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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1555
ऋषिः - सुदीतिपुरुमीढौ तयोर्वान्यतरः
देवता - अग्निः
छन्दः - बार्हतः प्रगाथः (विषमा बृहती, समा सतोबृहती)
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
45
अ꣣ग्नि꣢ꣳ सू꣣नु꣡ꣳ सह꣢꣯सो जा꣣त꣡वे꣢दसं दा꣣ना꣢य꣣ वा꣡र्या꣢णाम् । द्वि꣣ता꣢꣫ यो भूद꣣मृ꣢तो꣣ म꣢र्त्ये꣣ष्वा꣡ होता꣢꣯ म꣣न्द्र꣡त꣢मो वि꣣शि꣢ ॥१५५५॥
स्वर सहित पद पाठअ꣣ग्नि꣢म् । सू꣣नु꣢म् । स꣡ह꣢꣯सः । जा꣣त꣡वे꣢दसम् । जा꣣त꣢ । वे꣣दसम् । दाना꣡य꣢ । वा꣡र्या꣢꣯णाम् । द्वि꣣ता꣢ । यः । भूत् । अ꣣मृ꣡तः꣢ । अ꣣ । मृ꣡तः꣢꣯ । म꣡र्त्ये꣢꣯षु । आ । हो꣡ता꣢꣯ । म꣣न्द्र꣡त꣢मः । वि꣣शि꣢ ॥१५५५॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निꣳ सूनुꣳ सहसो जातवेदसं दानाय वार्याणाम् । द्विता यो भूदमृतो मर्त्येष्वा होता मन्द्रतमो विशि ॥१५५५॥
स्वर रहित पद पाठ
अग्निम् । सूनुम् । सहसः । जातवेदसम् । जात । वेदसम् । दानाय । वार्याणाम् । द्विता । यः । भूत् । अमृतः । अ । मृतः । मर्त्येषु । आ । होता । मन्द्रतमः । विशि ॥१५५५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1555
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 15; खण्ड » 2; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 15; खण्ड » 2; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अब परमेश्वर के गुणों का वर्णन है।
पदार्थ
(सहसः सूनुम्) बल के प्रेरक, (जातवेदसम्) सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, ज्ञान और धन के उत्पादक, (अग्निम्) अग्रनायक जगदीश्वर की (वार्याणाम्) वरणीय सद्गुणों और श्रेष्ठ ऐश्वर्यों के (दानाय) दान के लिए, मैं स्तुति करता हूँ। (मर्त्येषु) मरणधर्मा प्राणियों के मध्य में (अमृतः) अमर और (विशि) मनुष्य-प्रजा में (मन्द्रतमः) अतिशय आनन्दप्रदाता, (होता) जीवनयज्ञ का निष्पादक (यः) जो अग्नि जगदीश्वर (द्विता) दोनों स्थानों में अर्थात् इहलोक में और मोक्षलोक में (आ भूत्) सहायक होता है ॥२॥
भावार्थ
न केवल इस जीवन में, अपितु जन्म-जन्मान्तरों में और मोक्षलोक में भी जो जगदीश्वर हमारे साथ मित्रता का निर्वाह करता है, वह वन्दनीय क्यों न हो ॥२॥ इस खण्ड में परमात्मा का विषय वर्णित होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति जाननी चाहिए ॥ पन्द्रहवें अध्याय में द्वितीय खण्ड समाप्त ॥
पदार्थ
(सहसः सूनुम्) योगाभ्यासरूप बल से साक्षात् होने वाले (जातवेदसम्) उत्पन्नमात्र के ज्ञाता (अग्निम्) परमात्मा को (वार्याणां दानाय) वरने योग्य पदार्थों के देने के लिये ‘मन्त्र’ हमारी स्तुतियाँ प्राप्त हों (यः-अमृतः) जो अमृत परमात्मा (द्विता-अभूत्) दो रूपों में—(मर्त्येषु-आ) मरणधर्मी जनों में—साधारण जनों में और१ अमरजनों—मुमुक्षु उपासकों में (विशि) दोनों प्रकार की प्रजा में वर्तमान हैं (होता) जीवन निर्वाहक वस्तु देनेवाला है और अमरजनों मुमुक्षु उपासकों के लिये (मन्द्रतमः) अत्यन्त हर्ष—आनन्द का मोक्ष का दाता है॥२॥
विशेष
<br>
पदार्थ
पिछले मन्त्र से ‘गिरो यन्तु ' इन शब्दों की आवृत्ति यहाँ अपेक्षित है । हमारी वाणियाँ उस प्रभु की ओर जाएँ जो–
१. (अग्निम्) = हमें आगे और आगे ले चल रहे हैं।
२. (सहसः सूनुम्) = जो बल के पुत्र हैं – सर्वशक्तिमान् हैं तथा हममें भी बलों के प्रेरक [षूप्रेरणे] हैं। प्रभु के सम्पर्क में आने पर जीव शक्ति का अनुभव करता ही है।
३. (जातवेदसम्) = [जाते जाते विद्यते] जो सर्वव्यापक हैं। [जातं जातं वेत्ति] सर्वज्ञ हैं, [जातं वेदो यस्मात्] जिनसे सम्पूर्ण धन की उत्पत्ति होती है। प्रभु के सम्पर्क में आने पर हमारी मनोवृत्ति व्यापक बनेगी, हमारा ज्ञान बढ़ेगा और हमें आवश्यक धन प्राप्त होंगे ।
४. (दानाय वार्याणाम्) = जो प्रभु हमें सब वरणीय - चाहने योग्य आवश्यक श्रेष्ठ वस्तुओं के देनेवाले होते हैं ।
५. (यः) = जो प्रभु (द्विता) = दो का विस्तार करनेवाले [द्वौ तनोति] अभूत् होते हैं । प्रथम तो वे [क] (मर्त्येषु) = मरणधर्मा मनुष्यों में (अमृतः) = अमृत होते हैं, अर्थात् प्रभु का उपासक भी स्वाभाविक मृत्यु को छोड़कर अन्य मृत्युओं, अर्थात् रोगों का शिकार नहीं होता तथा [ख] यह प्रभु (विशि) = संसार में प्रविष्ट प्रजाओं में (मन्द्रतमः होता) = अत्यन्त प्रसन्नता युक्त दाता होते हैं, अर्थात् सामान्य मनुष्य जहाँ धन के प्रति प्रेम के कारण प्रसन्नता से दान नहीं दे पाता, वहाँ यह प्रभु का उपासक धन में अनासक्ति के कारण और धन के ठीक स्वरूप व उपयोग को समझने के कारण दान देने में आनन्द का अनुभव करने लगता है। खूब दान देने के कारण यह अपने 'पुरुमीढ' नाम को चरितार्थ करता है । पुरु= खूब, मीढ=-बरसनेवाला ।
एवं, प्रभु की उपासना से १. हम आगे बढ़ते हैं । २. शक्तिशाली बनते हैं । ३. ज्ञान को बढ़ा पाते हैं। ४. वरणीय वस्तुओं का लाभ करते हैं । ५. नीरोग रहते हैं तथा ६. दान देने में आनन्द का अनुभव करते हैं ।
भावार्थ
हम प्रभु-भक्त बनें, जिससे उन्नत हों और दान देने में प्रसन्नता का लाभ करें ।
विषय
missing
भावार्थ
(सहसः सूनुं) बल द्वारा ज्ञान करने और प्राप्त करने योग्य और समस्त बलों के प्रेरक (जातवेदसम्) व्यापक, सर्वज्ञ, सर्वैश्वर्यवान् उस (अग्निं) तेजोमय आत्मा को (वार्याणाम्) वरण करने योग्य पदार्थों के (दानाय) प्राप्त करने के लिये (अच्छ) प्राप्त होओ। (यः) जो (अमृतः) अमृतस्वरूप होकर भी (द्विता) दो स्वरूपों में विद्यमान है। एक तो (मर्त्येषु) समस्त मरणधर्मा प्राणियों में (आ होता) भोक्तारूप जीव अथवा सब प्राणियों को सुखों और जीवनों का दाता और (विशि) समस्त प्रजाओं में (मन्द्रतमः) परम आनन्तदाता ईश्वर है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१, ११ गोतमो राहूगणः। २, ९ विश्वामित्रः। ३ विरूप आंगिरसः। ५, ६ भर्गः प्रागाथः। ५ त्रितः। ३ उशनाः काव्यः। ८ सुदीतिपुरुमीळ्हौ तयोर्वान्यतरः । १० सोभरिः काण्वः। १२ गोपवन आत्रेयः १३ भरद्वाजो बार्हस्पत्यो वीतहव्यो वा। १४ प्रयोगो भार्गव अग्निर्वा पावको बार्हस्पत्यः, अथर्वाग्नी गृहपति यविष्ठौ ससुत्तौ तयोर्वान्यतरः॥ अग्निर्देवता। छन्दः-१-काकुभम्। ११ उष्णिक्। १२ अनुष्टुप् प्रथमस्य गायत्री चरमयोः। १३ जगती॥ स्वरः—१-३, ६, ९, १५ षड्जः। ४, ७, ८, १० मध्यमः। ५ धैवतः ११ ऋषभः। १२ गान्धरः प्रथमस्य, षडजश्चरमयोः। १३ निषादः श्च॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमेश्वरस्य गुणान् कीर्तयति।
पदार्थः
(सहसः सूनुम्) बलस्य प्रेरकम्, (जातवेदसम्) सर्वज्ञं, सर्वव्यापकं, ज्ञानस्य धनस्य च जनकम् (अग्निम्) अग्रनायकं जगदीश्वरम् (वार्याणाम्) वरणीयानां सद्गुणानां सदैश्वर्याणां च (दानाय) दातये, अहं स्तौमीति शेषः, (मर्त्येषु) मरणधर्मसु प्राणिषु मध्ये (अमृतः) अमरः, (विशि) मानुष्यां प्रजायां च (मन्द्रतमः) अतिशयेन आनन्दप्रदः, (होता) जीवनयज्ञनिष्पादकः (यः) अग्निर्जगदीश्वरः (द्विता) द्वयोरपि स्थानयोः इहलोके परस्मिन् मोक्षलोके च (आ भूत्) सहायको भवति ॥२॥
भावार्थः
न केवलमस्मिन् जीवने, प्रत्युत जन्मजन्मान्तरेषु मोक्षलोके चापि यो जगदीश्वरोऽस्माभिः सखित्वं निर्वहति स कुतो न वन्दनीयः स्यात् ॥२॥ अस्मिन् खण्डे परमात्मविषयवर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिर्बोध्या ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
For the grant of all desirable objects, realise the Omniscient God, Attainable through Yogic force. Immortal, He has got two aspects, as the Giver of life to the mortals, and supreme bliss to His subjects.
Meaning
Let our prayers reach Agni, all pervasive creator of energy, for the gift of cherished wealth and power. Agni is the immortal presence who appears among mortals in both physical and spiritual forms, universal yajaka, happiest and most blissful, arising in every home stead of the people. (Rg. 8-71-11)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (सहसः सूनुम्) યોગાભ્યાસ રૂપ બળથી સાક્ષાત્ થનાર (जातवेदसम्) ઉત્પન્ન માત્રના જ્ઞાતા (अग्निम्) પરમાત્માને (वार्याणां दानाय) વરણ કરવા યોગ્ય પદાર્થોને આપવા માટે ‘મંત્ર’ અમારી સ્તુતિઓ પ્રાપ્ત થાઓ. (यः अमृतः) જે અમૃત પરમાત્મા (द्विता अभूत्) બે રૂપોમાં (मर्त्येयषु आ) મરણધર્મી જનોમાં સાધારણ મનુષ્યોમાં અને અમરજનો-મુમુક્ષુ ઉપાસકોમાં (विशि) બન્ને પ્રકારની પ્રજાઓમાં રહેલ છે. (होता) જીવન નિર્વાહક પદાર્થો આપનાર છે અને અમરજનો-મુમુક્ષુ ઉપાસકોને માટે (मन्द्रतमः) અત્યંત હર્ષ-આનંદનો મોક્ષદાતા છે. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
केवळ याच जीवनात नव्हे तर जन्मजन्मांतरात व मोक्ष लोकातही जो जगदीश्वर आमच्याबरोबर मैत्रीचा निर्वाह करतो, तो वंदनीय का होणार नाहीत? ॥२॥ या खंडात परमात्म्याचा विषय वर्णित असल्यामुळे या खंडाची पूर्व खंडाबरोबर संगती जाणली पाहिजे
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