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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1625
    ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः देवता - विष्णुः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम -
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    कि꣡मित्ते꣢꣯ विष्णो परि꣣च꣢क्षि꣣ ना꣢म꣣ प्र꣡ यद्व꣢꣯व꣣क्षे꣡ शि꣢पिवि꣣ष्टो꣡ अ꣢स्मि । मा꣡ वर्पो꣢꣯ अ꣣स्म꣡दप꣢꣯ गूह ए꣣त꣢꣫द्यद꣣न्य꣡रू꣢पः समि꣣थे꣢ ब꣣भू꣡थ꣢ ॥१६२५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कि꣢म् । इत् । ते꣣ । विष्णो । परिच꣡क्षि꣢ । प꣣रि । च꣡क्षि꣢꣯ । ना꣡म꣢꣯ । प्र । यत् । व꣡वक्षे꣢꣯ । शि꣡पिविष्टः꣢ । शि꣢पि । विष्टः꣢ । अ꣣स्मि । मा꣡ । व꣡र्पः꣢꣯ । अ꣣स्म꣢त् । अ꣡प꣢꣯ । गू꣣हः । एत꣢त् । यत् । अ꣣न्य꣡रू꣢पः । अ꣣न्य꣢ । रू꣣पः । समिथे꣢ । स꣣म् । इथे꣢ । ब꣣भू꣡थ꣢ ॥१६२५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    किमित्ते विष्णो परिचक्षि नाम प्र यद्ववक्षे शिपिविष्टो अस्मि । मा वर्पो अस्मदप गूह एतद्यदन्यरूपः समिथे बभूथ ॥१६२५॥


    स्वर रहित पद पाठ

    किम् । इत् । ते । विष्णो । परिचक्षि । परि । चक्षि । नाम । प्र । यत् । ववक्षे । शिपिविष्टः । शिपि । विष्टः । अस्मि । मा । वर्पः । अस्मत् । अप । गूहः । एतत् । यत् । अन्यरूपः । अन्य । रूपः । समिथे । सम् । इथे । बभूथ ॥१६२५॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1625
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 1; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में परमात्मा के स्वरूप का वर्णन है।

    पदार्थ

    हे (विष्णो) सर्वव्यापक जगदीश्वर ! (किम् इत् ते) क्या यही आपका (परिचक्षि) चारों ओर प्रकाशनीय स्वरूप है (यत्) जो आप (प्र ववक्षे) कहते हो कि मैं (शिपिविष्टः) किरणों से घिरा हुआ अर्थात् तेजस्वी (अस्मि) हूँ ? उससे अतिरिक्त भी आपका स्वरूप है, यह कहते हैं— (एतत् वर्पः) इस रूप को (अस्मत्) हमसे (मा अप गूहः) मत छिपाओ (यत्) कि आप (समिथे) उपासना-यज्ञ में (अन्यरूपः) जगत्प्रपञ्च में अधिष्ठितरूप से भिन्न (बभूथ) होते हो ॥१॥

    भावार्थ

    सूर्य आदि जगत्प्रञ्च में परमात्मा का जो तेजोमय रूप है, वह सबको दृष्टिगोचर होता है, परन्तु उसका जगत्प्रपञ्चातीत जो वास्तविक रूप है, उसका योगी लोग ही साक्षात्कार करते हैं ॥१॥

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    पदार्थ

    (विष्णो) हे व्यापक परमात्मन्! (किम्-इत् ते परि चक्षि नाम) क्या ही तेरा व्याख्या करने योग्य नाम है जो लोक-लोकान्तरों में व्याप्त छिपा हुआ है, जबकि (यद्-शिपिविष्टः-अस्मि प्रववक्षे) ज्ञानरश्मियों१ से विष्ट—आविष्ट—भरपूर हूँ ऐसा कहना उपासकों के प्रति ध्यान में आकर (अस्मत्) हम उपासकों से (वर्पः-मा-अपगूह) अपने रूप२ को मत छिपा—नहीं छिपाता है, अन्यों—साधारण जनों के सामने तेरा रूप छिपा रहता है वे तुझे स्थूल दृष्टि से देखते हैं लोकों में मात्र व्यापक है—छिपा हुआ है ऐसा ही मानते हैं (एतत्-यत्-अन्यरूपः) यह जो अन्यरूप वाला—ज्ञानदृष्टि वाला (समिथे बभूथ) अभ्यास वैराग्य द्वारा वृत्तिनिरोध संग्राम में—विजय पर तू साक्षात् हो जाता है॥१॥

    विशेष

    ऋषिः—वसिष्ठः (परमात्मा में अत्यन्त वसने वाला उपासक)॥ देवता—विष्णुः (व्यापक परमात्मा)॥<br>

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    विषय

    प्रभु का वह विलक्षण तेजोमय रूप

    पदार्थ

    हे (विष्णो) = सर्वव्यापक व निराकार प्रभो ! ते तुझे (किम् नाम इत्) = किस नाम से (परिचक्षि) = सम्बोधित करूँ ? [परिचक्ष् to address]। निराकार का नाम भी क्या रक्खूँ? और किस नाम से बुलाऊँ ?

    अच्छा, उसी नाम से ही बुलाऊँ (यत्) = जिस नाम से आप अपने को (प्रववक्षे) = प्रकर्षेण बारम्बार कहते हैं कि मैं (शिपिविष्ट:) = किरणों से व्याप्त [ शिपि - किरण, विष् to pervade] (अस्मि) = हूँ । वस्तुतः वे प्रभु प्रकाश - ही - प्रकाश हैं - प्रकाश की किरणों से व्याप्त । वे प्रभु तो तेज-ही-तेज हैं । प्रभु हज़ारों सूर्यों के तेज के समान हैं। ('तेजो यत्ते रूपं कल्याणतमम्') = इस ईशोपनिषद् के मन्त्र में प्रभु के तेजस्वी रूप का ही प्रतिपादन है । वेद में अन्यत्र प्रभु को 'आदित्यवर्णम्' कहा है ।

    हे प्रभो ! आप (अस्मत्) = हमसे (एतत् वर्पः) = इस तेजस्वी रूप को (मा अपगूह) = संवृत मत कीजिए । आपका यह तेजस्वीरूप हमारी आँखों से प्रकृतिरूप हिरण्मय पात्र के द्वारा ओझल हुआ-हुआ है। आप इस आवरण को हटाइए और अपने सत्यस्वरूप का हमें दर्शन कराइए ।

    आपका दर्शन मेरे लिए इसलिए आवश्यक है कि (यत्) = आप (समिथे) = वासनाओं के साथ होनेवाले संग्राम में (अन्यरूप:) = विलक्षणरूपवाले बभूथ होते हैं। वासनाओं से संग्राम में आपका उग्ररूप ही तो हमारे उन शत्रुओं का नाश करनेवाला होता है। आपके बिना क्या कभी इन शत्रुओं को जीता जा सकता है ? आपका दर्शन मुझे ऐसी शक्ति प्राप्त कराता है कि मैं इन शत्रुओं को वश करने में समर्थ होकर इस मन्त्र का ऋषि वसिष्ठ='वशिष्ठ' बनता हूँ । 

    भावार्थ

    हम प्रभु के तेजस्वी रूप को देखें और उस तेज में वासनाओं को भस्म करनेवाले हों।
     

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    हे (विष्णो) सर्वव्यापक ! परमात्मन् (यद्) जब आप स्वयं अपने को (शिपिविष्टः) रश्मियों से आवृत तेजोमय पिण्डों में प्रविष्ट (अस्मि) हूं इस प्रकार अपनी शक्ति को (ववेक्ष) बतला रहे हैं तब (ते) आपका (किं इत् नाम) क्या नाम या स्वरूप (परिचक्षि) कहा जाय। हे भगवन् ! (तत्) क्योंकि (समिथे) समाधि के अवसर पर आप (अन्यरूपः) दूसरे ही रूप में (बभूथ) प्रकट होते हैं। आप (एतत्) वह (वर्षः) तेजोमय रूप (अस्मद्) हम से (मा अपगूह) मत छिपाइये।

    टिप्पणी

    ‘किमित्ते अद्य परिचक्ष्यं भूत्प्रयद्ववक्षे’।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१, ७ शुनःशेप आजीगतिः। २ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः। ३ शंयुर्वार्हस्पत्यः। ४ वसिष्ठः। ५ वामदेवः। ६ रेभसूनु काश्यपौ। ८ नृमेधः। ९, ११ गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ। १० श्रुतकक्षः सुकक्षो वा। १२ विरूपः। १३ वत्सः काण्वः। १४ एतत्साम॥ देवता—१, ३, ७, १२ अग्निः। २, ८-११, १३ इन्द्रः। ४ विष्णुः। ५ इन्द्रवायुः। ६ पवमानः सोमः। १४ एतत्साम॥ छन्दः—१, २, ७, ९, १०, ११, १३, गायत्री। ३ बृहती। ४ त्रिष्टुप्। ५, ६ अनुष्टुप्। ८ प्रागाथम्। ११ उष्णिक्। १४ एतत्साम॥ स्वरः—१, २, ७, ९, १०, १२, १३, षड्जः। ३, ९, मध्यमः, ४ धैवतः। ५, ६ गान्धारः। ११ ऋषभः १४ एतत्साम॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमात्मस्वरूपमाह।

    पदार्थः

    हे (विष्णो) सर्वव्यापक जगदीश ! [यो वेवेष्टि व्याप्नोति चराचरं जगत् स विष्णुः।] (किम् इत् ते) किम् एतदेव तव (परिचक्षि) परिख्यापनीयम् (नाम) स्वरूपम् अस्ति, (यत् प्र ववक्षे) प्र ब्रूषे (शिपिविष्टः) रश्मिभिरावृतः, तेजस्वीत्यर्थः (अस्मि) भवामि इति। तदतिरिक्तमपि त्वदीयं स्वरूपं वर्तत इत्याह (एतद्-वर्पः) इदं रूपम्, (अस्मत्) अस्मत्सकाशात् (मा अप गूहः) न संवृणु (यत् समिथे) उपासनायज्ञे। [समिथे इति संग्रामनामसु पठितम्। निघं० २।१७। संग्रामवाचिनः शब्दा यज्ञवाचिनोऽपि दृश्यन्ते।] (अन्यरूपः) जगत्प्रपञ्चाधिष्ठिताद् रूपाद् भिन्नरूपः (बभूथ) भवसि। [तथा चोक्तं पुरुषसूक्ते त्रि॒पादूर्ध्व उदै॒त् पुरु॑षः॒ पादो॑ऽस्ये॒हाभ॑व॒त्पुनः॑ (ऋ० १०।९०।४) इति] ॥२॥ यास्काचार्यो मन्त्रमिममेवं व्याचष्टे—[शिपिविष्टो विष्णुरिति विष्मोर्द्वे नामनी भवतः। कुत्सितार्थीयं पूर्वं भवतीत्यौपमन्यवः। किं ते विष्णोऽप्रख्यातमेतद् भवत्यप्रख्यापनीयं यन्नः प्रब्रूषे शेप इव निर्वेष्टितोऽस्मीत्यप्रतिपन्नरश्मिः। अपि वा प्रशंसानामेवाभिप्रेतं स्यात्। किं ते विष्णो प्रख्यातमेतद् भवति प्रख्यापनीयं यदुत प्रब्रूषे शिविपिष्टोऽस्मीति प्रतिपन्नरश्मिः। शिपयोऽत्र रश्मय उच्यन्ते, तैराविष्टो भवति। मा वर्पो अस्मदपगूह एतत्, वर्प इति रूपनाम, वृणोतीति सतः। यदन्यरूपः समिथे सङ्ग्रामे भवसि संयतरश्मिः। निरु० ५।८] ॥

    भावार्थः

    सूर्यादौ जगत्प्रपञ्चे परमात्मनो यत् तेजोमयं रूपं तत् सर्वेषां दृग्गोचरं जायते, परं तस्य जगत्प्रपञ्चातीतं यद् वास्तवं रूपं तद् योगिन एव साक्षात् कुर्वन्ति ॥१॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O All-pervading God, when Then describest Thyself as All-pervading, with what words can I speak of Thy nature. Hide not from us this Form, nor keep it secret, since Thou dost wear another shape in our Samadhi!

    Translator Comment

    This form means the refulgent, lustrous shape of God we see in Nature. Griffith not being able to understand the verse fully describes it as unintelligible.

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    Meaning

    Vishnu, can that manifestive form of your presence be described or ignored? You yourself reveal in the Veda that you are self - refulgent. Pray do not hide off that form of yours from me, nor the other one which manifests in the divine wrath and punishment in the existential battle between good and evil. (Rg. 7-100-6)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (विष्णो) હે વ્યાપક પરમાત્મન્ ! (किम् इत् ते परि चक्षि नाम) જે તું લોક-લોકાન્તરોમાં વ્યાપ્ત રહેલ છે. તેનું શું તારી વ્યાખ્યા કરી શકાય તેવું નામ કહી શકાય ? જ્યારે (यद् शिपिविष्टः अस्मि प्रववक्षे) જ્ઞાનરશ્મિઓથી વિષ્ટ-આવૃત-ઢંકાયેલો ભરપૂર હું એમ કહેવું ઉપાસકોના પ્રત્યે ધ્યાનમાં આવીને (अस्मत्) અમારાથી-ઉપાસકોથી (वर्पः मा अपगूह) તારા રૂપને છુપાવ નહિ-છુપાવતો નથી, અન્યોસાધારણ જનોની સામે તારું રૂપ છુપાયેલું રહે છે, તેઓ તને સ્થૂલ દ્રષ્ટિથી નિહાળે છે કે લોકોમાં માત્ર વ્યાપક છે-છુપાયેલ છે તેમ માને છે. (एतत् यत् अन्यरूपः) એ જે અન્ય રૂપવાળા-જ્ઞાનદ્રષ્ટિવાળા (समिथे बभूथ) અભ્યાસ, વૈરાગ્ય દ્વારા વૃત્તિ નિરોધ સંગ્રામમાં-વિજય કરીને તું સાક્ષાત થાય છે. (૧)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सूर्य इत्यादीचे रूप जगात परमात्म्याचे तेजोरूप आहे, ते सर्वांना दिसून येते; परंतु जगाच्या व्यतिरिक्त त्याचे वास्तविक स्वरूप आहे, त्याचा योगी लोक साक्षात्कार करतात. ॥१॥

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