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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1613
    ऋषिः - पर्वतनारदौ देवता - पवमानः सोमः छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः काण्ड नाम -
    53

    स꣡ने꣢मि꣣ त्व꣢म꣣स्म꣡दा अदे꣢꣯वं꣣ कं꣡ चि꣢द꣣त्रि꣡ण꣢म् । सा꣣ह्वा꣡ꣳ इ꣢न्दो꣣ प꣢रि꣣ बा꣢धो꣣ अ꣡प꣢ द्व꣣यु꣢म् ॥१६१३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स꣡ने꣢꣯मि । त्वम् । अ꣣स्म꣢त् । आ । अ꣡दे꣢꣯वम् । अ । दे꣣वम् । क꣢म् । चि꣣त् । अत्रि꣡ण꣢म् । सा꣣ह्वा꣢न् । इ꣣न्दो । प꣡रि꣢꣯ । बा꣡धः꣢꣯ । अ꣡प꣢꣯ । द्व꣣यु꣢म् ॥१६१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सनेमि त्वमस्मदा अदेवं कं चिदत्रिणम् । साह्वाꣳ इन्दो परि बाधो अप द्वयुम् ॥१६१३॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सनेमि । त्वम् । अस्मत् । आ । अदेवम् । अ । देवम् । कम् । चित् । अत्रिणम् । साह्वान् । इन्दो । परि । बाधः । अप । द्वयुम् ॥१६१३॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1613
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 20; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 16; खण्ड » 4; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आगे फिर जीवात्मा और परमात्मा का विषय है।

    पदार्थ

    हे (इन्दो) तेजस्वी जीवात्मन् वा परमात्मन् ! (त्वम्) शक्तिशाली तू (सनेमि) पुरानी मित्रता को (अस्मत्) हमारे प्रति (आ) ला।(अदेवम्) न देनेवाले, सहायता न करनेवाले (कंचित्) किसी भी(अत्रिणम्) भक्षक पाप, दुर्व्यसन आदि को वा दुर्जन को (अप) दूर कर दे। (साह्वान्) शत्रुओं को पराजित करनेवाला तू (बाधः) बाधकों को (परि) चारों ओर विनष्ट कर, (द्वयुम्) सत्य-असत्य दोनों से युक्त अथवा पीछे कुछ और सामने कुछ या मन में कुछ और वचन में कुछ इस द्विविध आचरणवाले, छल-छद्म का व्यवहार करनेवाले मनुष्य को (अप) दूर कर दे ॥३॥

    भावार्थ

    जीवात्मा को प्रोत्साहन देकर और परमात्मा की उपासना करके सब लोग दुष्टों तथा छद्म का आचरण करनेवालों को दूर हटाकर, सज्जनों की सङ्गति करके स्वयं को और समाज को उन्नत करें ॥३॥

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    पदार्थ

    (इन्दो) हे आनन्दरसपूर्ण परमात्मन्! (त्वम्) तू (अस्मत्) हमारा४ (सनेमि) पुराना साथी—मित्र है५ (आ) और६ (अदेवम्-कंचित्-अत्रिणं साह्वान्) तुझे अपना देव न मानने वाले किसी भी नास्तिक विचार को तथा पाप को७ अभिभव करने वाला—हटाने वाला—तिरस्कृत करने वाला है (बाधः परि) बाधाओं—बाधक विघ्नों को ‘परिवर्जय’ परे हटा८ (द्वयुम्-अप) द्विधा—संशय या मन में कुछ आचरण में कुछ ऐसे दोष को ‘अप गमय’ पृथक् कर दे॥३॥

    विशेष

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    विषय

    यमों का पालन

    पदार्थ

    ‘सनेमि' शब्द के दो अर्थ हैं—'सनातन काल से' तथा 'शीघ्र' । जीव प्रभु से प्रार्थना करता है कि हे (इन्दो) = परमैश्वर्यवाले परम शक्तिशाली प्रभो ! (त्वम्) = आप (अस्मत्) = हमसे (सनेमि) = शीघ्र ही १. (अदेवम्) = देव-विरोधी भावना को, अर्थात् स्वार्थवश स्वयं सब-कुछ खा जाने की वृत्ति को (आसाह्वान्) = पूर्णरूप से पराभूत कर दीजिए । हमारा जीवन यज्ञमय हो– देव यज्ञप्रिय होते हैं । असुर

    बिना यज्ञ किये सब कुछ स्वयं खा जाते हैं। हम असुर न बनें । २. (कंचित्) = किसी अवर्णनीय शक्तिवाले (अत्रिणम्) = हमें खा जानेवाले [अद्+तृन्] इस काम को भी (आसाह्वान्) = पूर्ण पराभूत कीजिए। हमारा जीवन ब्रह्मचर्यवृत्तिवाला हो । ३. (बाध:) = औरों की हिंसा करना, इस वृत्ति को (परि) = हमसे दूर कीजिए । हम अहिंसा वृत्तिवाले हों । ४. (द्वयुम्) = अन्दर कुछ और बाहर कुछ– इस दोपने को, असत्य की वृत्ति को भी (अप) = हमसे दूर भगाइए।

    एवं, प्रभुकृपा से हम स्तेय, अब्रह्मचर्य, हिंसा व असत्य की वृत्तियों से दूर होकर अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अहिंसा व सत्य में प्रतिष्ठित होते हैं । यही तो पर्वत बनना है । ऐसा ही व्यक्ति 'नारद' हो सकता है ।

    भावार्थ

    प्रभुकृपा से हममें यमों की प्रतिष्ठा हो ।

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    विषय

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    भावार्थ

    हे (इन्दो) ऐश्वर्यशील राजन् विद्वन् परमात्मन् ! (त्वं) आप (अस्मत्) हमारे प्रति (सनेमि) अनादिकाल से चले आये मिश्रभाव कृपाभाव को (आ) प्रकट करो। आप (साह्वान्) सब विघ्नों को पराजय करने हारे (अदेवम्) देव, परमेश्वर से रहित (अत्रिणं) केवल भोग करने हारे विषयलोलुप, (कंचित्) किसी भी भोगमय देहबन्धन को (परिबाधः) विनाश करो और (द्वयुं) दो दो, द्वन्द्व, सुख दुःख, शीत उष्ण, जन्म मरण, इहलोक परलोक आदिके चाहने हारे इस अन्तःकरण को भी (अप) दूर करो।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१, ८, १८ मेध्यातिथिः काण्वः। २ विश्वामित्रः। ३, ४ भर्गः प्रागाथः। ५ सोभरिः काण्वः। ६, १५ शुनःशेप आजीगर्तिः। ७ सुकक्षः। ८ विश्वकर्मा भौवनः। १० अनानतः। पारुच्छेपिः। ११ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः १२ गोतमो राहूगणः। १३ ऋजिश्वा। १४ वामदेवः। १६, १७ हर्यतः प्रागाथः देवातिथिः काण्वः। १९ पुष्टिगुः काण्वः। २० पर्वतनारदौ। २१ अत्रिः॥ देवता—१, ३, ४, ७, ८, १५—१९ इन्द्रः। २ इन्द्राग्नी। ५ अग्निः। ६ वरुणः। ९ विश्वकर्मा। १०, २०, २१ पवमानः सोमः। ११ पूषा। १२ मरुतः। १३ विश्वेदेवाः १४ द्यावापृथिव्यौ॥ छन्दः—१, ३, ४, ८, १७-१९ प्रागाथम्। २, ६, ७, ११-१६ गायत्री। ५ बृहती। ९ त्रिष्टुप्। १० अत्यष्टिः। २० उष्णिक्। २१ जगती॥ स्वरः—१, ३, ४, ५, ८, १७-१९ मध्यमः। २, ६, ७, ११-१६ षड्जः। ९ धैवतः १० गान्धारः। २० ऋषभः। २१ निषादः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनरपि जीवात्मनः परमात्मनश्च विषयमाह।

    पदार्थः

    हे (इन्दो) तेजस्विन् जीवात्मन् परमात्मन् वा ! (त्वम्) शक्तिशाली त्वम् (सनेमि) पुराणं सख्यम्। [सनेमि इति पुराणनाम। निघं० ३।२७।] (अस्मत्) अस्मासु। [अत्र ‘सुपां सुलुक्०’ अ० ७।१।३९ इति विभक्तेर्लुक्।] (आ) आनय।(अदेवम्) अदातारम् असहायकम् (कं चित्) कमपि(अत्रिणम्) भक्षकं पापदुर्व्यसनादिकं दुर्जनं वा (अप) अपगमय। (साह्वान्) शत्रूणां पराजेता त्वम् (बाधः) बाधकान्(परि) परि जहि, (द्वयुम्) द्वयवन्तं सत्यानृतोभययुक्तं, परोक्षमन्यत्, प्रत्यक्षमन्यत्, मनस्यन्यद् वचस्यन्यद् इति द्विविधाचरणोपेतं छद्मव्यवहारिणं च जनम् (अप) अपगमय ॥३॥

    भावार्थः

    जीवात्मानं प्रोत्साह्य परमात्मानं च समुपास्य सर्वे जना दुष्टान् छद्माचारिणश्च दूरीकृत्य ससङ्गतिं विधाय स्वात्मानं समाजं चोन्नयन्तु ॥३॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O God, extend Thy ancient friendship unto us. Drive far away from us each godless and voracious foe-like passion. O God remove the lustful shackles of the body, and overcome the persons, whose deeds and thoughts are not one and the same!

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    Meaning

    O spirit of divine beauty, bliss and brilliance, one with us in all acts and movements, courageous, bold and forbearing, ward off from us all impieties and keep away the impious and ungenerous people wherever they be, whoever is a devouring destroyer, and a double dealer. (Rg. 9-105-6)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (इन्दो) હે આનંદરસપૂર્ણ પરમાત્મન્ ! (त्वम्) તું (अस्मत्) અમારો (सनेमि) પુરાણો સાથી-મિત્ર છે (आ) અને (अदेवम् कंचित् अत्रिणं साह्वान्) તને પોતાનો દેવ ન માનનારા કોઈ પણ નાસ્તિક વિચારનો તથા પાપનો અભિભવ કરનાર-દૂર કરનાર-તિરસ્કાર કરનાર છે. (बाधः परि) બાધાઓ-બાધક વિઘ્નોનો ‘પરિવર્જય’ દૂર કરીને (द्वयुम् अप) દ્વિધા-સંશય અથવા મનમાં જુદું અને આચરણમાં જુદું એવા દોષને ‘અપગમય’ પૃથક્ કરી દે-દૂર કરી દે. (૩
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जीवात्म्याला प्रोत्साहन देऊन व परमात्म्याची उपासना करून सर्व लोकांनी दुष्ट व छळ-कपटाचे आचरण करणाऱ्यांना दूर सारावे. सज्जनाची संगत करून स्वत:ला व समाजाला उन्नत करावे. ॥३॥

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