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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1618
    ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    55

    य꣢च्चि꣣द्धि꣡ शश्व꣢꣯ता꣣ त꣡ना꣢ दे꣣वं꣡दे꣢वं꣣ य꣡जा꣢महे । त्वे꣡ इद्धू꣢꣯यते ह꣣विः꣢ ॥१६१८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य꣢त् । चि꣣त् । हि꣢ । श꣡श्व꣢꣯ता । त꣡ना꣢꣯ । दे꣣वं꣡दे꣢वम् । दे꣣व꣢म् । दे꣣वम् । य꣡जा꣢꣯महे । त्वे꣡इति꣢ । इत् । हू꣣यते । हविः꣢ ॥१६१८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यच्चिद्धि शश्वता तना देवंदेवं यजामहे । त्वे इद्धूयते हविः ॥१६१८॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । चित् । हि । शश्वता । तना । देवंदेवम् । देवम् । देवम् । यजामहे । त्वेइति । इत् । हूयते । हविः ॥१६१८॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1618
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में परमात्मा को समर्पण किया गया है।

    पदार्थ

    (यत् चित् हि) यद्यपि (शश्वता) प्रचुर (तना) धन से, हम (देवं देवम्) प्रत्येक विद्वान् का (यजामहे) सत्कार करते हैं, तो भी हे अग्ने ! हे जगन्नायक परमात्मन् ! वस्तुतः (हविः) समर्पणीय आत्मा, मन, बुद्धि आदि तथा सब कर्म (त्वे इत्) आपमें ही (हूयते) हमारे द्वारा समर्पित हैं ॥२॥

    भावार्थ

    यथोचित सत्कार माता, पिता, अतिथि, राजा, आचार्य,उपदेशक, वानप्रस्थी, संन्यासी आदि सभी का करना चाहिए, किन्तु जगत् के उत्पत्तिकर्ता, धारणकर्ता, संहारकर्ता आदि रूप में एक परमेश्वर की ही पूजा करनी योग्य है ॥२॥

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    पदार्थ

    (यत्-चित्-हि) हे अग्ने अग्रणेता परमात्मन्! यद्यपि (शश्वतातना-‘तनयाः’) बहुत—अनेक श्रद्धा७ अनेक प्रकार श्रद्धा—इच्छा भावना से (देवं देवम्) इन्द्र मित्र वरुण आदि देव को—इन्द्र मित्र वरुण नाम से कहे जाने वाले देव को (यजामहे) पूजते हैं—उन उनकी स्तुति करते हैं परन्तु (त्वे-इत्-हविः-हूयते) तेरे अन्दर ही आत्मा८ समर्पित किया जाता है—आत्मसमर्पण किया जाता है कारण कि अग्नि नाम से परमात्मा सब देवता है९ तथा अन्य इन्द्र मित्र वरुण देव नाम अग्निनामक परमात्मा के ही हैं१०॥२॥

    विशेष

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    विषय

    प्रभु की उपासना-दिव्य गुणों को अपने साथ जोड़ना

    पदार्थ

    हे प्रभो! (यत्) = जब हम चित् हि निश्चय से (शश्वता) = [शश् प्लुतगतौ] आलस्यशून्य क्रिया के द्वारा तथा (तना) = विस्तार के द्वारा (देवं देवं) = एक-एक दिव्य गुण को (यजामहे) = अपने साथ सङ्गत करते हैं, तब वह (त्वे इत्) = आपमें ही (हविः हूयते) = हवि डाली जा रही होती है, अर्थात् वह आपकी ही उपासना की जा रही होती है ।

    उल्लिखित मन्त्रार्थ से स्पष्ट है कि १. प्रभु की उपासना का प्रकार यही है कि हम अपने साथ दिव्य गुणों का सम्बन्ध करें। जितना जितना हम दिव्यता को अपनाते हैं, उतना उतना ही प्रभु के उपासक बन रहे होते हैं । प्रभु की उपासना स्तोत्रों के उच्चारण व कीर्तन से नहीं हो जाती । उसके लिए तो जीवन को दिव्य बनाना होता है ।

    २. दिव्यता प्राप्ति के साधनों का भी संकेत मन्त्र में 'शश्वता' तथा 'तना' शब्दों से किया गया है।‘आलस्यशून्य क्रिया' तथा 'विस्तार' ही वे दो उपाय हैं, जो हमें दिव्यता को अधिगत करने में सहायक होते हैं। अकर्मण्यता और संकुचित हृदय हमें दस्यु बनानेवाले हैं ।

    भावार्थ

    हम क्रियाशील तथा हृदय के विस्तार के द्वारा दिव्य जीवनवाले बनें और इस प्रकार प्रभु के सच्चे उपासक हों ।

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    विषय

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    भावार्थ

    (यत् चित् हि) यद्यपि (शश्वता) नित्य (तना) आत्मारूप यज्ञ द्वारा (देवं देवं) वरुण, इन्द्र आदि नानारूप से उपास्यदेव को (यजामहे) हम उपासना करते हैं तो भी वह सब (हविः) प्रस्तुत करने योग्य उपासनामय स्तुति वचन और चरु आदि होम (त्वे इत्) तुझको ही लक्ष्य करके (हूयते) दिया जाता है।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१, ७ शुनःशेप आजीगतिः। २ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः। ३ शंयुर्वार्हस्पत्यः। ४ वसिष्ठः। ५ वामदेवः। ६ रेभसूनु काश्यपौ। ८ नृमेधः। ९, ११ गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ। १० श्रुतकक्षः सुकक्षो वा। १२ विरूपः। १३ वत्सः काण्वः। १४ एतत्साम॥ देवता—१, ३, ७, १२ अग्निः। २, ८-११, १३ इन्द्रः। ४ विष्णुः। ५ इन्द्रवायुः। ६ पवमानः सोमः। १४ एतत्साम॥ छन्दः—१, २, ७, ९, १०, ११, १३, गायत्री। ३ बृहती। ४ त्रिष्टुप्। ५, ६ अनुष्टुप्। ८ प्रागाथम्। ११ उष्णिक्। १४ एतत्साम॥ स्वरः—१, २, ७, ९, १०, १२, १३, षड्जः। ३, ९, मध्यमः, ४ धैवतः। ५, ६ गान्धारः। ११ ऋषभः १४ एतत्साम॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमात्मनि समर्पणं कुरुते।

    पदार्थः

    (यत् चित् हि) यद्यपि (शश्वता) प्रचुरेण (तना) धनेन। [तना इति धननामसु पठितम्। निघं० २।१०। तनेन इति प्राप्ते ‘सुपां सुलुक्०’ अ० ७।१।३९ इति विभक्तेराकारादेशः।] वयम्, (देवं देवम्) विद्वांसम् विद्वांसम् (यजामहे) सत्कुर्मः, तथापि हे अग्ने जगन्नायक परमात्मन् ! वस्तुतः (हविः) होतव्यं समर्पणीयं वस्तु आत्ममनोबुद्ध्यादिकम् सर्वं कर्म च (त्वे इत्) त्वयि एव (हूयते) अस्माभिः समर्प्यते ॥२॥२

    भावार्थः

    यथोचितः सत्कारो मातापित्रतिथिनृपत्याचार्योपदेशकवानप्रस्थ- परिव्राजकादीनां सर्वेषामेव कर्तव्यः, किन्तु जगदुत्पादकधारकसंहारकादिरूपेणैकः परमेश्वर एव पूजनीयः ॥२॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O God, though we worship Varuna, Indra etc. through eternal soul, but that worship is meant for Thee!

    Translator Comment

    Varuna, Indra are the names of God.

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    Meaning

    By whichever eternal and extended holy powers of cosmic yajna were the brilliant and generous powers of nature created, to the same divine powers we offer yajna, to one and all. And to the same powers is the holy material of yajna offered for all time. (Rg. 1-26-6)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (यत् चित् हि) હે અગ્ને અગ્રણી પરમાત્મન્ ! જો કે (शश्वतातना "तनयाः") બહુ જ અનેક શ્રદ્ધા-અનેક પ્રકાર શ્રદ્ધા-શ્રદ્ધા ભાવનાથી (देवं देवम्) ઇન્દ્ર, મિત્ર, વરુણ આદિ દેવને-ઇન્દ્ર, મિત્ર, વરુણ નામથી કહેવામાં આવતાં દેવની (यजामहे) ઉપાસના કરીએ છીએ-તે તેઓની સ્તુતિ કરીએ છીએ, પરંતુ (त्वे इत् हविः हूयते) તારી અંદર જ આત્માને સમર્પિત કરવામાં આવે છે-આત્મસમર્પણ કરવામાં આવે છે, કારણ કે અગ્નિ નામથી પરમાત્મા સર્વ દેવતા છે તથા અન્ય ઇન્દ્ર, મિત્ર, વરુણ દેવ નામ પણ અગ્નિ નામક પરમાત્માના જ છે. (૨)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माता, पिता, अतिथी, राजा, आचार्य, उपदेशक, वानप्रस्थी, संन्यासी इत्यादींचा यथोचित सत्कार करावा. परंतु जगाचा उत्पत्तिकर्ता, धारणकर्ता, संहारकर्ता इत्यादी रूपात एका परमेश्वराची पूजा करणे योग्य आहे. ॥२॥

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