Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1567
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यो वीतहव्य आङ्गिरसो वा
देवता - अग्निः
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
काण्ड नाम -
18
स꣡मि꣢द्धम꣣ग्निं꣢ स꣣मि꣡धा꣢ गि꣣रा꣡ गृ꣢णे꣣ शु꣡चिं꣢ पाव꣣कं꣢ पु꣣रो꣡ अ꣢ध्व꣣रे꣢ ध्रु꣣व꣢म् । वि꣢प्र꣣ꣳ हो꣡ता꣢रं पुरु꣣वा꣡र꣢म꣣द्रु꣡हं꣢ क꣣वि꣢ꣳ सु꣣म्नै꣡री꣢महे जा꣣त꣡वे꣢दसम् ॥१५६७॥
स्वर सहित पद पाठस꣡मि꣢꣯द्धम् । सम् । इ꣣द्धम् । अग्नि꣢म् । स꣣मि꣡धा꣢ । स꣣म् । इ꣡धा꣢꣯ । गि꣣रा꣢ । गृ꣣णे । शु꣣चि꣢꣯म् । पा꣣वक꣢म् । पु꣣रः꣢ । अ꣣ध्वरे꣢ । ध्रु꣣व꣢म् । वि꣡प्र꣢꣯म् । वि । प्र꣣म् । हो꣡ता꣢꣯रम् । पु꣣रुवा꣡र꣢म् । पु꣣रु । वा꣡र꣢꣯म् । अ꣣द्रु꣡ह꣢म् । अ꣣ । द्रु꣡ह꣢꣯म् । क꣣वि꣢म् । सु꣣म्नैः꣢ । ई꣣महे । जात꣡वे꣢दसम् । जा꣣त꣢ । वे꣣दसम् ॥१५६७॥
स्वर रहित मन्त्र
समिद्धमग्निं समिधा गिरा गृणे शुचिं पावकं पुरो अध्वरे ध्रुवम् । विप्रꣳ होतारं पुरुवारमद्रुहं कविꣳ सुम्नैरीमहे जातवेदसम् ॥१५६७॥
स्वर रहित पद पाठ
समिद्धम् । सम् । इद्धम् । अग्निम् । समिधा । सम् । इधा । गिरा । गृणे । शुचिम् । पावकम् । पुरः । अध्वरे । ध्रुवम् । विप्रम् । वि । प्रम् । होतारम् । पुरुवारम् । पुरु । वारम् । अद्रुहम् । अ । द्रुहम् । कविम् । सुम्नैः । ईमहे । जातवेदसम् । जात । वेदसम् ॥१५६७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1567
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 15; खण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 15; खण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
प्रथम मन्त्र में जगदीश्वर के गुणों का वर्णन है।
पदार्थ
(समिद्धम्) तेजस्वी (अग्निम्) अग्रनायक जगदीश्वर की (समिधा गिरा) तेजोमयी वाणी से, मैं (गृणे) स्तुति करता हूँ। (शुचिम्) पवित्र, (पावकम्) पवित्रकर्ता (पुरः) सामने (अध्वरे) उपासना-यज्ञ में (ध्रुवम्) स्थिररूप में विद्यमान, (विप्रम्) विशेषरूप से पूर्णता प्रदान करनेवाले, (होतारम्) सुख आदि देनेवाले, (पुरुवारम्) बहुत वरणीय अथवा बहुत से दोषों का निवारण करनेवाले, (कविम्) क्रान्तद्रष्टा, मेधावी, (जातवेदसम्) सर्वज्ञ, सर्वव्यापक जगदीश्वर से हम (सुम्नैः) सुखकारी स्तोत्रों के द्वारा (ईमहे) याचना करते हैं ॥१॥ यहाँ विशेषणों के साभिप्राय होने से परिकर अलङ्कार है ॥१॥
भावार्थ
जो तेजस्वी, पवित्र, पवित्रकर्ता, स्थिर, छिद्रों को भरनेवाला, सद्गुणों का दाता, दुर्गुणों को दूर करनेवाला, भक्तवत्सल, क्रान्तद्रष्टा, सर्वज्ञ सर्वान्तर्यामी परमेश्वर है, उसका श्रद्धा से सबको भजन करना चाहिए और उससे सद्गुणों की याचना करनी चाहिए ॥१॥
पदार्थ
(गिरा समिधा) स्तुतिरूप समित्-‘समिधा’ के द्वारा (समिद्धम्) प्रकाशमान (अध्वरे) अध्यात्मयज्ञ में (शुचिम्) दोषशोधक (ध्रुवम्-अग्निम्) नित्य परमात्मा को (पुरः) प्रथम (गृणे) स्तुत करूँ—स्तुति में लाऊँ (विप्रं होतारम्) विशेष कामनापूरक दाता (पुरुवारम्) बहुत वरणीय (कविम्) क्रान्तदर्शी (जातवेदसम्) उत्पन्नमात्र के ज्ञाता परमात्मा को (सुम्नैः-ईमहे) साधु भावों से३ माँगते हैं—चाहते हैं॥१॥
विशेष
ऋषिः—बार्हस्पत्यो भरद्वाजो वीतहव्यो वा (ऊँचे आचार्य से सम्बद्ध अर्चनबल को धारण करने वाला या गृहयज्ञ से निवृत्त उपासक)॥ देवता—अग्निः (ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मा)॥ छन्दः—जगती॥<br>
विषय
गृणे ईमहे [ स्तवन तथा धारण ]
पदार्थ
प्रभु का स्तवन अज्ञान में नहीं हो पाता। 'ज्ञान, दर्शन, प्रवेश' यह क्रम है। हम प्रभु का ज्ञान प्राप्त करने के लिए उससे बनाये इस संसार के पदार्थों के तत्त्व को समझने का प्रयत्न करते हैंइन पदार्थों में प्रभु की रचना की विलक्षण महिमा का हमें आभास मिलता है। इस प्रकार ज्ञानवृद्धि के साथ हम प्रभु के ज्ञानीभक्त बनते चलते हैं । मन्त्र में कहते हैं कि (समिधा) = ज्ञान की दीप्ति के द्वारा (गिरा) = वेदवाणियों से (गृणे) = मैं उस प्रभु का स्तवन करता हूँ, जो
१. (समिद्धम्) = ज्ञान की ज्योति से [सम् इद्ध] सम्यक् दीप्त हैं, ज्ञानमय हैं – विशुद्धाचित् हैं।
२.(अग्निम्) = ज्ञानाग्नि में सब मलिनताओं को भस्म कर देनेवाले हैं, अतएव
३. (शुचिम्) = स्वयं तो पूर्ण पवित्र व उज्ज्वल हैं ही, वे
४. (पावकम्) = अपने भक्तों के जीवनों को भी पवित्र करनेवाले हैं ।
५.(अध्वरे पुरः) = वे प्रभु यज्ञों में सबसे आगे हैं [पुरोहितं यज्ञस्य ] । वे तो यज्ञरूप ही हैं।
६. ध्(रुवम्) = ध्रुव हैं–मर्यादाओं से डाँवाँडोल होनेवाले नहीं हैं। अपने बनाये हुए सृष्टिनियमों में कोई परिवर्तन करनेवाले नहीं है। केवल कृपा वा क्रोध के कारण कर्मफल में वे परिवर्तन नहीं करते ।
हम इस प्रभु को (सुम्नैः) = स्तोत्रों [Hymn] के द्वारा (ईमहे) = [ ई = to go ] प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं तथा इस प्रभु को हम [ ई = to desire] चाहते हैं तथा इस प्रभु की भावना से अपने को गर्भित [ई= f=to become pregnant with] कर लेते हैं । वे प्रभु
७. (विप्रम्) = [वि-प्रा] विशेषरूप से सारे ब्रह्माण्ड का पूरण किये हुए हैं। वे प्रभु अपने भक्तों के जीवन की न्यूनताओं को दूर करके उनका पूरण करते हैं ।
८. (होतारम्) = वे प्रभु जीवहित के लिए उसे सब पदार्थों को देनेवाले हैं। प्रभु ने तो जीवहित के लिए अपने को भी दे डाला है [य आत्मदा] ।
९. (पुरुवारम्) = पालन व पूरण के लिए वे प्रभु सब विघ्नों व अमङ्गलों का वारण – निवारण
१०. (अद्रुहम्) = वे प्रभु किसी की जिघांसा - मारने की इच्छा से रहित हैं। समय-समय पर प्रभु से प्राप्त करायी जानेवाली मृत्यु भी जीव को अमरता प्रापण के लिए ही होती है [यस्य मृत्युः अमृतम्]।
११. (कविम्) = वे प्रभु कवि-क्रान्तदर्शी हैं- प्रत्येक वस्तु के तत्त्व को जाननेवाले हैं और सृष्टि के प्रारम्भ में ही वेदज्ञान द्वारा सब विद्याओं का उपदेश देनेवाले हैं [कौति सर्वा विद्याः]। १२. जातवेदसम्=वे प्रभु प्रत्येक पदार्थ में विद्यमान हैं [जाते-जाते विद्यते], वे सब पदार्थों व हमारे कर्मों को जानते हैं [जातं जातं वेत्ति], सम्पूर्ण ऐश्वर्य उन्हीं से प्राप्त होता है [जातं वेदो यस्मात्] ।
इस प्रकार इन बारह गुणों से युक्त प्रभु का स्तवन करनेवाला स्तोता इन गुणों को अपने अन्दर धारण करने का प्रयत्न करता है और १. भरद्वाज- अपने में शक्ति को भरनेवाला बनता है २. वीतहव्य=सदा पवित्र पदार्थों का सेवन करनेवाला होता है तथा ३. बार्हस्पत्य:- ज्ञानियों का मूर्धन्य बनता है । यही इस मन्त्र का ऋषि है ।
भावार्थ
ज्ञान प्राप्ति के द्वारा हम प्रभु के सच्चे स्तोता बनें [गृणे] । स्तोत्रों के द्वारा हम अपने हृदयों को प्रभु की भावना से ओत-प्रोत कर लें [ईमहे] ।
टिप्पणी
नोट – यहाँ प्रथम विशेषण ‘समिद्धम्' है- ज्ञान से दीप्त, तथा अन्तिम विशेषण है 'जातवेदसम्', सर्वज्ञ । एवं, प्रारम्भ भी ज्ञान से है, समाप्ति भी ज्ञान पर । यह शैली ज्ञान के महत्त्व को सुव्यक्त कर रही है।
विषय
missing
भावार्थ
(समिद्धं) उत्तम रीति से सर्वत्र प्रकाशमय, (शुचिं) शुद्ध कान्तिमय, (पावकं) सब को पवित्र करने हारे (अध्वरे) हिंसारहित, अविनाशी, जीवनप्रद, संसार रूप यज्ञ में (पुरः) सब से पूर्व (ध्रुवम्) नित्य, अविनाशी उस (अग्निं) तेज स्वरूप परमेश्वर को (समिधा) ज्ञानमयी (गिरा) वाणी से (गृणे) वर्णन करता हूं। उसी (विप्रं) ज्ञानवान् मेधावी (होतारं) सर्वप्रद, (पुरुवारं) प्रजाओं के रक्षक, (अद्रुहं) सब से प्रेम करने हारे एवं द्वेषरहित, सब के प्रिय (कविं) अन्तर्यामी, क्रान्तन्दर्शी (जातवेदसं) सर्वज्ञ उस परमात्मा की (सुग्नैः) उत्तम मनन निदिध्यासनों द्वारा या सुखकारी स्तोत्रों द्वारा (इमहे) प्रार्थना उपासना करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१, ११ गोतमो राहूगणः। २, ९ विश्वामित्रः। ३ विरूप आंगिरसः। ५, ६ भर्गः प्रागाथः। ५ त्रितः। ३ उशनाः काव्यः। ८ सुदीतिपुरुमीळ्हौ तयोर्वान्यतरः । १० सोभरिः काण्वः। १२ गोपवन आत्रेयः १३ भरद्वाजो बार्हस्पत्यो वीतहव्यो वा। १४ प्रयोगो भार्गव अग्निर्वा पावको बार्हस्पत्यः, अथर्वाग्नी गृहपति यविष्ठौ ससुत्तौ तयोर्वान्यतरः॥ अग्निर्देवता। छन्दः-१-काकुभम्। ११ उष्णिक्। १२ अनुष्टुप् प्रथमस्य गायत्री चरमयोः। १३ जगती॥ स्वरः—१-३, ६, ९, १५ षड्जः। ४, ७, ८, १० मध्यमः। ५ धैवतः ११ ऋषभः। १२ गान्धरः प्रथमस्य, षडजश्चरमयोः। १३ निषादः श्च॥
संस्कृत (1)
विषयः
तत्रादौ जगदीश्वरस्य गुणान् कीर्तयति।
पदार्थः
(समिद्धम्) प्रदीप्तम्, तेजोमयम् (अग्निम्) अग्रनायकं जगदीश्वरम् (समिधा गिरा) प्रदीप्तया तेजोमय्या वाचा (गृणे) स्तौमि। (शुचिम्) पवित्रम्, (पावकम्) पवित्रकर्तारम्, (पुरः) समक्षम् (अध्वरे) उपासनायज्ञे (ध्रुवम्) स्थिरतया विद्यमानम्, (विप्रम्) विशेषेण पूरयितारम्, (होतारम्) सुखादीनां दातारम्, (पुरुवारम्) बहुवरणीयानां पुरूणां बहूनां दोषाणां निवारकं वा, (अद्रुहम्) अद्रोग्धारम्, (कविम्) क्रान्तदर्शनं मेधाविनम्, (जातवेदसम्) सर्वज्ञं सर्वव्यापिनं जगदीश्वरम्, वयम् (सुम्नैः) सुखकरैः स्तोत्रैः (ईमहे) याचामहे ॥१॥२ अत्र विशेषणानां साभिप्रायत्वात् परिकरालङ्कारः ॥१॥
भावार्थः
यस्तेजस्वी पवित्रः पावको ध्रुवश्छिद्राणां पूरयिता सद्गुणानां दाता दुर्गुणानामपहर्ता भक्तवत्सलः क्रान्तद्रष्टा सर्वज्ञः सर्वान्तर्यामी परमेश्वरोऽस्ति स सर्वैः श्रद्धया सम्भजनीयः सद्गुणान् याचनीयश्च ॥१॥
इंग्लिश (2)
Meaning
In intellectual eloquence I praise God, Refulgent, Pure, Purifier, Primordial in the universe, Eternal. May we implore with profound meditations, the Wise, Charitable, Protecting, Guileless, Omnipresent, arid Omniscient God.
Meaning
I glorify the lighted fire, pure and purifying power, firm and foremost in holy works of love and non-violent development. In our state of peace and comfort, we celebrate and pray to the vibrant light giver of gifts, universally admired, free from jealousy, poetic creator, all knowing and present in all that exists. (Rg. 6-15-7)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (गिरा समिधा) સ્તુતિ રૂપ સમિત્-‘સમિધા’ના દ્વારા (समिद्धम्) પ્રકાશમાન (अध्वरे) અધ્યાત્મયજ્ઞમાં (शुचिम्) દોષ શોધક (ध्रुवम् अग्निम्) નિત્ય પરમાત્માને (पुरः) પ્રથમ (गृणे) સ્તુતિ કરું-સ્તુતિમાં લાવું. (विप्रं होतारम्) વિશેષ કામના પૂરક દાતા (पुरुवारम्) બહુજ વરણીય (कविम्) ક્રાન્તદર્શી (जातवेदसम्) ઉત્પન્ન માત્રના જ્ઞાતા પરમાત્માને (सुम्नैः ईमहे) શ્રેષ્ઠ ભાવોથી માગીએ છીએ-ચાહીએ છીએ. (૧)
मराठी (1)
भावार्थ
जो तेजस्वी, पवित्र, पवित्रकर्ता, स्थिर, छिद्रांना भरून टाकणारा, सद्गुणांचा दाता, दुर्गुणांना दूर करणारा, भक्तवत्सल, क्रांतद्रष्टा, सर्वज्ञ, सर्वांतर्यामी आहे. त्या परमेश्वराचे श्रद्धेने सर्वांनी भजन केले पाहिजे व सद्गुणांसाठी त्याची उपासना केली पाहिजे. ॥१॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal