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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1547
ऋषिः - त्रित आप्त्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम -
38
कृ꣣ष्णां꣡ यदेनी꣢꣯म꣣भि꣡ वर्प꣢꣯सा꣣भू꣢ज्ज꣣न꣢य꣣न्यो꣡षां꣢ बृह꣣तः꣢ पि꣣तु꣢र्जाम् । ऊ꣣र्ध्वं꣢ भा꣣नु꣡ꣳ सूर्य꣢꣯स्य स्तभा꣣य꣢न्दि꣣वो꣡ वसु꣢꣯भिरर꣣ति꣡र्वि भा꣢꣯ति ॥१५४७
स्वर सहित पद पाठकृ꣣ष्णा꣢म् । यत् । ए꣡नी꣢꣯म् । अ꣣भि꣢ । व꣡र्प꣢꣯सा । भूत् । ज꣣न꣡य꣢न् । यो꣡षा꣢꣯म् । बृ꣣हतः꣢ । पि꣣तुः꣢ । जाम् । ऊ꣣र्ध्व꣢म् । भा꣣नु꣢म् । सू꣡र्य꣢꣯स्य । स्त꣣भाय꣡न् । दि꣣वः꣢ । व꣡सु꣢꣯भिः । अ꣣रतिः꣡ । वि । भा꣣ति ॥१५४७॥
स्वर रहित मन्त्र
कृष्णां यदेनीमभि वर्पसाभूज्जनयन्योषां बृहतः पितुर्जाम् । ऊर्ध्वं भानुꣳ सूर्यस्य स्तभायन्दिवो वसुभिररतिर्वि भाति ॥१५४७
स्वर रहित पद पाठ
कृष्णाम् । यत् । एनीम् । अभि । वर्पसा । भूत् । जनयन् । योषाम् । बृहतः । पितुः । जाम् । ऊर्ध्वम् । भानुम् । सूर्यस्य । स्तभायन् । दिवः । वसुभिः । अरतिः । वि । भाति ॥१५४७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1547
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 15; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 15; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
आगे फिर परमात्मा के कर्तृत्व का वर्णन है।
पदार्थ
(यत्) जब (बृहतः पितुः) महान् पालनकर्ता सूर्य की (जाम्) पुत्री (योषाम्) उषा को (जनयन्) उत्पन्न करना चाहता हुआ अग्नि परमेश्वर (एनीम्) व्याप्त (कृष्णाम्) काली रात्रि को (वर्पसा) सूर्य के रूप से (अभिभूत्) तिरस्कृत करता है, तब (सूर्यस्य) सूर्य के (उर्ध्वम्) ऊपर स्थित (भानुम्) प्रकाश-मण्डल को (स्तभायन्) थामे हुए (अरतिः) सबका स्वामी वह परमेश्वर (दिवः) द्युलोक के (वसुभिः) ग्रह, नक्षत्र आदि लोकों से (विभाति) विशेष रूप से शोभित होता है ॥१॥
भावार्थ
भूमि पर और आकाश में व्याप्त काली रात्रि को छिन्न-भिन्न करके चमकीली उषा को और उसके अनन्तर तीव्र प्रकाशवाले सूर्य को उत्पन्न करता हुआ जगदीश्वर महिमा से अत्यधिक शोभा पाता है ॥२॥
पदार्थ
(कृष्णाम्-एनीं यत्-वर्पसा-अभिभूत्) जब परमात्मा उपासक के अन्दर की कृष्णरंग वाली पापाज्ञान स्थिति को अपने शुभ्र प्रकाशरूप४ से अभिभूत कर लेता है—दबा देता है (बृहतः पितुः-जां योषाम्-जनयन्) महान् पालक सूर्य की अपत्य उषा के समान अपनी वाक्ज्ञानज्योति५ को प्रादुर्भूत करता हुआ (सूर्यस्य भानुम्-ऊर्ध्वं स्तभायत्) ज्ञानसूर्य के ज्ञानमय तेज को उपासक के ऊपर मस्तिष्क में स्तम्भित किया धारा—रखा पुनः (दिवः-अरतिः) मोक्षधाम का व्यापक स्वामी परमात्मा (वसुभिः-‘वसुषु’ विभाति) अपने में वसने वाले जीवन्मुक्तों उपासकों में विशेष भासित होता है॥२॥
विशेष
<br>
विषय
अ- रति [ non attached ]
पदार्थ
(प्रकृति-विजय – यत्) = जब मनुष्य (एनीम्) = इस रंग-बिरंगी - ‘लोहित, शुक्ल, कृष्णा' (कृष्णाम्) = तमोमयी होने से कृष्ण अथवा अपनी (वर्पसा) = चमक से आकृष्ट करनेवाली इस प्रकृति को (अभि अभूत्) = जीत लेता है, उस समय (अरतिः) = यह प्रकृति में न फँसनेवाला 'त्रित' (विभाति) = विशेषरूप से चमकता है ।
प्रकृति एनी है—रंग-बिरंगी है। अपने सत्त्व, रज व तमोगुणों के कारण 'लोहित, शुक्ल, कृष्णा’ है। अपने इस ‘वर्पसा'=चमकीले रूप से यह हमें अपनी ओर आकृष्ट कर रही है, अतएव यह ‘कृष्णा’ कहलाती है । इसके इसी चमकीलेरूप से हमारी आँखों से सत्य का रूप छिपा रहता है । जिस दिन हम प्रकृति प्रेम से ऊपर उठकर 'अ-रति' बनते हैं उसी दिन सत्य जीवनवाले बनकर हम चमक उठते हैं । अब प्रश्न यह है कि हम 'अ-रति' कैसे बन पाते हैं ? वेद उत्तर देता है कि
(वेदवाणी का विकास – बृहतः पितुः)उस बृहत् पिता-परमपिता परमात्मा से (जाम्)=उत्पन्न हुई-हुई इस (योषाम्)-वेदवाणी को [योषा वै वाक् – श० १.४.४.४] (जनयन्)= अपने में प्रकट करता है, अर्थात् जब एक व्यक्ति वेदवाणी को अपने अन्दर विकसित करता है तब वह प्रकृति के आकर्षण को जीत कर ‘अ-रति' बन पाता है । वेदवाणी 'योषा' है- यह मनुष्य को पुण्य से जोड़ती है [युमिश्रणे] तथा पाप से पृथक् [यु-अमिश्रणे] करती है ।
(मस्तिष्क में सूर्य की दीप्ति) – यह 'अरति' वेदवाणी के अध्ययन से निरन्तर अपनी दीप्ति को बढ़ाता चलता है और एक दिन इसके जीवन में वह आता है जब (सूर्यस्य भानुम्) = सूर्य के समान देदीप्यमान वेदवाणी के प्रकाश को (ऊर्ध्वं स्तभायन्) = ऊपर मस्तिष्करूप द्युलोक में धारण करता हुआ यह अ- रति (दिवः वसुभिः) = दिव्य गुणों की सम्पत्तियों से, अर्थात् दिव्य गुणों से युक्त हुआहुआ (विभाति) = विशेष ही शोभावाला होता है ।
भावार्थ
वेदवाणी के अध्ययन से प्रकृति पर विजय पाकर हम ज्ञान की दीप्ति को धारण करें तथा दिव्य गुणों से दीप्त हो उठें ।
विषय
missing
भावार्थ
पूर्वोक्त मन्त्र में कहा वह अग्निस्वरूप परमेश्वर (अरतिः) सर्वथा एक (यद्) जब (कृष्णां) कृष्णवर्ण या सब को कर्षण करने हारी, प्रलय करने हारी (एनीं*) गमनशीला कालगति को (वर्पसा) अपने रूप से (अभिभूत्) वश कर लेता है, व्याप लेता है और (बृहतः) बड़े भारी (पितुः) पालन करने हारे, पिता परमात्मा की (जां) प्रजननशील (योषां) कुटुम्ब बसानेहारी स्त्री के समान समस्त पञ्चभूतों का परिपाक करके नाना प्रकार से उनको मिलाने हारी, सर्गकारिणी शक्ति को (जनयन्) उत्पन्न करता हुआ, अथवा (योषां*) हिंसाकारक प्रलय कारिणी शक्ति को भी (पितुः जां जनयन्) पालक की उत्पादिका शक्ति में बदलता हुआ, (दिवः) इस द्यौलोक ब्रह्माण्ड के (वसुभिः) वास देने हारे लोकों के सहित (सूर्यस्य) सब के प्ररेक सूर्य के (भानुं) दीप्तिमय पिंड को (ऊर्ध्वम्) ऊपर आकाश में (स्तभायन्) स्थापित करता हुआ (वि भाति) आप सब से अधिक प्रकाशमान होता है।
टिप्पणी
असिक्नी अशुक्ला असिता (नि० ९। २६)। रात्रिनाम च (निघं०) *एनीइति नदीनाम्। इण गतौ (अदादिः) इत्यत औणादिको निः (उ० ४ ४८)। नदीवचनोऽन्तोदात्तोऽन्यत्राद्युदात्त इति माधवः। अत्र आद्युदात्त एवेति नात्र नदीग्रहणम्॥ *योषा-यूष हिंसायाम् जूष च (स्वादिः)। यौतेर्वा मिश्रणामिश्रणार्थस्य। अपि वा सामान्या योषा स्त्री, जुगुप्सार्थस्य यावयतेः (चुरा०)।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१, ११ गोतमो राहूगणः। २, ९ विश्वामित्रः। ३ विरूप आंगिरसः। ५, ६ भर्गः प्रागाथः। ५ त्रितः। ३ उशनाः काव्यः। ८ सुदीतिपुरुमीळ्हौ तयोर्वान्यतरः । १० सोभरिः काण्वः। १२ गोपवन आत्रेयः १३ भरद्वाजो बार्हस्पत्यो वीतहव्यो वा। १४ प्रयोगो भार्गव अग्निर्वा पावको बार्हस्पत्यः, अथर्वाग्नी गृहपति यविष्ठौ ससुत्तौ तयोर्वान्यतरः॥ अग्निर्देवता। छन्दः-१-काकुभम्। ११ उष्णिक्। १२ अनुष्टुप् प्रथमस्य गायत्री चरमयोः। १३ जगती॥ स्वरः—१-३, ६, ९, १५ षड्जः। ४, ७, ८, १० मध्यमः। ५ धैवतः ११ ऋषभः। १२ गान्धरः प्रथमस्य, षडजश्चरमयोः। १३ निषादः श्च॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पुनरपि परमात्मनः कर्तृत्वमाह।
पदार्थः
(यत्) यदा (बृहतः पितुः) महतः पालकस्य सूर्यस्य (जाम्) दुहितरम् (योषाम्) उषसम् (जनयन्) जनिष्यमाणः अग्निः परमेश्वरः (एनीम्) व्याप्ताम् (कृष्णाम्) कृष्णवर्णां रात्रिम् (वर्पसा) सूर्यस्य रूपेण। [वर्पस् इति रूपनाम। निघं० ३।७।] (अभिभूत्) अभिभवति, तदा (सूर्यस्य) आदित्यस्य (ऊर्ध्वम्) उपरिस्थितम् (भानुम्) प्रकाशमण्डलम् (स्तभायन्) स्तम्भयन् (अरतिः) सर्वेषां स्वामी स परमेश्वरः (दिवः) द्युलोकस्य (वसुभिः) ग्रहनक्षत्रादिभिः लोकैः (विभाति) विशेषेण शोभते ॥२॥
भावार्थः
भुवि गगने च व्याप्तां कृष्णां निशां विच्छिद्य रोचमानामुषसं तदनन्तरं च प्रखरप्रकाशं सूर्यं जनयन् जगदीश्वरो महिम्नातितरां शोभते ॥२॥
इंग्लिश (2)
Meaning
When the sole God, through His might, overpowers the fleeting wheel of time, that brings about the dissolution of the universe, and converts the power of dissolution into that of Creation by God the Great; He shines pre-eminently fixing the lustrous Sun in Heaven, along with other habitable worlds in the universe.
Translator Comment
The sole God: God is one, and one alone not more than one, say two, three, four etc. God creates the universe and then dissolves it. He again creates and dissolves It This process continues from eternity and will continue for ever. The world created lasts for 4320000000 years called the Brahma day. The material world is then dissolved. The matter in its chaotic state lasts for the same period, called the Brahma Night. This process is eternal, without a beginning or end.
Meaning
Then again, overcoming the dark passage of the night with its illumination of light and manifesting the youthful daughter of great and vast heaven bearing the light of the sun up above, the same Agni shines with heavenly light constantly for the day. (Rg. 10-3-2)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાથ : (कृष्णाम् एनीं यत् वर्पसा अभिभूत्) જ્યારે પરમાત્મા ઉપાસકની અંદરની કાળા રંગની પાપ અજ્ઞાન અવસ્થાને પોતાના શુભ્ર પ્રકાશરૂપથી અભિભૂત કરી લે છે-દબાવી દે છે, (बृहतः पितुः जां योषाम् जनयन्) ત્યારે મહાન પાલક સૂર્યની અપત્ય ઉષાની સમાન પોતાની વાણીની જ્ઞાન જ્યોતિને પ્રાદુર્ભૂત કરતાં (सूर्यस्य भानुम् ऊर्ध्वं स्तभायत्) જ્ઞાન સૂર્યનાં જ્ઞાનમય તેજને ઉપાસકની ઉપર મસ્તિષ્કમાં સ્તંભિત કરીને ધરીને-રાખીને પુનઃ (दिवः अरतिः) મોક્ષધામના વ્યાપક સ્વામી પરમાત્મા (वसुभिः "वसुषु" विभाति) પોતાના વસનારા જીવન મુક્તો ઉપાસકોમાં વિશેષ-ભાસિત-પ્રકાશિત થાય છે. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
भूमीवर व आकाशात व्याप्त काळी रात्र छिन्न भिन्न करून चमकदार उषेला व त्यानंतर तीव्र प्रकाशवान सूर्याला उत्पन्न करत जगदीश्वर त्याच्या महिमेनें अत्यधिक शोभतो. ॥२॥
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