में गौएँ । इन सब देवों का यहाँ उत्तम निवास बना रहे ।

    ३. (बृहत् ऋतं यज) = हे प्रभो! आप वृद्धि की साधनभूत नियमितता [Strict regularity] को हमारे जीवनों के साथ जोड़िए । हमारा जीवन सूर्य और चन्द्रमा के समान बड़ी नियमित गति से चले। पूर्ण स्वास्थ्य का रहस्य इसी में तो है।

    ४. इस प्रकार ‘प्राणापान, अन्य देवों तथा नियमित जीवन [बृहत् ऋतम्] से युक्त करके हमें हे (अग्ने) = आगे ले-चल रहे प्रभो! (स्वं दमं यक्षि) = अपने घर से सङ्गत कीजिए- हम आपके मोक्षधाम को प्राप्त करनेवाले बनें । वस्तुतः यह ब्रह्मलोक ही जीव का वास्तविक घर है। आज प्राणापान की साधना करके, अन्य देवांशों को भी अपने साथ जोड़कर तथा बड़ा नियमित जीवन बिताकर वह अपने घर को फिर प्राप्त कर पाया है ।

    भावार्थ

    हम फिर से अपने मोक्षधाम को प्राप्त करनेवाले बनें ।

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    विषय

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    भावार्थ

    हे (अग्ने) प्रभो ! तू (नः) हमारे (मित्रावरुणौ) जैसे मित्र जन और पापनिवारक गुरु उपदेष्टा तथा प्राण और अपान दोनों को (यज) बल और ज्ञान प्रदान कर। और हमारे (देवान्) इन्द्रियों और विद्वानों को (बृहत्) बड़ा भारी (ऋतं) सत्य ज्ञान (यज) प्रदान कर। और हे (अग्ने) ज्ञानस्वरूप (स्वं) अपने (दमं) दमन करने योग्य समस्त संसाररूप गृह को अथवा (दमं=मदं) अपना परम आनन्द और (यक्षि) देता है।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१, ११ गोतमो राहूगणः। २, ९ विश्वामित्रः। ३ विरूप आंगिरसः। ५, ६ भर्गः प्रागाथः। ५ त्रितः। ३ उशनाः काव्यः। ८ सुदीतिपुरुमीळ्हौ तयोर्वान्यतरः । १० सोभरिः काण्वः। १२ गोपवन आत्रेयः १३ भरद्वाजो बार्हस्पत्यो वीतहव्यो वा। १४ प्रयोगो भार्गव अग्निर्वा पावको बार्हस्पत्यः, अथर्वाग्नी गृहपति यविष्ठौ ससुत्तौ तयोर्वान्यतरः॥ अग्निर्देवता। छन्दः-१-काकुभम्। ११ उष्णिक्। १२ अनुष्टुप् प्रथमस्य गायत्री चरमयोः। १३ जगती॥ स्वरः—१-३, ६, ९, १५ षड्जः। ४, ७, ८, १० मध्यमः। ५ धैवतः ११ ऋषभः। १२ गान्धरः प्रथमस्य, षडजश्चरमयोः। १३ निषादः श्च॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमात्मानं प्रार्थयते।

    पदार्थः

    हे (अग्ने) जगन्नियन्तः परमेश ! त्वम् (नः) अस्मभ्यम् (मित्रावरुणा) मित्रावरुणौ, मित्रं मैत्रीगुणं वरुणं दोषनिवारकं गुणं च (यज) प्रदेहि। (देवान्) अन्यान् दिव्यान् गुणान् (बृहत् ऋतम्) महत् सत्यञ्च (यज) प्रदेहि। अपि च (स्वं दमम्) स्वकीयं दमनगुणमपि (यक्षि) प्रदेहि ॥३॥२

    भावार्थः

    यः परमेश्वरः सर्वेषां गुणानामाकरोऽस्ति सोऽस्मभ्यमपि दिव्यान् गुणान् प्रयच्छेत् ॥३॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O God, grant strength and knowledge to =our teacher and preacher, grant immense true knowledge to the sages. Thou greatest us Thy supreme bliss!

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    Meaning

    Agni, do yajna for Mitra and Varuna, pranic energy of prana and apana. Do yajna for the divine energies of nature. Do yajna for Rtam, promotion of Eternal Knowledge of divine Law. Do yajna for the sake of your own home and for self-control and self-culture. (Rg. 1-75-5)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (अग्ने) હે જ્ઞાન પ્રકાશક પરમાત્મન્ ! તું (नः मित्रावरुणौ यज) અમારા પ્રાણ, અપાનને સંગત કર (देवान् यज) ઇન્દ્રિયોને સંગત કર. (बृहत् ऋतम्) તું મહાન સત્યને સંગત કર. (स्वं दमं यक्षि) તારા ઘરને-હૃદયને સંગત કર. (૩)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो परमेश्वर सर्व गुणांचा निधी आहे, त्याने आम्हाला ही दिव्य गुण प्रदान करावे. ॥३॥

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