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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1645
ऋषिः - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ
देवता - इन्द्रः
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम -
35
त꣢व꣣ त्य꣡दि꣢न्द्रि꣣यं꣢ बृ꣣ह꣢꣫त्तव꣣ द꣡क्ष꣢मु꣣त꣡ क्रतु꣢꣯म् । व꣡ज्र꣢ꣳ शिशाति धि꣣ष꣢णा꣣ व꣡रे꣢ण्यम् ॥१६४५॥
स्वर सहित पद पाठत꣡व꣢꣯ । त्यत् । इ꣣न्द्रिय꣢म् । बृ꣣ह꣢त् । त꣡व꣢꣯ । द꣡क्ष꣢꣯म् । उ꣡त꣢ । क्र꣡तु꣢꣯म् । व꣡ज्र꣢꣯म् । शि꣣शाति । धिष꣡णा꣢ । व꣡रे꣢꣯ण्यम् ॥१६४५॥
स्वर रहित मन्त्र
तव त्यदिन्द्रियं बृहत्तव दक्षमुत क्रतुम् । वज्रꣳ शिशाति धिषणा वरेण्यम् ॥१६४५॥
स्वर रहित पद पाठ
तव । त्यत् । इन्द्रियम् । बृहत् । तव । दक्षम् । उत । क्रतुम् । वज्रम् । शिशाति । धिषणा । वरेण्यम् ॥१६४५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1645
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 3; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 3; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
प्रथम मन्त्र में जगदीश्वर के गुणों का वर्णन है।
पदार्थ
हे इन्द्र परमैश्वर्यवन् विघ्नविनाशक वीर परमात्मन् ! (तव धिषणा) आपकी बुद्धि (तव) आपके (त्यत्) उस प्रसिद्ध(वरेण्यम्) श्रेष्ठ वा वरणीय, (बृहत्) महान् (इन्द्रियम्) इन्द्रत्व को, परमैश्वर्य को, (दक्षम्) बल को, (क्रतुम्) प्रज्ञान, कर्म, सङ्कल्प व यज्ञ को (उत) और (वज्रम्) न्यायरूप वज्र को वा दण्ड-सामर्थ्य को (शिशाति) सदैव तीक्ष्ण करती रहती है ॥१॥
भावार्थ
परमात्मा के परमैश्वर्य, बल, प्रज्ञान, कर्म, श्रेष्ठ संकल्प, यज्ञ-भावना, न्याय-प्रदान और दण्ड-सामर्थ्य कभी घटते नहीं, प्रत्युत सदा बढ़े हुए और सदा तीक्ष्ण रहते हैं, जिससे सब लोग लाभान्वित होते हैं ॥१॥
पदार्थ
(धिषणा) हे परमात्मन्! स्तुतिवाणी९ (तव) तेरे (त्यत्) उस (बृहत्-इन्द्रियम्) महान् लिङ्ग—स्वरूप को (तव) तेरे (दक्षम्) बल को (उत) अपि—और (क्रतुम्) प्रज्ञान—प्रकृष्ट ज्ञान को या दर्शनभान को (वरेण्यं वज्रम्) वरने योग्य ओज को१ स्वात्मबल को (शिशाति) तीक्ष्ण कर देता है—विकसित कर देता है—उपासक के लिये स्राक्षात् करने योग्य बना देता है॥१॥
विशेष
ऋषिः—गोषूक्त्यश्वसूक्तिनावृषी (इन्द्रियविषयक अच्छी प्रार्थना एवं व्यापनशील मनसम्बन्धी अच्छी प्रार्थनावाला)॥ देवता—इन्द्रः (ऐश्वर्यवान् परमात्मा)॥ छन्दः—उष्णिक्॥<br>
विषय
इन्द्रिय, दक्ष, क्रतु व वज्र
पदार्थ
प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि ‘गोषूक्ति व अश्वसूक्ति' है- जिसकी ज्ञानेन्द्रियाँ तथा कर्मेन्द्रियाँ दोनों ही उत्तम प्रकार से वेदवाणी का प्रतिपादन करती हैं, अर्थात् जो ज्ञानेन्द्रियों से उन्हें पढ़ता है और कर्मेन्द्रियों से उनका आचरण करता है । वेदवाणी का अध्ययन करते हुए यह अनुभव करता है कि (धिषणा) = यह वेदवाणी [धिषणा=वाङ्नाम] हे प्रभो ! (तव) = तेरे (त्यत्) = उस प्रसिद्ध (बृहत् इन्द्रियम्) = वृद्ध इन्द्रियशक्ति को (शिशाति) = तीव्र करती है, अर्थात् प्रबल व सूक्ष्मरूप से वर्णन करती है। यह प्रभु इन भौतिक इन्द्रियों से रहित होता हुआ भी किस प्रकार (‘विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतो बाहुरुत विश्वतस्पात्') सर्वत्र आँख, मुख, बाहु व पाँववाला है— इस बात का यह वेदवाणी प्रतिपादन कर रही है। सर्वेन्द्रियविवर्जित होते हुए भी वे प्रभु सर्वेन्द्रियगुणों के आभासवाले हैं।
१. (तव बृहत् दक्षम्) = हे प्रभो ! यह वेदवाणी तेरे उस सदा वृद्ध बल का वर्णन करती है । इस संसार के धारण करनेवाले प्रभु का बल किस प्रकार अनन्त होगा ?
२. (उत क्रतुम्) = यह वेदवाणी तेरे इस महान् सृष्टिरूप कर्म का भी वर्णन करती है [उत= भी, क्रतु= कर्म ]
३. और अन्त में (वरेण्यम् वज्रम्) = वरणीय क्रियाशीलता का यह प्रतिपादन करती है [वज गतौ]। प्रभु की क्रिया स्वाभाविक है, अर्थात् उसका अपना कोई स्वार्थ इसमें निहित हो ऐसी बात नहीं है। स्तोता को भी चाहिए कि वह क्रिया को अपने लिए स्वाभाविक बनाये ।
भावार्थ
वेदवाणी के अध्ययन से हम प्रभु की दर्शनादि शक्ति, बल व कर्म को तथा वरणीय नि:स्वार्थ क्रियाशीलता को जानें और उसकी महिमा के प्रति नतमस्तक हों। उन गुणों को हम भी धारण करने का प्रयत्न करें ।
विषय
missing
भावार्थ
हे इन्द्र ! (तव) तेरे (त्वत्) वह (वरेण्यं) वरण करने योग्य (इन्द्रियं) ऐश्वर्य॑मय स्वरूप को, (बृहत्) बड़े भारी (तव दक्षम्) तेरे बल सामर्थ्य, अनन्त शक्ति को और (क्रतुम्) उस महान् कर्म=ब्रह्माण्ड संचालन को और वरण करने योग्य ज्ञानरूप (वज्रं) देहबन्धन काटने हारे मोक्षसाधन को हमारी (धिषणा) बुद्धि और वाणी (शिशाति) साक्षात् करती है, उसकी महिमा को दिखलाती है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१, ७ शुनःशेप आजीगतिः। २ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः। ३ शंयुर्वार्हस्पत्यः। ४ वसिष्ठः। ५ वामदेवः। ६ रेभसूनु काश्यपौ। ८ नृमेधः। ९, ११ गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ। १० श्रुतकक्षः सुकक्षो वा। १२ विरूपः। १३ वत्सः काण्वः। १४ एतत्साम॥ देवता—१, ३, ७, १२ अग्निः। २, ८-११, १३ इन्द्रः। ४ विष्णुः। ५ इन्द्रवायुः। ६ पवमानः सोमः। १४ एतत्साम॥ छन्दः—१, २, ७, ९, १०, ११, १३, गायत्री। ३ बृहती। ४ त्रिष्टुप्। ५, ६ अनुष्टुप्। ८ प्रागाथम्। ११ उष्णिक्। १४ एतत्साम॥ स्वरः—१, २, ७, ९, १०, १२, १३, षड्जः। ३, ९, मध्यमः, ४ धैवतः। ५, ६ गान्धारः। ११ ऋषभः १४ एतत्साम॥
संस्कृत (1)
विषयः
तत्रादौ जगदीश्वरस्य गुणान् वर्णयति।
पदार्थः
हे इन्द्र ! हे परमैश्वर्यवन् विघ्नविदारक शूर परमात्मन् ! (तव धिषणा) त्वदीया बुद्धिः, (तव) त्वदीयम् (त्यत्) तत् प्रसिद्धम्(वरेण्यम्) श्रेष्ठं वरणीयं वा (बृहत्) महत् (इन्द्रियम्) इन्द्रत्वम् परमैश्वर्यवत्त्वम्, (दक्षम्) बलम्, (क्रतुम्) प्रज्ञानं, कर्म, संकल्पं,यज्ञं वा (उत) अपि च (वज्रम्) न्यायवज्रम्, दण्डसामर्थ्यं वा(शिशाति) सदैव तीक्ष्णीकरोति। [शिशीते निश्यति इति निरुक्तम् ४।१८] ॥१॥
भावार्थः
परमात्मनः परमैश्वर्यं बलं प्रज्ञानं कर्म सत्संकल्पाः यज्ञभावना न्यायप्रदानं दण्डसामर्थ्यं च न कदापि हसन्ति, प्रत्युत सदावृद्धानि सदातीक्ष्णानि च तिष्ठन्ति, येन सर्वे जना लाभान्विता जायन्ते ॥१॥
इंग्लिश (2)
Meaning
0 God, our intellect visualises that lofty power and might, of Thine, Thy strength and Thy intelligence, and Thy adorable instrument of salvation that cuts asunder the bondage of the body!
Meaning
That grandeur and majesty of yours, that power and potential, that continuous act of divine generosity, that adamantine will and force of natural justice and dispensation of the thunderbolt which overwhelms our will and choice commands our sense of discrimination, and we glorify it, we sharpen it, we accept it with adoration. (Rg. 8-15-7)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (धिषणा) હે પરમાત્મન્ ! સ્તુતિવાણી (तव) તારા (त्यत्) તે (बृहत् इन्द्रियम्) મહાન લિંગસ્વરૂપને (तव) તારા (दक्षम्) બળને (उत) પણ-અને (क्रतुम्) પ્રજ્ઞાન-પ્રકૃષ્ટ જ્ઞાનને અથવા દર્શનભાનને (वरेण्यं वज्रम्) વરણ કરવા યોગ્ય ઓજને-સ્વ આત્મબળને (शिशाति) તીક્ષ્ણ કરી દે છે-વિકસિત કરી દે છે. ઉપાસકને માટે સાક્ષાત્ કરવા યોગ્ય બનાવી દે છે. (૧)
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्म्याचे परमैश्वर्य, बल, प्रज्ञान, कर्म, श्रेष्ठ, संकल्प, यज्ञ-भावना, न्याय-प्रदान व दण्ड सामर्थ्य कधी कमी होत नाही तर सदैव वाढते व सदैव तीक्ष्ण असते, ज्यामुळे सर्व लोक लाभान्वित होतात. ॥१॥
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